22-09-2014, 01:43 PM
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#18
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Re: प्रेम.. और... त्याग...
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Originally Posted by soni pushpa
आपके लेखन कला की पहचान आपके पहले सूत्र से हो चुकी है रजत जी . और आप बहुत बड़े आलोचक, समालोचक, और हास्य रचनाओ के रचयिता, व्याख्याता.. किसी भी विषय की बड़े रुचिपूर्ण ढंग से व्याख्या कर सकते हो ये सब हमे पता चल जाता है जब आप इतना कुछ लिखते हो .... पर सबसे पहले धन्यवाद देती हूँ की आप इतना इन्टरेस्ट ले रहे हो इस विषय में .और मेरी अनुमति न मांगिये, जरुर लिखिए बस इतना चाहूंगी कि,जो विषय है उससे न भटक जाएँ हम सब, क्यूंकि यदि हम दुसरी बातो पर ध्यान देने लगेंगे तो जो mein मुद्दा है वो एक तरफ रह जायेगा और हम फिल्मों,serialsकी और आगे निकल जायेंगे . और रही बात भगवान को इस लेख में लेने की, तो इस प्रेम शब्द की व्यापकता कितनी है वो बताने के लिए ये बात कहना यहाँ में बहुत जरुरी समझती हू क्यूंकि हम इंसान कभी भगवान से बढकर नही हैं.
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सोनी पुष्पा जी, आपकी बात सच है कि ‘सबसे बड़ा भगवान है’ किन्तु मुझे उस समय घोर आश्चर्य होता है जब असंबंधित बातों से ईश्वर अचानक अपना नाता जोड़कर बेवजह नाराज़ हो जाता है, जबकि उन बातों से ईश्वर का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता. ईश्वरीय भाषा मानी जाने वाली ‘संस्कृत’ कुछ ऐसी ही है जो अपने कठिन ‘व्याकरण’ (Grammer) के कारण अनावश्यक रूप से भक्तों और ईश्वर के मध्य संदेह उत्पन्न करती है. इसलिए व्याकरण के मूल सिद्धान्त को समझना चाहिए- ‘ईश्वर की इच्छा और ईश्वर के विरुद्ध कुछ भी नहीं है’. मैंने तो आज तक संस्कृत में कोई ऐसा श्लोक नहीं पढ़ा जिसमें ईश्वर के विरुद्ध कुछ कहा गया हो. आप लिखती हैं कि ‘आपकेलेखन कलाकी पहचान आपके पहले सूत्रसेहो चुकी है’. हमें लिखते समय यह तो पता ही रहता है कि हमारी कोई कृति कितनी अच्छी या घटिया है. वस्तुतः जिस कृति को दूसरे लोग अच्छा समझते हैं वह हमारी नज़रों में घटिया होती है और इस बात को कोई कला का पारखी ही पहचान सकता है. वैसे तो मैंने आपकी तीन कविताएँ ही पढ़ी हैं किन्तु मैं उन कृतियों द्वारा आपके अन्दर कला के ‘छुपे रुस्तम’ को पहचान गया और उस समय तो आपकी पारखी दृष्टि की और अधिक पुष्टि हो गयी जब आपने पहली बार मेरी कविता ‘चिराग’ पर अपनी पहली टिप्पणी में कहा कि- ‘चिरागों टले अँधेरारहे वो ही अच्छा...’ चर्चा पर अनुमति प्रदान करने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.
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