Quote:
Originally Posted by Rajat Vynar
सोनी पुष्पा जी, आपकी बात सच है कि ‘सबसे बड़ा भगवान है’ किन्तु मुझे उस समय घोर आश्चर्य होता है जब असंबंधित बातों से ईश्वर अचानक अपना नाता जोड़कर बेवजह नाराज़ हो जाता है, जबकि उन बातों से ईश्वर का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं होता. ईश्वरीय भाषा मानी जाने वाली ‘संस्कृत’ कुछ ऐसी ही है जो अपने कठिन ‘व्याकरण’ (Grammer) के कारण अनावश्यक रूप से भक्तों और ईश्वर के मध्य संदेह उत्पन्न करती है. इसलिए व्याकरण के मूल सिद्धान्त को समझना चाहिए- ‘ईश्वर की इच्छा और ईश्वर के विरुद्ध कुछ भी नहीं है’. मैंने तो आज तक संस्कृत में कोई ऐसा श्लोक नहीं पढ़ा जिसमें ईश्वर के विरुद्ध कुछ कहा गया हो. आप लिखती हैं कि ‘आपकेलेखन कलाकी पहचान आपके पहले सूत्रसेहो चुकी है’. हमें लिखते समय यह तो पता ही रहता है कि हमारी कोई कृति कितनी अच्छी या घटिया है. वस्तुतः जिस कृति को दूसरे लोग अच्छा समझते हैं वह हमारी नज़रों में घटिया होती है और इस बात को कोई कला का पारखी ही पहचान सकता है. वैसे तो मैंने आपकी तीन कविताएँ ही पढ़ी हैं किन्तु मैं उन कृतियों द्वारा आपके अन्दर कला के ‘छुपे रुस्तम’ को पहचान गया और उस समय तो आपकी पारखी दृष्टि की और अधिक पुष्टि हो गयी जब आपने पहली बार मेरी कविता ‘चिराग’ पर अपनी पहली टिप्पणी में कहा कि- ‘चिरागों टले अँधेरारहे वो ही अच्छा...’ चर्चा पर अनुमति प्रदान करने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद.
|
श्रीमान रजत जी फिर से आपने अनुमति की बात की , मेरा मानना है की आपकी लेखन कला से सभी वाचक अब तक परिचित हो ही गए हैं. और सब आपकी लिखी बात को पढना जरुर चाहेंगे ही तो आप लिखना जरुर . रही बात मेरी लिखी कविता में मेरे छुपे रुस्तम होने की तो वो मै कोई बड़ी कवयित्री नही हूँ बस कभीकभी मन भावुक हो जाता है और शब्द आपने आप चलते आते हैं जहन में , और कलम लिखते चली जाती है ... पर sorry यहाँ key बोर्ड है जहाँ typing होते चली जाती है ... आपकी लेखन शैली बहुत उच्च स्तररीय है .. .. आपने देखा न हम अब प्रेम और त्याग के विषय से हटकर दुसरे विषय पर बात करने लगे हैं इसलिए ही मेने कहा की हम एक ताल में ही रहे तो अच्छा होगा वर्ना विषय जो यहाँ रखा गया है, उससे हम भटक जायेंगे और दूसरी चर्चा में लग जायेंगे ..