25-09-2015, 02:43 PM
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Re: सुखनवर (महान शायर व उनकी शायरी)
पंडित हरिचंद अख्तर
ग़ज़ल
कलियों का तबस्सुम हो, तुम हो, कि सुभा हो
इस रात के सन्नाटे में, कोई तो सदा हो
यूँ जिस्म महकता है हवा ए गुल-ए-तर से
जैसे कोई पहलु से अभी उठ के गया हो
दुनिया हमा तन गोश है, आहिस्ता से बोलो
कुछ और क़रीब आओ, कोई सुन ना रहा हो
ये रंग, ये अंदाज़-ए-नवाज़िश तो वही है
शायद कि कहीं पहले भी तू मुझ से मिला हो
यूं रात को होता है गुमां दिल की सदा पर
जैसे कोई दीवार से सर फोड़ रहा हो
दुनिया को ख़बर क्या है मिरे ज़ौक़-ए-नज़र की
तुम मेरे लिए रंग हो, ख़ुशबू हो, ज़िया हो
यूँ तेरी निगाहों में असर ढूंढ रहा हूँ
जैसे कि तुझे दिल के धड़कने का पता हो
इस दर्जा मुहब्बत में तग़ाफ़ुल नहीं अच्छा
हम भी जो कभी तुमसे गुरेज़ाँ हो तो क्या हो
हम ख़ाक के ज़र्रों में हैं अख़तर भी, गुहर भी
तुम बाम-ए-फ़लक से, कभी उतरो तो पता हो
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
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