Re: हाईवे पर संजीव का ढाबा
“क्या हुआ… पहचाना नहीं।” उसके चेहरे पर शरारत झलक रही थी।
“नहीं।” मैंने उसके चेहरे को काफी देर गौर से देखा।
“मैं संजीव जिसे तू संजू कहकर पुकारता था।”
मैं उसे काफी देर तक फटी आंखों से देखता रहा। कहां वह संजीव कंधे पर अंगोछा, चेहरे पर बिखरी दाढ़ी। जवानी में भी चेहरे पर रंगत नहीं। कहां यह संजीव – चेहरे पर चमक, भरे हुए गाल, साफ-सुथरे कपड़े।
अक्सर संजीव का गांव में किसी न किसी झगड़ा होता रहता है। कहता, हमारे में और इन गैर दलितों में क्या अंतर हैं? वो भी इंसान, हम भी इंसान। उनके शरीर में भी लाल खून और हमारे शरीर में भी। फर्क यही तो है न कि वह अमीर हम गरीब। उनके पास बहुत बड़े बड़े खेत हैं, हमारे पास नाम मात्र को एक दो बीघा खेत। उनके खेतों पर काम करना हमारी मजबूरी, लेकिन हम मेहनत तो उनसे ज्यादा करते हैं। ऊपर से कहेंगे हम नीच हैं।
कुओं का पानी सूख गया। अब पूरे गांव में हैंड पंप लग गये। एक बार ठाकुरों का हैंडपंप खराब हो गया। ठाकुर हमारे यहां लगे हैंड पंप से ही पानी भरते और अपनी भैंसों को नेहलाते। उनका हैंड पंप ठीक होने में पूरा महीना लग गया।
जिद्दी किस्म का संजीव अपनी बाल्टी लेकर ठाकुरों के हैंड पंप पर पानी भरने पहुंच गया। अभी वह हैंडपंप चलाकर बाल्टी भर ही रहा था कि एक ठकुराइन ने आकर विरोध कर दिया। कुछ और ठाकुर भी जमा हो गये। ठाकुरों के आगे हमारा वश कहां चलता? गांव ठाकुरों का ही था। लेकिन संजीव भी पानी भरकर ही हटा, जिद्दी जो ठहरा।
बाद में ठाकुरों ने उस हैंडपंप को डिटर्जेंट पाउडर से धोया।
एक दिन तो संजीव ने हद ही कर दी। एक ठाकुर के यहां अपने मां बाप की मजदूरी लेने गया। घर में कुछ रिश्तेदार आ गये थे। उसके मां बाप ने ठाकुर के खेतों पर काम किया था। गरमी तेज थी, जून का महीना। शाम के तीन बजे का समय। सूर्य पश्चिम दिशा की ओर बढ़ रहा था, लेकिन अब भी आग ही उगल रहा था।
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