Re: 'मछलीमार' - कहानी - प्रत्यक्षा
मैं बाहर आ गया था, सिगरेट जलाई थी फिर बहुत देर गाड़ी में स्टीयरिंग व्हील पकड़े जड़ बैठा रहा था। सिगरेट की जलती नोक भुरभुरे राख में तब्दील हो गई थी।
तब रैना को गए ज़्यादा दिन नहीं हुए थे। मेरे अंदर एक रेतीला तूफ़ान हरहराता था। आँखों में रेत, मुँह में रेत। मुट्ठियों से जीवन अचानक किसी हावरग्लास की तेज़ी या कहें सुस्ती से चूक गया था।
तब शुरुआत के दिन थे। हम अपना दुख एक दूसरे से छिपाते चलते थे। हमने अपने-अपने शोक-स्थल चुन लिए थे। रैना बाहर फूलों, पौधों की निराई करते वक्त आँसुओं से उन्हें सींचा करती। मैं बाथरूम में। फिर रैना कमज़ोर होती चली गई थी। हमने अपने जगह बदल दिए थे। रैना बाथरूम में रोती। मैं बाहर दरवाज़े पर टिककर। फिर वो बाहर निकलती तो चेहरा धुला-धुला लगता।
मुझे एक गीली मुस्कान देती और बिस्तर पर निढाल पड़ जाती। हम इस दुख के चारों ओर पैंतरे बाँधे शिकारियों के चौकन्नेपन से घेर बाँधते। इन दिनों उसका चेहरा पीला, कमज़ोर, नाज़ुक हो गया था। सारे नक्श और तीखे, कोमल और सुबुक। उसकी बाँहों पर नीली नसों की धारियाँ फैल गई थीं। मैं घँटों निःशब्द उन्हें सहलाता रहता। माँ आना चाहती थीं। मैंने मना कर दिया था।
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