Re: 'मछलीमार' - कहानी - प्रत्यक्षा
बीयर की अंतिम घूँट भर कर मैं सीधा बैठ गया था। आज कैन नहीं बोतल था। किंगफिशर के लेबल पर बहुत देर तक उँगली फिराता रहा। मन हुआ कोई चिट्ठी लिखकर उस बोतल में बंद, तैरा दूँ इस हरे पानी में। किसी छेद से, किसी जादू से मेरा ये खत उस दुनिया में पहुँच जाए। बस पहुँच जाए। मैं स्थिर बैठा रहा। निस्पंद, निश्चल। मेरी हथेलियाँ बंसी को पकड़े शिथिल हो रही थीं। मेरा हाथ मुझे नहीं कहता था कि ये मेरा है, मैं ये सिर्फ़ महसूसता था। मेरा शरीर मेरा नहीं था, मेरी साँस मेरी नहीं थी, न मेरी धड़कन। फिर भी मैं महसूस करता था कि ये सब मेरा है। ये सब मैं हूँ। मैं जो था, तत त्वम असि। विचार मेरे मन में आते थे। वे मेरे थे ऐसा वे नहीं कहते पर ऐसा है ये मैं विश्वास करता और यह भी मेरी ही सोच थी। ये ''मैं'' कहाँ से आता था? ''मैं'' कौन था? कौन? और इसे जानने के लिए मेरा ये जानना बहुत ज़रूरी था कि मैं क्या नहीं था। मैं अपने शरीर को महसूस करता था अपनी इंद्रियों से। मैं अपने विचारों को महसूस करता था अपने इंद्रियों से। मैं ही दृश्य था मैं ही दृष्टा था। सत चित्त आनंद।
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