Re: ब्लॉग वाणी
इंसान से बेहतर है जानवर?
-अमिता नीरव
खिड़की से रोशनी आ रही थी और अलसुबह की हल्की ठंडक भी। इस वक्त ना तो किसी तरह की कोई हड़बड़ी थी न आगे की योजना थी। वक्त जैसे हवा में उड़ाने के लिए ही बचा हुआ था। यूं ही विचार तंद्र्रा की तरह थे कि खिड़की की फ्रेम पर गिलहरी उछल-कूद करती नजर आई। अचानक वो कूलर पर नजर आई। उसके मुंह में कपड़े का छोटा टुकड़ा था जिसे वो कूलर के अंदर डालने की कोशिश कर रही थी। उसी दौरान एक और गिलहरी वहां आ गई। फिर दोनों बाहर की तरफ से उस कपड़े को अंदर ठेलने की कोशिश करती रहीं। ये क्रम 10-12 सेकंड तक चलता रहा। जो गिलहरी कपड़ा लेकर आई थी वो अचानक उस कपड़े और दूसरी गिलहरी को छोड़कर चली गई। शायद दोनों इस बात से मुत्तमईन हो गई थीं कि कपड़ा अटक गया है और अब गिरेगा नहीं। कितने कौशल से दोनों ने उस कपड़े को अटका दिया था। बहुत कौतूहल था उन गिलहरियों की गतिविधियों को लेकर। दूसरी गिलहरी और थोड़ी देर तक कपड़े को अंदर डालने की कोशिश करती रही। एकाएक वो कूलर के अंदर घुसी और उस कपड़े को खींच लिया। मैं हतप्रभ। कितनी योजना,सामंजस्य,समझ,प्यार और कितनी बुद्धि। बचपन में ही सुना था कि इंसान और जानवर के बीच का एकमात्र फर्क ये है कि इंसान के पास बुद्धि होती है। कहा किसी बड़े ने था सो मानना ही था। भूल गए कि बारिश से पहले चींटियां अपना खाना जमा करती हैं। क्यों ऐसा होता है जिस रास्ते से घुस कर बिल्ली को खाने-पीने के लिए मिलता है वो बार-बार उसी रास्ते का इस्तेमाल करती है। भूल गए कि हमारे बुजुर्गों ने अपने जीवन के कई अनुभव जीव-जंतुओं के व्यवहार से ही वेरीफाई किए हैं। याद आता है मां का कहा कि काली चींटी काटती नहीं है। इसलिए बचपन में दोनों हाथों की पहली ऊंगलियों और अंगूठों को जोड़कर काली चींटी के इर्दगिर्द पाननुमा घेरा बना लेते। वो लगातार घेरे से निकलने का रास्ता ढूंढती रहती। कई बार हाथ पर चढ़ जाती है। जरा सा रास्ता निकालते तो वो खट से बाहर निकलने की जुगत लगा लेती। तो कैसे कहा जा सकता है कि जीव-जंतुओं के पास बुद्धि नहीं होती?अनुसंधानों ने भी ये सिद्ध किया कि जीव-जंतुओं में भी बुद्धि होती है। प्यार,संवेदना, समझ,अपनापन सब कुछ होता है। भाषा भी होती है। ये हमारे ज्ञान की सीमा है कि हम ना तो उनकी भाषा समझ पाते हैं और न हीं उनके बीच के संबंधों को। तो फिर कैसे कह सकते हैं कि इंसानों के पास कुछ ऐसा है जो अतिरिक्त है। जैसे बुद्धि! लेकिन सही है। कुछ तो है जो इंसानों के पास प्रकृति की हर सजीव देन से ज्यादा है। जाहिर है तभी विकास भी है, विनाश भी और असंतुलन भी। दरअसल इंसान के पास नकारात्मक बुद्धि है। हवस, ईर्ष्या, हिंसा, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ और लालच जिसके स्वभाव का हिस्सा है और जो अपनी हवस और अहम की पूर्ति के लिए प्रकृति, जीव-जंतुओं और अपने सहोदरों को बेवजह भी नुकसान पहुंचाता है। तो जो कुछ विकास-विनाश है जो इस लालच और हवस की ही देन है। तो हुआ न इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति...।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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