Re: उपनिषदों का काव्यानुवाद
द्वितीय खंड
यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु मीमाँस्येमेव ते मन्ये विदितम् ॥१॥
यदि तेरा यह विश्वास कि तू ब्रह्म से अति विज्ञ है।
मति भ्रम है किंचित विज्ञ, पर अधिकांश तू अनभिज्ञ है॥
मन, प्राण में, ब्रह्माण्ड में, नहीं ब्रह्म है ब्रह्मांश है।
तुमसे विदित ब्रह्मांश जो, वह तो अंश का भी अंश है॥ [1]
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