13-04-2013, 06:57 PM
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#44
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Re: इधर-उधर से
महावीर सिंह का पत्र
नकोट
24.7.1976
तरल प्राकृतिक सौन्दर्य और
सुष्ठु मानव बोध के मित्र,
रजनीश,
कहाँ?
मेरा अधिवास कहाँ?
क्या कहा? --- ‘रूकती है गति जहाँ?
भला इस गति का शेष संभव है क्या –
करूण स्वर का जब तक मुझमे रहता है आवेश?
मैंने “मैं” शैली अपनाई
देखा दुखी एक निज भाई,
दुःख की छाया पड़ी हृदय में मेरे
झट उमड़ वेदना आई.
आज पल्लवित हुयी है डाल,
झुकेगा कल गुंजित मधुमास.
मुग्ध होंगे मधु से मधु बोल,
सुरभि से अस्थिर मरुताकाश,
कनक छाया में मलय समीर
खोलती कलिका उर के द्वार,
सुरभि प्रमुदित मधुपों के बोल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
न जाने ढुलक ओस में कौन
खींच लेता मेरे दृग मौन!
“पल्लव”
शुभमस्तु
महावीर
Last edited by rajnish manga; 13-04-2013 at 07:16 PM.
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