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Old 01-07-2013, 08:57 AM   #3
dipu
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Default Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )

सांवले रंग की गुलाबी खूबसूरती लिए, सुंदर-सुडौल-मजबूत देहयष्टि वाली वीरांगना झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास भोजल गाँव में हुआ। इनके पिता का नाम सदोवा तथा माता का नाम जमुना था। इनके माता-पिता बेहद गरीब थे। इसलिए इनका जीवन कष्टों में बीत रहा था। गरीबी में जीवन जीते हुए भी परिवार के लोगों में कठिन परिस्थितियों से लडने की हिम्मत और ताकत की कोई कमी नही थी। जब झलकारी बहुत छोटी थी तभी इनकी माताजी का देहांत हो गया था। झलकारी बाई का लालन-पालन पिता ने बड़े लाड़-प्यार से किया। झलकारी को वे अपने बेटा-बेटी दोनों मानते थे। झलकारी बाई कोरी जाति की थी तथा उनके पिता बुनकर समुदाय के थे। वे कपड़े बुनने का काम करते थे। झलकारी बाई में बचपन से ही मानसिक और शारीरिक ताकत की कमी नही थी। इसकी गवाह कुछ घटनाएं है जो उनकी बहादुरी और हिम्मत को बयां करती है। वह बेहद निडर थी। घर के ईंधन के इंतजाम के लिए वह बेखौफ बिना किसी संकोच के बियाबान बीहड जंगलों में अकेली ही चली जाती थी। जब झलकारी मात्र तेरह-चैदह वर्ष की ही थी तब वह एक बार वह जंगल मे लकड़ियाँ लेने गई। शाम को लौटते समय बाघ ने अचानक उस पर हमला कर दिया। उस समय झलकारी बिल्कुल निहत्थी थी। उसके पास केवल दिन भर की बटोरी गई लकडियां ही थी। अपने ऊपर अचानक आई विपदा से लडने की हर किसी के पास क्षमता नही होती पर झलकारी बाई में यह क्षमता कूट-कूट कर भरी हुई थी। कठिन परिस्थिति में भी धैर्य विवेक ना खोते हुए उस परिस्थिति का हिम्मत और साहस से डटकर मुकाबला उसके चरित्र की विशेषता थी। इसलिए बाघ के अचानक हमला करने पर भी झलकारी तनिक नही घबराई और एक मोटी सी लाठी नुमा लकडी लेकर बाघ से भिड गई और बाघ को मार ड़ाला। शाम को लहुलुहान अवस्था में जब झलकारी घर पहुँची तो पिता उस की हालत देखकर घबरा गए और रोने लगे। झलकारी के पूरे शरीर पर चोट और खरोंचो के निशान थे व जगह-जगह से खून रिस रहा था। झलकारी उनकी एकमात्र पुत्री थी, जिसे वह बडे कष्ट उठाकर पाल रहे थे। जंगल मे झलकारी ने अकेले बाघ को मार गिराया यह खबर पूरे गाँव मे जंगल की आग की तरह फैल गई। लोग दूर-दूर से आकर उस बहादुर, निडर कन्या से मिलने आने लगे। ऐसी ही एक और घटना है जब झलकारी ने अकेले गांव के जमींदार के घर में घुसे डाकुओं को ललकारते हुए उनपर हमला कर भागने पर विवश कर दिया। यह 1950 की बात है। एक रात झलकारी अपने घर में सोने की तैयारी कर रही थी। चारों तरफ भयंकर अंधकार छाया हुआ था। अचानक कही से जोर जोर से ‘मारो मारों...’ की आवाजे आने लगी। फिर कुछ रोने और कराहने की आवाजे भी आने लगी। झलकारी बाई से रुका नही गया और वह दौड कर आवाज आने वाली दिशा में गई। उसके हाथ में केवल एक मोटा डंडा था। यह आवाजे गांव के मुखिया के घर से आ रही थी। उनके घर को डाकुओं ने घेर लिया था। झलकारी बाई ने अपने वस्त्र कसकर बांधते हुए मुखिया के आंगन में कूद गई। उसने अपने मोटे डंडे से उन डाकुओं पर वार किया। उसने कुछ डाकुओं को धर दबोचा। डाकू उसके इस भयानक रुप से इतना डर गए कि वह मैदान छोडकर भाग निकले। गांव के मुखिया झलकारी की वीरता, साहस, हिम्मत के आगे नतमस्तक हो गए। मुखिया ने झलकारी को अपनी बेटी मान लिया। ऐसी ही एक और घटना है जब झलकारी ने अपनी हिम्मत नही हारी और डाकुओं को भागने पर मजबूर कर दिया। बात सन् अक्तूबर 1952 की है। गांव के पास ही एक मेला लगा था। शाम के समय जब जब झलकारी अपनी सहेलियों के साथ मेला देखने जा रही थी उसी समय डाकुओं ने उनके समुह को घेर लिया और उनसे उनके पहने गहने मांगने लगे। सब लडकियां बिना किसी विरोध के अपने गहने आदि उतार-उतार कर देने लगी। डाकुओं के विरोध करने का मतलब था अपनी जान असमय खोना। असमय और बिना वजह जान देने की हिम्मत हर किसी में नही होती। ऐसे ही जब झलकारी की बारी आई तो उसने गले में पडी हंसली को उतारने का अभिनय करते हुए कहा यह बहुत छोटी है इसे काटकर उतारना पडेगा। इसलिए उनको काटने के लिए डाकुओं से उनकी कटार मांगी। कटार हाथ में आते ही झलकारी ने डाकुओं के बीच मार काट मचाते हुए उसे एक तरह से रणक्षेत्र में बदल दिया। झलकारी के रौद्र रुप को देखते हुए डाकू जान बचाकर भागने लगे। झलकारी की वीरता के चर्चे पूरी झांसी में फैल गए। झलकारी की वीरता के चर्चे “पूरनमल कोरी” ने भी सुने। पूरन कोरी झांसी के राजा “गंगाधर राव अर्थात रानी लक्ष्मीबाई के पति” की सेना में सिपाही था तथा तोपची के पद पर तैनात था। पूरन स्वयं बहुत बहादुर सिपाही तथा एक जाना-माना पहलवान था। वह शरीर ह्रष्ठ-पुष्ठ, बलिष्ठ तथा देखने में बहुत सुंदर था। वह स्वयं बहादुर होने के कारण बहादुर लोगों की बहुत कद्र करता था।अपनी जीवन संगिनी के रुप में वह मन ही मन निडरता और साहस की मूर्ति झलकारी बाई की कामना करने लगा। इसलिए उसने झलकारी बाई की बहादुरी के कारनामों से मुग्ध होकर उसके पास विवाह का प्रस्ताव भिजवाया। झलकारी बाई के पिता ने ऐसे सुयोग्य वर के रिश्ते को सहर्ष मंजूर कर लिया। झलकारी बाई और पूरन कोरी का वैवाहिक जीवन सुख से बीतने लगा। पूरनमल ने झलकारी बाई को तीर, तलवार, भाला, बरछी, बंदूक और घुडसवारी सिखाई। झलकारी बाई देखते देखते इन कलाओं में इतनी प्रवीण हो गई जैसे की प्रशिक्षण प्राप्त कुशल योद्धा होते है। झलकारी बाई को बहादुरी के किस्से जब रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने सुने। वह भी झलकारी बाई से मिलने के लिए बहुत उत्सुक थी। रानी लक्ष्मीबाई हिम्मती और बहादुर लोगों की बहुत मान करती थी और बहादुर औरतो की तो और भी ज्यादा । रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी के अन्दर ही स्त्रियों की सेना ‘दुर्गा सेना’ बनाई थी। दुर्गा सेना की महिला सैनिक एक योद्धा की तरह युद्ध की एक- एक कला में पारंगत थी। एक बार वसंत पंचमी के दिन गौरी पूजन के हल्दी-कुंकुम के त्यौहार मनाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने महल में झांसी की सभी महिलाओं को आमंत्रित किया। जिसमे रानी ने आमंत्रित सभी औरतों का स्वागत रोली और हल्दी से किया, इस त्यौहार का उद्देश्य महिलाओ में आपसी प्यार व सदभाव जगाना तथा एक दूसरे से परिचय प्राप्त करना होता था। महाराष्ट्र में यह त्यौहार अभी भी मनाया जाता है। लेकिन इस बार इस त्यौहार को मनाने का एक अलग उद्देश्य था। अंग्रेजों की वक्र दृष्टि झांसी पर पढ चुकी था। इसका कारण था राजा गंगाधर राव का बे औलाद रह जाना। राजा गंगाधर विलाली प्रवृति के राजा थे। एरनी अधिक समय नाच-गाने और भोग विलास में बिताया करते थे। अंग्रेजों की झासी पर टेढी दृष्टि देख रानी चिंतित हो उठी। वह इस समारोह के माध्यम से झांसी की वीर स्त्रियों की खोज करके उन्हे अपनी सेना में भर्ती करना चाहती थी जो अंग्रेजों से लडने की हिम्मत भी रखती हो। महल में रानी ने झलकारी बाई को भी आमन्त्रित किया। हल्दी कुकुंम के समय जब रानी ने झलकारी बाई का घुंघट उठाकर देखा तो रानी लक्ष्मीबाई हैरान हो गई।झलकारी बाई और लक्ष्मीबाई दोनो की सूरतें एक जैसी थी। जैसे दोनों सगी बहनें हो। सभी महिलाओं के मुँह से यही निकला कि “अरे यह तुम्हारी सगी बहन लगती है”। झलकारी बाई का परिचय पाते ही रानी समझ गई कि यह वही प्रसिद्ध झलकारी है जिसके बहादुरी के किस्से पूरी झांसी में जगह-जगह प्रसिद्ध है तथा जिसने निहत्थे अकेले ही बाध को मार गिराया था। रानी लक्ष्मीबाई झलकारीबाई से मिलकर फूली नही समाई और उसी समय रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी समझदारी तथा विशालता का परिचय देते हुए झलकारी बाई को सचमुच अपनी सगी बहन मानकर उसे सेना की महिला टुकडी दुर्गा वाहिनी का सेनापति बना दिया। महिला सेना दुर्गा दल का कार्य था कि वह रानी को झांसी के राजपाठ की देखभाल में उनकी विश्वासपात्र बनकर झांसी की सुरक्षा में अपना योगदान दें। रानी लक्ष्मीबाई किसी भी क्षेत्र में महिलाओं को कमतर नही मानती थी। स्त्रियां सबल हो, मजबूत हो, बहादुर हों, घर के चूल्हे चौके के अलावा वे देश व लोगों के हित के लिए भी कुछ काम करे रानी की इस सोच को आगे बढ-चढकर बढाया झलकारी बाई ने।
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