Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
रानी लक्ष्मीबाई और झलकारी बाई दोनों हमउम्र थी। केवल दोनों हमशक्ल ही नही बल्कि दोनों के अंदर गुण भी एक समान थे। दोनों बहुत बहादुर और साहसी थी। दोनों बचपन से ही मुसीबते झेलती आई थी। दोनों ने बचपन में ही अपनी माँ को खो दिया था। दोनों को ही झांसी से बहुत प्रेम था। दोनों को जुल्मी अंग्रेजो उनके कार्यों से बेहद घृणा थी। दोनों महल और झांसी के लोगों को कैसे सुरक्षित रखा जाए इसपर घंटों बातें तथा सलाह मशवरा करती। झलकारी बाई बहादुर होने के साथ-साथ आदमी को परखने पर में कभी मात नही खाती थी। अपने लूट-पाट के कारनामों से सन्नाम हो चुके सागर सिंह को अपनी दूरदृष्टि के कारण ही झांसी की सेना में जोड पाई । झलकारी बाई के चरित्र के इस महत्वपूर्ण गुण को दर्शाने वाली घटना का वर्णन भारत सरकार द्वारा प्रकाशित लघु पुस्तक झलकारी बाई (लेखिका अनसूया अनु) में पढने को मिलता है। इस पुस्तक में वर्णित घटना के अनुसार एक बार महारानी लक्ष्मीबाई ने झलकारी बाई को बताया कि झांसी की सेना का एक वीर और महत्वपूर्ण योद्धा खुदाबख्श नही लौटा है जबकि उसे वापिस झांसी में दो दिन पहले ही आ जाना चाहिए था। रानी ने झलकारी बाई को अपनी चिंता से अवगत कराते हुए कहा कि ऐसे बुरे समय में झलकारी को उसके विशेष सेवाकर्मी योद्धा को कहीं से भी ढूंढकर लाना होगा। रानी की आज्ञा पाकर झलकारीबाई अपने दुर्गा दल की कुछ वीरांगनाओं को साथ लेकर खुदाबख्श को ढूंढने निकल पढी। झलकारी और दुर्गादल की सैनिक चारों तरफ सावधानी हिम्मत और बहादुरी से खुदाबख्श को ढूंढ रही थी। उन्हे खुदाबख्श बीहड जंगलों में घायल अवस्था में पडा मिला। झलकारी बाई ने घायल खुदाबख्श को कुछ स्त्री सैनिकों के साथ शीघ्र महल की ओर रवाना कर दिया। उन दिनों डाकू सागर सिंह का आतंक उस इलाके में चारों ओर फैला हुआ था। डर था कि कही अचानक सागर सिंह उनपर हमला ना कर दे। डाकू सागर सिंह डाकू होते हुए भी बहुत बहुत बहादुर था। झलकारी ने सोचा ऐसे कठिन समय में झांसी की रक्षा के लिए सागर सिंह जैसे बहादुरों की बहुत आवश्यकता है। इसलिए झलकारी ने मन ही मन उसका ह्रदय परिवर्तन कर उसको झांसी की सेना में शामिल करने की योजना बनाई। झलकारी सागर सिंह और अन्य डाकुओं की खोज में अपने कुछ सैनिको के साथ उसकी गुफा की तरफ चल पडी। नदी नाले और बीहड जंगल पार करते हुए आखिरकार वह सागर सिंह की गुफा तक पहुँच ही गई। गुफा के मुहाने पर जाकर उसने डाकुओं के सरदार सागर सिंह को ललकार कर बाहर आने के लिए विवश कर दिया । दोनों तरफ से खूब गोलीबारी हुई जिसमें डाकू सागर सिंह घायल हो गया और अंतत पकड लिया गया। झलकारी ने सागर सिंह को अपना निश्चय सुनाते हुए कहा कि वह उस जैसे बहादुर योद्धा की बहुत कद्र करती है। एक बहादुर के रहने की जगह कभी यह अंधरी गंदी गुफाएं नही हो सकती। एक बहादुर का काम लोगों को लूटकर भयभीत करना नही बल्कि बहादुरों का फर्ज कमजोर, असहाय, सताएं हुए लोगों की रक्षा करना होता है। इसलिए उसकी जगह यहां नही झांसी में है । हमारी प्यारी झांसी पर अंग्रेजी साम्राजय की विनाशकारी नीतियों के काले बादल झाए हुए है, इसलिए झांसी की धरती को तुम्हारे जैसे वीरों की बहुत जरुरत है। झलकारी की बातों का डाकू सागर सिंह पर बेहद सकारात्मक असर हुआ। झलकारी बाई से प्रेरणा पाकर सागर सिंह ने अपना डाकू का बाना हमेशा के लिए छोडकर झांसी की सेना में शामिल हो गया। बाद में जब झांसी में युद्ध हुआ तो उस युद्ध के दौरान सागरसिंह ने झांसी के किले के एक फाटक खाण्डेराव गेट की सुरक्षा की जिम्मेदारी पूरी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा से निभाई।
इधर महाराज गंगाधर राय लगातार बीमार रहने के बाद 21 नवम्बर 1853 को चल बसे। पर अपने राज-पाट अर्थात झांसी को संभालने के लिए उन्होने अपने भतीजे के बेटे दामोदर राव को ठीक अपनी मृ्त्यु से एक दिन पहले अर्थात 20 नवंबर को अपना तथा अपने राज्य का वारिस घोषित कर गए । उनकी मृ्त्यु उपरांत पूरे राज्य का भार रानी लक्ष्मीबाई पर आ गया। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की बागडोर बडी बहादुरी और हिम्मत से संभाल ली। रानी लक्ष्मीबाई अपने राज्य की सुरक्षा करने के लिए अपनी प्रिय मित्र झलकारी और अन्य विश्वासपात्रों के साथ व्यस्त हो गई। झांसी की सुरक्षा के लिए रानी और झलकारी बाई दोनों कई-कई घंटे घुडसवारी,कलाबाजी,आखेट, बंदूक का अभ्यास करती तथा उसके उपरान्त दोनों घोडों पर सवार होकर जंगलों की ओर निकल जाती।
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