Re: झलकारी बाई ( झाँसी की वीरांगना )
रानी के झांसी संभालते ही और रानी के दत्तक पुत्र गोद लेने के फैसले को अंग्रेजों ने मानने से इन्कार कर दिया और झांसी को अपने आधीन करने के लिए रानी लक्ष्मीबाई की पाँच हजार रूपये महीना की पैंशन बाँध दी। यह रानी और झांसी की आजादी पसंद जनता का अपमान था। इस फैसले का रानी ने कडा विरोध किया और पैंशन को ठुकरा दिया। रानी और झांसी के नागरिकों के ऐसे कडे विरोध को देखकर अंग्रेजों ने झांसी राज्य को अपने कब्जे में लेने की ठान ली, और अपने फैसले पर अटल रहते हुए झांसी को अंग्रेजी इलाके में मिलाने का ऐलान कर दिया। यह सन सत्तावन का समय था। एक तरफ जहाँ रानी ने अपनी झांसी देने से इंकार करते हुए हुंकार भर अंग्रेजों को कहा “मै अपनी झांसी नहीं दूंगी” तो वहीं दूसरी ओर झलकारी बाई के साथ झांसी के लोगों ने कहा ‘हम अपनी झांसी नही देगे’। अपनी झांसी और अपनी रानी को बचाने के लिए झांसी का एक-एक बच्चा मरने मारने को तैयार था और उनमें सबसे आगे थी वीरांगना झलकारी बाई।
झांसी का युद्ध शुरु हो गया। झांसी के किले के ओरछा गेट पर तोपची दुल्हाजू तैनात था। झलकारी और पूरन तथा उनके अन्य साथी उन्नाव भंडेरी गेट पर तैनात थे। खाण्डेराव गेट पर सागरसिंह और दक्षिण में गौरा तन कर खडा था। ।युद्ध में झलकारी की सखियां वीरबाला, सुंदर, काशी, मोती,भक्तिम जूही भी शामिल होकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने को तैयार थी। अंग्रेजों की सेना जिस ताकत से झांसी पर कब्जा करने के लिए चारों ओर से झपटी थी उससे दुगनी ताकत से झांसी के किले के अंदर से उन्हे जबाब दिया गया था। उन्नाव फाटक का मोर्चा देखकर अंग्रेजों के पैर उखडने लगे, उनकी हिम्मत जबाव देने लगी। झलकारी बाई, पूरनमल तथा उनके साथियों ने धडाधड़ गोलियों की बौछार करके अनेक अंग्रेज सैनिको को धराशायी कर दिया। जिससे अंग्रेज एकदम घबरा गए। अंग्रेजों को समझ में आ गया कि इतनी ताकत से वह झांसी बाल भी बांका नहीं कर पाएंगे। इसलिए उन्होने रानी को हराने और युद्ध जीतने के लिए कूटनीति का सहारा लिया। अंग्रेजों ने रानी झांसी के सेना के एक विश्वासपात्र दीवान दीवान दुल्हाजू को लालच देकर खरीद लिया। दीवान दुल्हाजू ने झांसी से गद्दारी की तथा वह लालच में पडकर अंग्रेजों से मिल गया। उसने लडाई के निर्णायक समय में ओरछा गेट खोल दिया। अंग्रेजी फौज झांसी नगर में घुस आई औऱ चारों ओर मार-काट मचाने लगी। चारों तरफ तबाही का मंजर नजर आने लगा। जैसे ही किले के अंदर खबर पहुंची कि दुल्हाजू ने गद्दारी कि है इस खबर से झांसी के बहादुर अत्यंत क्रोधित हो उठे। उन्होने मन ही मन अपने प्राण किले और रानी दोनों की सुऱक्षा के लिए न्यौछावर कर दिए। झलकारीबाई अति वीरता का प्रदर्शन करते हुए उन्नाव भंडेरी बुर्ज से द्वंद्व मचा दिया। मारकाट मच गई, भीषण युद्ध हुआ। वीरांगना झलकारी बाई जैसा मौका देखती वैसी ही वार करती। वह भीषण आग उगल रही थी। अंग्रेजी सैनिकों को दनादन गोली से उडा रही थी। उसे अपनी जान की परवाह नही थी। उसे झांसी और रानी दोनों को बचाने की चिन्ता ज्यादा थी। रानी झांसी भी अंग्रेजो से लोहा ले रही थी। पर रानी की फौज छोटी थी और अंग्रेजो की सेना विशाल थी। रानी ने झांसी की दुर्दशा और भीषण ह्त्याकांड देख अपने प्राणों का अंत करन की सोची परन्तु झलकारी बाई ने रानी को झांसी छोडने की सलाह दी गई। इसी बीच झलकारी को खबर मिली की उसके पति पूरन युद्ध में शहिद हो गए। झलकारी एक बार तो अपने पति के शहीद होने की बात सुन स्तब्ध रह गई पर दूसरे ही पल उसने अपने आप को संभाल लिया और क्योंकि यह समय रोने का नही दुश्मनों के हाथों से रानी लक्ष्मीबाई और झांसी के उत्तराधिकारी बालक दामोदर राव की सुरक्षा का था। किले में तेजी से कब्जा करती अंग्रेजी सेना को देख झलकारी बाई और सबकी आपस में यही सलाह बनी की रानी लक्ष्मीबाई दामोदर राव को किले से बाहर लेजाकर उसकी रक्षा करे तथा बाहर जाकर झांसी की रक्षा के लिए अन्य लोगों से मदद ले। झलकारी ने तय किया कि जब तक रानी किले से बाहर सुरक्षित ना निकल जाए तब तक झलकारी बाई किले के अंदर रानी लक्ष्मीबाई की वेशभूषा में अंग्रेजों को धोखा देने युद्ध करती रहेगी।
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