Re: इधर-उधर से
परचित्तानुरंजन (निबन्ध का एक अंश)
पं. बालकृष्ण भट्ट
पं. बालकृष्ण भट्ट
दिल्ली का बादशाह नसीरुद्दीन महमूद ने एक किताबअपने हाथ से नकल की थी। एक दिन अपने किसी अमीर को दिखला रहा था उस अमीर ने कई जगहगलती बतलाई बादशाह ने उन गलतियों को दुरुस्त कर दिया। जब वह अमीर चला गया तो फिरवैसा ही बना दिया जैसा पहले था। लोगों ने पूछा ऐसा आपने क्यों किया? बादशाह ने कहा मुझको मालूम था कि मैंने गलती नहीं किया लेकिन खैरखाहऔर नेक सलाह देने वाले का दिल दुखाने से क्या फायदा इससे उसके सामने वैसा ही बनाययह मेहनत अपने ऊपर लेनी मैंने उचित समझा। व्यर्थ का शुष्कवाद और दाँत किट्टन करनेकी बहुधा लोगों की आदत होती है अंत को इस दाँत किट्टन से लाभ कुछ नहीं होता। चित्त में दोनों के कशाकशी और मैल अलबत्ता पैदा हो जाती है। बहुधा ऐसा भी होता है किहमारी हार होगी इस भय से प्रतिवादी का जो तत्व और मर्म है उसे न स्वीकार कर अपनेही कहने को पुष्ट करता जाता है और प्रतिपक्षी की बात काटता जाता है। हम कहते हैंइससे लाभ क्या? प्रतिवादी जो कहता है उसे हम क्यों न मान लें उसका जी दुखाने सेउपकार क्या। 'फलं न किंचित् अशुभा समाप्ति:।' सिद्धांत है 'मुंडे मतिर्भिन्ना तुंडे तुंडे सरस्वती:' बहुत लोग इस सिद्धांत को न मान जो हम समझे बैठे हैं उसेक्यों न दूसरे को समझाएँ इसलिए न जानिए कितना तर्क कुतर्क शुष्कवाद करते हुएबाँय-बाँय बका करते हैं, फल अंत में इसका यही होता है कि जी कितनों का दुखी होता है, मानता उसके कहने को वही है जिसे उसके कथन में श्रद्धा है। हमारे चित्त में ऐसा आताहै कि जो हमने तत्व समझ रक्खा है उसे उसी में कहें जिसे हमारी बात पर श्रद्धा हो।
(मुझे यह बताने में खुशी हो रही है कि उक्त निबन्ध मैंने अपनी हाई स्कूल की पुस्तक में पढ़ा था)
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद)
(Let noble thoughts come to us from every side)
Last edited by rajnish manga; 09-08-2014 at 10:55 PM.
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