Re: ~!!आनन्दमठ!!~
निमी बोली-दादा आये हैं। तुझे बुलाया है।
उसने कहा-अगर मुझे बुलाया है तो साड़ी क्या होगी? चल इसी तरह चलूंगी। युवती कहती जाती थी-कभी कपड़े न बदलूंगी। चल, इसी तरह मिलना होगा। आखिर किसी तरह भी उसने कपड़े बदले नहीं। अंत में दोनों कुटी के बाहर आई। निमाई को भी राजी होना पड़ा। निमाई भाभी को लेकर अपने घर के दरवाजे तक आ गई। इसके बाद भाभी को अंदर का उसने दरवाजा बंद कर लिया और स्वयं बाहर खड़ी रही।
ब्रह्मचारी का गाना बहुतों ने सुना। और लोगों के साथ जीवानंद के कानों में भी वह गाना पहुंचा।
महेंद्र की रक्षा में रहने का उन्हें आदेश मिला था- यह पाठकों को शायद याद होगा। राह में एक स्त्री से मुलाकात हो गई। सात दिनों से उसने खाया न था, राह-किनारे पड़ी थी। उसे जीवन-दान देने में जीवानंद को एक घंटे की देर लग गई। स्त्री को बचाकर, विलम्ब होने के कारण उसे गालियां देते हुए जीवानंद आ रहे थे। देखा, प्रभु को मुसलमान पकड़े लिए जाते हैं- स्वामीजी गाना गाते हुए चले आ रहे हैं।
\स्धीर समीरे तटिनी तीरे बसति बने बनबारी।…..
जीवानंद महाप्रभु स्वामी के सारे संकेतों को समझते थे।
नदी के किनारे कोई दूसरी स्त्री बिना खाए-पीए तो नहीं पड़ी हुई है? सोच-विचार जीवानंद नदी के किनारे चले। जीवानंद ने देखा था कि ब्रह्मचारी मुसलमानों द्वारा स्वयं गिरफ्तार होकर चले जा रहे हैं। अत: ब्रह्मचारी का उद्धार करना ही जीवानंद का पहला क*र्त्तव्य था, लेकिन जीवानंद ने सोचा-इस संकेत का तो अर्थ नहीं है। उनकी जीवनरक्षा से भी बढ़कर है, उनकी आज्ञा का पालन- यही उनकी पहली शिक्षा है। अत: उनकी आज्ञा ही पालन करूंगा।
नदी के किनारे किनारे जीवननंद चले। जाते-जाते उसी पेड़ के नीचे नदी-तट पर देखा कि एक स्त्री की मृतदेह पड़ी हुई है और एक जीवित कन्या उसके पास है। पाठकों को स्मरण होगा कि महेंद्र की स्त्री-कन्या को जीवानंद ने एक बार भी नहीं देखा था। उन्होंने मन में सोचा- हो सकता है, यही महेंद्र की स्त्री-कन्या हो! क्योंकि प्रभु के साथ ही उन्होंने महेंद्र को देखा था। जो हो, माता मृत और कन्या जीवित है। पहले इनकी रक्षा का प्रयास ही करना चाहिए- अन्यथा बाघ-भालू खा जाएंगे। भवानंद स्वामी भी कहीं पास ही होंगे, वह स्त्री का अंतिम संस्कार करेंगे- यह सोचकर जीवानंद कन्या को गोद में लेकर चल दिए।
लड़की को गोद में लेकर जीवानंद गोस्वामी उसी जंगल में घुसे। जंगल पार कर वे एक छोटे गांव भैरवीपुर में पहुंचे। अब लोग उसे भरूईपुर कहते हैं। भरूईपुर में थोड़े-से सामान्य लोगों की बसती है। पास में और कोई बड़ा गांव भी नहीं है। गांव पार करते ही फिर जंगल मिलता है। चारों तरफ जंगल और बीच में वह छोटा गांव है। लेकिन गांव है। बड़ा सुंदर। कोमल तृण से भरी हुई गोचर भूमि है, कोमल श्यामल पल्लवयुक्त आम, कटहल, जामुन, ताड़ आदि के बगीचे हैं। बीच में नील-स्वच्छ जल से परिपूर्ण तालाब है। जल में बक, हंस, डाहुक आदि पक्षी, तट पर पपीहा, कोयल, चक्रवाक है, कुछ दूर पर मोर पंख फैलाकर नाच रहे हैं। घर-घर के आंगन में गाय, बछड़े, बैल हैं। लेकिन आजकल गांव में धान नहीं है। किसी के दरवाजे पर पिंजड़े में तोता है, तो किसी के यहां मैना। भूमि लिपी-पोती स्वच्छ है। मनुष्य प्राय: सभी दुर्भिक्ष के कारण दुर्बल, कलांत और मलीन दिखाई देते हैं, फिर भी ग्रामवासियों में श्री है। जंगल में अनेक तरह के जंगली खाद्य पैदा होते हैं। अत: गांव के लोग वहां से फल-फूल लाते हैं और वही खाकर इस दुर्भिक्ष में भी अपने प्राण बचाए हुए हैं।
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