Re: विदेश में हिन्दी लेखन
धरणी को भी आघात कम नहीं लगा था। सोचती उसकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई? पर वह दिल की बात सहेलियों से कर लेती। सभी इन्हीं हादसों से गुज़र रहीं थीं। एक-दूसरे को देख कर तसल्ली कर लेतीं।
दो-तीन दिन बाद जब आवेग थम गया तो धरणी ने कहा, ''जी, दुख तो मुझे भी कम नहीं हो रहा, पर हम ऐसा कोई काम न करें कि दस साल बाद हमें अफ़सोस हो।''
सागर निरीह से देखते रहे।
''शादी का तो उसने निश्चय कर ही लिया है। हम अपनी ओर से बाद में दावत दे देते हैं ताकि बेटी से सम्बन्ध तो न टूटे।'' धरणी ने सुझाया।
''जो तुम ठीक समझो।'' कह कर सागर शिथिलता से लेट गए।
एक अनजाने शहर के होटल में आकर टिके पति-पत्नी एक दूसरे की ओर देखते - चुप और बेबस।
धरणी बार-बार फ़ोन डॉयल करती। उधर से रिकॉर्डिंग मिलती। वह कई बार संदेश भी छोड़ चुकी थी।
सागर आशा भरी नज़रों से देखते। धरणी निराशा से सिर हिला देती जैसे डॉक्टर रोगी के बचने की उम्मीद न होने पर हिलाता है।
''वह फ़ोन उठा नहीं रही।'' धरणी हार कर बैठ गई।
''हमें इतना शर्मिन्दा भी किया और ऊपर से नाराज़गी भी, जैसे क़ुसूरवार हम ही हों।''
''बस अब चुप कर जाइए।'' धरणी जैसे हवा में उड़ते तिनकों को इकट्ठा करने की कोशिश कर रही थी।
वह पति के साथ सहमत थी। आख़िर दोनों ने एकमत होकर ही तो विधु की सगाई भारत में जाकर करने का प्रयास किया था - विधु की अनुमति से।
सागर के बचपन के दोस्त का बेटा, पढ़ा-लिखा, सुन्दर, सुसंस्कृत। विधु ने तस्वीर भी पसन्द की थी। माँ-बेटी दोनों गई थीं तो विधु को लगा, गिनने में तो अंक ठीक ही लगते हैं पर मन में कुछ हिलोर नहीं उठी। कहाँ गया वह सपना कि कोई उसके प्रेम में पाग़ल है और वह उसे अपना जीवन साथी चुनती है। सोचा, मैं तो इसे जानती भी नहीं। इसका और मेरा वातावरण कितना अलग है? यह तो कुछ भी नहीं जानता उस दुनिया के बारे में, जहाँ मैं रहती हूँ। पर कहा इतना ही, ''सोच कर बताऊँगी।''
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