Re: 'मछलीमार' - कहानी - प्रत्यक्षा
बदहवास पागलपन। घर में भीड जुट गई थी। रस्म रिवाज़ों का आयोजन। मृत्यु का आयोजन। मैं सकते में था।
''उड जाएगा हंस अकेला''
फिर भीड छँटी। माँ रुकना चाहती थीं। मैंने ज़बरदस्ती भेजा उन्हें।
''मैं ठीक हूँ, बिलकुल ठीक।''
उनका कातर चेहरा देख जोड़ा था, ''ज़रूरत होगी तो आपको ही कहूँगा, अभी ठीक हूँ।''
पर ठीक कहाँ था। माया, रैना की दोस्त आती रही। फिर उसकी इज़ेल और पेंटस आए। फिर एक दो कपड़े। पहले दिन भर, फिर कभी-कभार रात को भी। माँ का कभी रात फ़ोन आया तो माया ने उठाया। माँ सशंकित। फिर गाहे बगाहे टटोलनी की-सी सतर्कता से अचक्के, देर सबेर, फ़ोन।
''ठीक हूँ, बिलकुल ठीक हूँ।'' फिर आवाज़ में कहाँ की छिपी पीड़ा का आभास।
माया रात को रुकती मेरे विनती पर। मुझे अकेलेपन से डर लगता था। बेतरह डर। माया कॉफी पीती, सिगरेट पर सिगरेट फूँकती, रात भर पेंट करती। उसकी उँगलियाँ निकोटीन और पेंट से पीली पड़ी रहतीं। मैं एक कोने में कुशन पर बैठा उसे देखता रहता। रैना कहीं इस कमरे उस कमरे विचरती रहती। मेरा संयम एक पतली डोर-सा तना था। उस रात जब माँ ने फोन किया, मेरी आवाज़ में फुसफुसाहट थी।
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