Re: ~!!निर्मला!!~
निर्मला 26
ए क महीना और गुजर गया। सुधा अपने देवर के साथ तीसरे ही दिन चली गई। अब निर्मला अकेली थी। पहले हंस-बोलकर जी बहला लिया करती थी। अब रोना ही एक काम रह गया। उसका स्वास्थय दिन-दिन बिगडेक़ता गया। पुराने मकान का किराया अधिक था। दूसरा मकान थोड़े किराये का लिया, यह तंग गली में था। अन्दर एक कमरा था और छोटा-सा आंगन। न प्रकाशा जाता, न वायु। दुर्गन्ध उड़ा करती थी। भोजन का यह हाल कि पैसे रहते हुये भी कभी-कभी उपवास करना पड़ता था। बाजार से जाये कौन? फिर अपना कोई मर्द नहीं, कोई लड़का नहीं, तो रोज भोजन बनाने का कष्ट कौन उठाये? औरतों के लिये रोज भोजन करेन की आवश्यका ही क्या? अगर एक वक्त खा लिया, तो दो दिन के लिये छुट्टी हो गई। बच्ची के लिए ताजा हलुआ या रोटियां बन जाती थी! ऐसी दशा में स्वास्थ्य क्यों न बिगड़ता? चिन्त, शोक, दुरवस्था, एक हो तो कोई कहे। यहां तो त्रयताप का धावा था। उस पर निर्मला ने दवा खाने की कसम खा ली थी। करती ही क्या? उन थोड़े-से रुपयों में दवा की गुंजाइश कहां थी? जहां भोजन का ठिकाना न था, वहां दवा का जिक्र ही क्या? दिन-दिन सूखती चली जाती थी। एक दिन रुक्मिणी ने कहा- बहु, इस तरक कब तक घुला करोगी, जी ही से तो जहान है। चलो, किसी वैद्य को दिखा लाऊं। निर्मला ने विरक्त भाव से कहा- जिसे रोने के लिए जीना हो, उसका मर जाना ही अच्छा। रुक्मिणी- बुलाने से तो मौत नहीं आती? निर्मला- मौत तो बिन बुलाए आती है, बुलाने में क्यों न आयेगी? उसके आने में बहुत दिन लगेंगे बहिन, जै दिन चलती हूं, उतने साल समझ लीजिए। रुक्मिणी- दिल ऐसा छोटा मत करो बहू, अभी संसार का सुख ही क्या देखा है? निर्मला- अगर संसार की यही सुख है, जो इतने दिनों से देख रही हूं, तो उससे जी भर गया। सच कहती हूं बहिन, इस बच्ची का मोह मुझे बांधे हुए है, नहीं तो अब तक कभी की चली गई होती। न जाने इस बेचारी के भाग्य में क्या लिखा है? दोनों महिलाएं रोने लगीं। इधर जब से निर्मला ने चारपाई पकड़ ली है, रुक्मिणी के हृदय में दया का सोता-सा खुल गया है। द्वेष का लेश भी नहीं रहा। कोई काम करती हों, निर्मला की आवाज सुनते ही दौड़ती हैं। घण्टों उसके पास कथा-पुराण सुनाया करती हैं। कोई ऐसी चीज पकाना चाहती हैं, जिसे निर्मला रुचि से खाये। निर्मला को कभी हंसते देख लेती हैं, तो निहाल हो जाती है और बच्ची को तो अपने गले का हार बनाये रहती हैं। उसी की नींद सोती हैं, उसी की नींद जागती हैं। वही बालिका अब उसके जीवन का आधार है। रुक्मिणी ने जरा देर बाद कहा- बहू, तुम इतनी निराश क्यों होती हो? भगवान् चाहेंगे, तो तुम दो-चार दिन में अच्छी हो जाओगी। मेरे साथ आज वैद्यजी के पास चला। बड़े सज्जन हैं। निर्मला- दीदीजी, अब मुझे किसी वैद्य, हकीम की दवा फायदा न करेगी। आप मेरी चिन्ता न करें। बच्ची को आपकी गोद में छोड़े जाती हूं। अगर जीती-जागती रहे, तो किसी अच्छे कुल में
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