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Originally Posted by jai_bhardwaj
धीरे से सरकती है रात, उसके आँचल की तरह
उसका चेहरा नज़र आता है झील में कँवल की तरह
बाद मुद्दत उसको देखा तो जिस्मोजान को यूँ लगा
प्यासी ज़मीं पे जैसे कोई बरस गया बादल की तरह
रोज कहता है सीने पे सर रख के रात भर जगाऊँगा
सरेशाम ही मुझे आज फिर सुला गया वो कल की तरह
मेरे ही दिल का निवासी निकला वो शख्स "वासी"
और मैं शहर भर में ढूँढता रहा उसे किसी पागल की तरह
--वासी शाह
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बहुत सुन्दर, जय जी. एक कोमल भाव भूमि पर आशाओं - उम्मीदों के भरोसे बनायी गई दुनिया की मायावी हकीक़त का बयान करती कवि की वाणी.