Re: श्रीयोगवशिष्ठ
जो लक्ष्मी पाकर अमर होना चाहे उसे अति मूर्ख जानना और लक्ष्मी पाकर जो भोग की इच्छा करता है वह महा आपदा का पात्र है । उसका जीने से मरना श्रेष्ठ है । जीने की आशा मूर्ख करते हैं । जैसे स्त्री गर्भ की इच्छा अपने दुःख के निमित्त करती है वैसे ही जीने की आशा पुरुष अपने नाशके निमित्त करते हैं।ज्ञानवान् पुरुष जिनकी परमपद में स्थिति है और उससे तृप्त हुए हैं, उनका जीना सुख के निमित्त है । उनके जीने से और के कार्य भी सिद्ध होते हैं । उनका जीना चिन्तामणि की नाईं श्रेष्ठ है । जिनको सदा भोग की इच्छा रहती है और आत्मपद से विमुख हैं उनका जीना जीना किसी के सुख के निमित्त नहीं है वह मनुष्यनहीं गर्दभ है । जैसे वृक्ष पक्षी पशु का जीना है वैसे उनका भी जीना है । हे मुनीश्वर! जो पुरुष शास्त्र पढ़ता है और उसने पाने योग्य पद नहीं पाया तो शास्त्र उसको भाररूप है । जैसे और भार होता है वैसे ही पड़नेका भी भार है और पड़कर विवाद करते हैं और उसके सार को नहीं ग्रहण करते वह भी भार है । हे मुनीश्वर! यह मन आकाश रूप है । जो मन में शान्ति न आई तो मन भी उसको भार है और जो मनुष्य शरीर को पाकर उसका अभिमान नहीं त्यागता तो यह शरीर पाना भी उसका निष्फल है । इसका जीना तभी श्रेष्ठ है जब आत्मपद को पावै अन्यथा जीना व्यर्थ है ।
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