Re: श्रीयोगवशिष्ठ
आत्मपद की प्राप्ति अभ्यास से होती है । जैसे जल पृथ्वी खोदने से निकलता है वैसे ही आत्मपद की प्राप्ति भी अभ्यास से होती है । जो आत्मपद से विमुख होकर आशा की फाँसी में फँसे हैं वे संसार में भटकते रहते हैं । हे मुनीश्वर! जैसे सागर में तरंग अनेक उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही यह लक्ष्मी भी क्षणभंगुर है । इसको पाकर जो अभिमान करता है सो मूर्ख है । जैसे बिल्ली चूहे को पकड़ने के लिये पड़ी रहती है । वैसे ही उनको नरक में डालने के लिये घरमें पड़ी रहती है । जैसे अञ्जली में जल नहीं ठहरता वैसे ही लक्ष्मी भी नहीं ठहरती । ऐसी क्षणभंगुर लक्ष्मी ओर शरीर को पाकर जो भोग की तृष्णा करता है वह महामूर्ख है । वह मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ जीने की आशा करता है जैसे सर्प के मुख में मूर्ख मेढ़क पड़कर मच्छर खाने की इच्छा करता है वैसे ही जो जीव मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ भोग की वाञ्छा करता है वह महामूर्ख है । जब युवा अवस्था नदी के प्रवाह की नाईं चली जाती हैं । तब वृद्धावस्था आती है ।
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