Re: 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस
जीवन की सांझ में सीमा के उस पार से अपनों के आने का इंतजार
‘काड़जे दे दो टुक्कड़ हुए, ते इक इत्थौं रोए होर इक उत्थौं भीगे’
15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ तो यह आजादी खुशी के साथ साथ कभी न मिट पाने वाला दर्द भी दे गई, क्योंकि मुक्त हवाओं में ली जाने वाली हर सांस उन लोगों की याद दिलाती है जो दो हिस्सों में बंट चुके देश के दूसरे हिस्से में रह गए और जिनसे मिलने के लिए दिल तड़पता है। अपनों को छोड़ कर हिन्दुस्तान के इस भाग में आई कुछ आंखें अब बूढी हो गई हैं लेकिन दूसरे भाग में रह रहे अपनों से मिलने का उन्हें अब तक इंतजार है। आंखों में नमी अब एक बार फिर बढ गई है क्योंकि अब इनमें से कई के जीवन की सांझ करीब है। आज जीवन के सौ बसंत देख चुकीं शम्मी बख्शी चाहती हैं कि पाकिस्तान में लाहौर के समीप डेरा बख्शियां में रह रहे उनके भाई और उनके बच्चे एक बार आ कर उनसे जरूर मिलें। वह कहती हैं, ‘पांच भाइयों में से अब दो ही बचे हैं। विभाजन के समय मेरी ससुराल वालों ने हिन्दुस्तान आने का फैसला किया। मेरा पीहर डेरा बख्शियां में है।’ शम्मी एक बार सीमा के इस पार आई तो फिर नए सिरे से गृहस्थी बसाने में इस कदर उलझीं कि डेरा बख्शियां जा ही नहीं सकीं। वह कहती हैं, ‘मेरी मां, पिताजी और भाई पहले मिलने आते थे। तब हालात इतने खराब नहीं थे। फिर मां नहीं रही, पिताजी भी चल बसे। तीन भाई भी चले गए। मैं अपनी परेशानियों से नहीं उबर पाई। अब वीजा के लिए इतनी मुश्किल हो रही है कि चाहते हुए भी हम वहां नहीं जा पा रहे हैं। यही हाल उन लोगों का है।’ शम्मी कहती हैं, ‘मैं एक बार अपना घर देखना चाहती हूं। अब तो पुराना घर तोड़ कर नया बना लिया गया है। पर मिट्टी तो नहीं बदली होगी। आंखें बंद होने से पहले बस, एक बार ...।’ सी पी सूरी जब विभाजन के बाद अपने बच्चों को लेकर हिन्दुस्तान आए तो उन्हें यहां बड़ौदा हाउस में नौकरी मिल गई थी। वह कहते हैं ‘‘यहां सब कुछ मिला। लेकिन अपनों को कैसे भूलूं। फोन पर अपने साथियों से बातें होती थीं। एक एक कर कई साथी चले गए। अब जो बचे हैं उनसे मिलना चाहता हूं। मेरे चाचा, ताया का परिवार भी वहां है। वह लोग यहां आना चाहते हैं लेकिन सब कुछ आसान नहीं होता।’ जाने माने शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. संजीव सूरी के पिता सी पी सूरी कहते हैं, ‘आजादी की खुशी बहुत हुई, लेकिन मेरा दर्द भी कम नहीं है।’ स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. बीना ग्रोवर कहती हैं, ‘मेरे दादा दादी मुल्तान में रहते थे। उनसे वहां की बहुत बातें सुनीं। दो बार हम लोग वहां गए भी। वहां से हमारे रिश्तेदार नहीं आ पाए। मेरे दादा आखिरी समय तक यही कहते रहे कि वह मुल्तान में अपने घर पर आखिरी सांस लेना चाहते हैं। पर जब तक हमें वीजा मिला, दादा विभाजन कर दर्द लिए गुजर चुके थे।’ डॉ बीना कहती हैं ‘हमारा रहन सहन, सूरत, शक्ल सब कुछ तो एक समान है फिर भी हम दो हिस्सों में बंटे हुए हैं।’ शम्मी कहती हैं, ‘काड़जे दे दो टुक्कड़ हुए, ते इक इत्थौं रोए होर इक उत्थौं भीगे।’
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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