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#82 | |
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आप दोनों महानुभाव को कहानी पढ़ने तथा उस पर अपने बहुमूल्य विचार रखने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
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खुदाताला को भी शायद उस पर तरस आ गया था. एक एक दिन उसे मौत की ओर धकेल रहा था. कल की चंचल किशोरी सुगरां ने मौत के इंतज़ार में जो चारपाई पकड़ी तो फिर न उठी.
इधर अब्दुल अज़ीज़ सोचता कि उसकी बीवी अवश्य कोई नाटक खेल रही है. तन-मन से अच्छी भली होने पर भी बीमारी बहाना कर रही है और दूसरों की सहानुभूति अर्जित करने के लिये ही बिस्तर पर पड़ी हुई है. क्रोध के कारण आपे से बाहर हो जाता. कहता, “हरामखोर की बच्ची, तुझे तो पलंग तोड़ने के सिवा दूसरा कोई काम ही नहीं है. तू मर क्यों नहीं जाती.” अब्दुल अज़ीज़ का क्रोध व क्षोभ किसी सीमा को नहीं जानता था. ऐसी मनःस्थिति में वह जो कर जाये, थोड़ा था. बीवी के बाल खींचते या उसे थप्पड़ मारते उसे लज्जा नहीं आती थी. बल्कि और उग्र हो कर कहता, “देख, तू मेरी जान का आजार बनी हुई है. लगता है तेरे मरने से पहले मुझे खुशी देखना नसीब न होगा. मैं तुझको तलाक़ दूंगा, समझी !!! फिर मरना चाहे जीना.” >>>
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उस रात नींद में सुगरां के मुंह से जोरों की चीख निकल गई. शायद कोई भयानक ख्वाब देख कर डर गयी थी. उसके पति ने चौंक कर उसे देखा और समझा कि यह सुगरां का कोई नया स्वांग है. बस यह सोचना था कि उसके नथुने फड़कने लगे. उठाया डंडा और, जो सुगरां कभी उसके दिल का करार और आँखों की ज्योति हुआ करती थी, उसी की धुनाई शुरू कर दी. इस बेरहमी से उसने सुगरां को पीटा कि उसके स्वयं के हाथ भी दुखने लग गये. सुगरां रोने लग पड़ी .. जार ...जार ... रोती जाती और बोलती जाती,
“मारो ... और मारो ... मार डालो मुझे ... खत्म कर दो. तुम्हें भी .... मेरी मौत से चैन मिल जायेगा ... और मुझे भी ... रुक क्यों गये .... और मारो” रात उस बदनसीब सुगरां को बड़े जोर का ज्वर चढ़ा. सुबह होते न होते उसके प्राण पखेरू उड़ गये. >>>
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बेशक अब्दुल अज़ीज़ ने अपनी पत्नी के मरने की दुआ मांगी थी, लेकिन दुआ का इतना वीभत्स परिणाम होगा, यह उसने कल्पना तक न की थी. सुगरां की मौत में उसे अपनी मौत दिखाई दे रही थी. वह सुगरां के पार्थिव शरीर को सुपुर्दे-ख़ाक करके भीड़ से अलग हट कर एक सुनसान सी जगह जा बैठा और बीते हुये दिनों के नक्श याद करने लगा. याद करते करते वह रोने लगा. अपने पागलपन को हज़ार लानतें देता न जाने कितनी देर तक रोता रहा ... वहीँ बैठ कर.
जिस दिन सुगरां स्वर्गवासी हुयी, उस दिन के बाद किसी ने हाजी अब्दुल अज़ीज़ को उस शहर में नहीं देखा. शुरू में बहुत से लोगों का मानना था कि शायद उसने अपनी पत्नी के ग़म में कुएं या नदी में डूब कर ख़ुदकुशी कर ली है. काफी समय बीत जाने पर कुछ लोग कहते सुने गये कि वह फ़कीर हो गया है और दीन दुखियों की सेवा करता है और आजकल किसी पीर की दरगाह पर खिदमतगार है. (रचनाकाल: 1979) **
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![]() मुंशी प्रेमचन्द की वर्णनात्मक शैली को भी पीछे छोड़ते हुए अत्यधिक मार्मिक रूप से चली कहानी, कहानी में निर्धनता का अमिट छाप छोड़ने में पूर्णरूपेण सफल रही किन्तु कहानी के अन्त में चमत्कारपूर्ण ढंग से किसी सन्देश को स्थापित करने में विफल होने के कारण कहानी न लगकर सत्यकथा, मनोहर कहानियाँ या समाचार-पत्रों में छपी एक सत्य घटना लगने लगी। कहानी में यथोचित् संशोधन अभी भी सम्भव है। अतः रजनीश मंगा जी से अनुरोध है कि कहानी का संशोधित निर्वहण (denouement) प्रस्तुत करें अथवा मुझे मात्र 5000 पाॅइन्ट्स देकर लिखवा लें। आपसे सादर सविनय निवेदन है कि समय-समय पर पाॅइन्ट्स बाँटने के कारण मुझे काफ़ी खर्चा आता है। समय-समय पर घूँस भी देना पड़ता है। ![]()
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हृदयस्पर्शी कहानी..
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दीप जी के साथ अन्य सभी दोस्तों का बहुत बहुत शुक्रिया.
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