16-02-2015, 07:17 PM | #1 |
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सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
जन्म : 9 नवंबर 1936 ग्राम खेवली ज़िला वाराणसी में। मृत्यु : 10 फरवरी 1975 को लखनऊ में मस्तिष्क ट्यूमर से। शिक्षा : दसवीं तक अत्यंत मेधावी छात्र के रूप में । आई. टी. आई. वाराणसी से विद्युत डिप्लोमा प्राप्त कर के इसी संस्थान में विद्युत अनुदेशक के रूप में कार्यरत रहे। प्रकाशित रचनाएँ : कविता संग्रह: संसद से सड़क तक (1972), कल सुनना मुझे, सुदामा पांडे का प्रजातंत्र (1983).“कल सुनना मुझे” 1979 में साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत
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16-02-2015, 07:34 PM | #2 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय ‘धूमिल’ अपनी क्रांतिकारी कविताओं के लिए अपने जीवन काल में ही विख्यात हो गए थे. धूमिल की कविताओं का तेवर उनका अपना खास है। लगता है ‘धूमिल’ कविता के द्वारा समाज का एक्सरे दिखा रहे हैं हमें, साफगोई चकित करती है, कवितायें स्तब्ध करती हैं, सोचने पर मजबूर करती हैं। रोटी और संसद एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूँ– ‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’ मेरे देश की संसद मौन है।
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16-02-2015, 07:41 PM | #3 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
धूमिल की कविता “पटकथा” के चुने हुए अंश क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच अपनी भूख को ज़िन्दा रखना जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की वाजिब मजबूरी है। ..... मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे उसी लोकनायक को बार-बार चुनता रहा जिसके पास हर शंका और हर सवाल का एक ही जवाब था यानी कि कोट के बटन-होल में महकता हुआ एक फूल गुलाब का। ....
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16-02-2015, 07:45 PM | #4 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
“पटकथा” के चुने हुए अंश फिर बहसें होतीं थीं शब्दों के जंगल में हम एक-दूसरे को काटते थे भाषा की खाई को जुबान से कम जूतों से ** लोग घरों के भीतर नंगे हो गये हैं और बाहर मुर्दे पड़े हैं विधवायें तमगा लूट रहीं हैं सधवायें मंगल गा रहीं हैं वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ अकाल का लंगर चला रही हैं जगह-जगह तख्तियाँ लटक रहीं हैं- ‘यह श्मशान है,यहाँ की तश्वीर लेना सख्त मना है।’ .....
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16-02-2015, 07:47 PM | #5 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
“पटकथा” के चुने हुए अंश अखबार के मटमैले हासिये पर लेटे हुये ,एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का शांतिवाद ,नाम है यह मेरा देश है… यह मेरा देश है… हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक फैला हुआ जली हुई मिट्टी का ढेर है जहाँ हर तीसरी जुबान का मतलब- नफ़रत है। साज़िश है। अन्धेर है। यह मेरा देश है और यह मेरे देश की जनता है जनता क्या है? एक शब्द…सिर्फ एक शब्द है: कुहरा,कीचड़ और कांच से बना हुआ… एक भेड़ है जो दूसरों की ठण्ड के लिये अपनी पीठ पर ऊन की फसल ढो रही है। .....
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16-02-2015, 07:55 PM | #6 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
“पटकथा” के चुने हुए अंश यह जनता… उसकी श्रद्धा अटूट है उसको समझा दिया गया है कि यहाँ ऐसा जनतन्त्र है जिसमें घोड़े और घास को एक-जैसी छूट है कैसी विडम्बना है कैसा झूठ है दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र एक ऐसा तमाशा है जिसकी जान मदारी की भाषा है। दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र/एक ऐसा तमाशा है/जिसकी जान/मदारी की भाषा है। हर तरफ धुआँ है हर तरफ कुहासा है जो दाँतों और दलदलों का दलाल है वही देशभक्त है अन्धकार में सुरक्षित होने का नाम है- तटस्थता। यहाँ कायरता के चेहरे पर सबसे ज्यादा रक्त है। जिसके पास थाली है हर भूखा आदमी उसके लिये,सबसे भद्दी गाली है हर तरफ कुआँ है हर तरफ खाई है यहाँ,सिर्फ ,वह आदमी,देश के करीब है जो या तो मूर्ख है या फिर गरीब है .....
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16-02-2015, 07:58 PM | #7 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
“पटकथा” के चुने हुए अंश मैंने महसूस किया कि मैं वक्त के एक शर्मनाक दौर से गुजर रहा हूँ अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है अब न तो कोई किसी का खाली पेट देखता है, न थरथराती हुई टाँगें और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कन्धा’ देखता है हर आदमी,सिर्फ, अपना धन्धा देखता है सबने भाईचारा भुला दिया है आत्मा की सरलता को भुलाकर मतलब के अँधेरे में (एक राष्ट्रीय मुहावरे की बगल में) सुला दिया है। सहानुभूति और प्यार अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिये एक आदमी दूसरे को,अकेले – अँधेरे में ले जाता है और उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है .....
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16-02-2015, 08:00 PM | #8 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
“पटकथा” के चुने हुए अंश अपराध अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है जो आत्मीयता की खाद पर लाल-भड़क फूलता है मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में हर तरफ हत्याओं के नीचे से निकलते है हरे-हरे हाथ,और पेड़ों पर पत्तों की जुबान बनकर लटक जाते हैं वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर नागरिकता की गोधूलि में घर लौटते मुसाफिर अपना रास्ता भटक जाते हैं। उन्होंने किसी चीज को सही जगह नहीं रहने दिया न संज्ञा न विशेषण न सर्वनाम एक समूचा और सही वाक्य टूटकर ‘बि ख र’ गया है .....
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24-02-2015, 07:02 AM | #9 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
“पटकथा” के चुने हुए अंश ‘सुनो ! आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ जिसके आगे हर सचाई छोटी है। इस दुनिया में भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क रोटी है। मगर तुम्हारी भूख और भाषा में यदि सही दूरी नहीं है तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो क्योंकि पशुता - सिर्फ पूँछ होने की मज़बूरी नहीं है वह आदमी को वहीं ले जाती है जहाँ भूख सबसे पहले भाषा को खाती है वक्त सिर्फ उसका चेहरा बिगाड़ता है जो अपने चेहरे की राख दूसरों की रूमाल से झाड़ता है जो अपना हाथ मैला होने से डरता है वह एक नहीं ग्यारह कायरों की मौत मरता है और सुनो! नफ़रत और रोशनी सिर्फ़ उनके हिस्से की चीज़ हैं जिसे जंगल के हाशिये पर जीने की तमीज है
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24-02-2015, 07:06 AM | #10 |
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Re: सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
सुदामा प्रसाद पांडेय 'धूमिल'
“पटकथा” के चुने हुए अंश मैंने ऊब और गुस्से को गलत मुहरों के नीचे से गुज़रते हुये देखा मैंने अहिंसा को एक सत्तारूढ़ शब्द का गला काटते हुये देखा मैंने ईमानदारी को अपनी चोरजेबें भरते हुये देखा मैंने विवेक को चापलूसों के तलवे चाटते हुये देखा… मैं यह सब देख ही रहा था कि एक नया रेला आया उन्मत्त लोगों का बर्बर जुलूस। वे किसी आदमी को हाथों पर गठरी की तरह उछाल रहे थे उसे एक दूसरे से छीन रहे थे।उसे घसीट रहे थे। चूम रहे थे।पीट रहे थे। गालियाँ दे रहे थे। गले से लगा रहे थे। उसकी प्रशंसा के गीत गा रहे थे। उस पर अनगिनत झण्डे फहरा रहे थे। उसकी जीभ बाहर लटक रही थी। उसकी आँखें बन्द थीं। उसका चेहरा खून और आँसू से तर था।’मूर्खों! यह क्या कर रहे हो?’ मैं चिल्लाया। और तभी किसी ने उसे मेरी ओर उछाल दिया। अरे यह कैसे हुआ? मैं हतप्रभ सा खड़ा था और मेरा हमशक्ल मेरे पैरों के पास मूर्च्छित- सा पड़ा था- दुख और भय से झुरझुरी लेकर मैं उस पर झुक गया किन्तु बीच में ही रुक गया उसका हाथ ऊपर उठा था खून और आँसू से तर चेहरा मुस्कराया था। उसकी आँखों का हरापन उसकी आवाज में उतर आया था- ‘दुखी मत हो। यह मेरी नियति है। मैं हिन्दुस्तान हूँ।
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