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Old 03-07-2013, 03:48 PM   #1
VARSHNEY.009
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Default चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्

चन्द्रकान्ता बाबू देवकीनन्दन खत्री रचित अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यासों में से एक है। यह बाबू देवकीनन्दन खत्री जी का पहला उपन्यास है जिसकी रचना हिन्दी गद्यलेखन के आरम्भ के दिनों में हुई थी। यह उपन्यास इतना अधिक रोचक था कि इसे पढ़ने के लिये लाखों लोगों ने हिन्दी सीखा। चन्द्रकान्ता की लोकप्रियता से ही प्रेरित होकर खत्री जी ने बाद में चन्द्रकान्ता सन्तति की रचना की।
इस उपन्यास के मुख्य आकर्षण हैं तिलिस्म और ऐयारी! पूरे उपन्यास में तिलिस्म और ऐयारी के सहारे कथानक को अत्यन्त रोचक और रहस्यमय बनाया गया है। इसकी रोचकता के कारण पाठक बँध सा जाता है और इस उपन्यास को प्रायः एक ही बैठक में पढ़ जाता है।
तिलिस्म तथा ऐयारी से सम्बन्ध रखने के बावजूद भी चन्द्रकान्ता को मूलतः एक प्रेम कथा है।
चन्द्रकान्ता उपन्यास में देवकीनन्दन खत्री जी लिखते हैं:
लेखक की ओर से
प्रथम संस्करण से आज तक हिन्दी उपन्यास में बहुत से साहित्य लिखे गये हैं जिनमें कई तरह की बातें व राजनीति भी लिखी गयी है, राजदरबार के तरीके एवं सामान भी जाहिर किये गये हैं, मगर राजदरबारों में ऐयार (चालाक) भी नौकर हुआ करते थे जो कि हरफनमौला, यानी सूरत बदलना, बहुत-सी दवाओं का जानना, गाना-बजाना, दौड़ना, अस्त्र चलाना, जासूसों का काम देना, वगैरह बहुत-सी बातें जाना करते थे। जब राजाओं में लड़ाई होती थी तो ये लोग अपनी चालाकी से बिना खून बहाये व पलटनों की जानें गंवाये लड़ाई खत्म करा देते थे। इन लोगों की बड़ी कदर की जाती थी। इसी ऐयारी पेशे से आजकल बहुरूपिये दिखाई देते हैं। वे सब गुण तो इन लोगों में रहे नहीं, सिर्फ शक्ल बदलना रह गया है, और वह भी किसी काम का नहीं। इन ऐयारों का बयान हिन्दी किताबों में अभी तक मेरी नजरों से नहीं गुजरा। अगर हिन्दी पढ़ने वाले इस आनन्द को देख लें तो कई बातों का फायदा हो। सबसे ज्यादा फायदा तो यह कि ऐसी किताबों को पढ़ने वाला जल्दी किसी के धोखे में न पड़ेगा। इन सब बातों का ख्याल करके मैंने यह ‘चन्द्रकान्ता’ नामक उपन्यास लिखा। इस किताब में नौगढ़ व विजयगढ़ दो पहाड़ी रजवाड़ों का हाल कहा गया है। उन दोनों रजवाड़ों में पहले आपस में खूब मेल रहना, फिर वजीर के लड़के की बदमाशी से बिगाड़ होना, नौगढ़ के कुमार वीरेन्द्रसिंह का विजयगढ़ की राजकुमारी चन्द्रकान्ता पर आशिक होकर तकलीफें उठाना, विजयगढ़ के दीवान के लड़के क्रूरसिंह का महाराज जयसिंह से बिगड़ कर चुनार जाना और चन्द्रकान्ता की तारीफ करके वहाँ के राजा शिवदत्तसिंह को उभाड़ लाना वगैरह। इसके बीच में ऐयारी भी अच्छी तरह दिखलाई गयी है, और ये राज्य पहाड़ी होने से इसमें पहाड़ी नदियों, दर्रों, भयानक जंगलों और खूबसूरत व दिलचस्प घाटियों का बयान भी अच्छी तरह से आया है।
मैंने आज तक कोई किताब नहीं लिखी है। यह पहला ही श्रीगणेश है, इसलिए इसमें किसी तरह की गलती या भूल का हो जाना ताज्जुब नहीं, जिसके लिए मैं आप लोगों से क्षमा माँगता हूँ, बल्कि बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप लोग मेरी भूल को पत्र द्वारा मुझ पर जाहिर करेंगे। क्योंकि यह ग्रन्थ बहुत बड़ा है, आगे और छप रहा है, भूल मालूम हो जाने से दूसरी जिल्दों में उसका खयाल किया जायेगा।
[आषाढ़, संवत् 1944 वि] देवकीनन्दन खत्री
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Old 03-07-2013, 03:49 PM   #2
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Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय )
पहला बयान

शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर आपस में बातें कर रहे हैं।
वीरेन्द्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बांधे, बगल में बटुआ लटकाये, हाथ में एक कमन्द लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने कसाकसाया चुस्त-दुरूस्त एक घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है।
कुअंर वीरेन्द्रसिंह कह रहे हैं, ‘‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफे तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चन्द्रकान्ता की चिट्ठी मेरे पास लाये और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचायी, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चन्द्रकान्ता से रखता हूँ उतनी ही चन्द्रकान्ता मुझसे रखती है, हालांकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किये कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चन्द्रकान्ता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ।’’
तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चन्द्रकान्ता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रक्खा है, दूसरे उनके मन्त्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों को जिनका नाम नाजिम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चन्द्रकान्ता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मन्त्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बंधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिये उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से पहरे की सख्त ताकीद हो गयी है। आप को ले चलना अभी मुझे पसन्द नहीं जब तक की मैं वहाँ जाकर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ।’’
‘‘ इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जाकर चन्द्रकान्ता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है और चन्द्रकान्ता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देखकर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जायें।’’
वीरेन्द्र : जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।
तेजसिंह : मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाजिम और अहमद यहाँ आकर पुन: हमारे महाराजा के दर्शन कर गये हैं। न मालूम किस चालाकी से आये थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।
वीरेन्द्र : मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फंसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चन्द्रकान्ता से मेरी मुलाकात का बन्दोबस्त करो।
तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेन्द्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोलकर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गये।
———————————————————————————————————-
*ऐयार उसको कहते हैं जो हर एक फन जानता हो, शक्ल बदलना और दौड़ना उसका मुख्य काम है।
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Old 03-07-2013, 03:49 PM   #3
VARSHNEY.009
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Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
(पहला अध्याय )
दूसरा बयान

विजयगढ़ में क्रूरसिंह* अपनी बैठक के अन्दर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है।
क्रूर : देखो नाजिम, महाराज का तो यह खयाल है कि मैं राजा होकर मन्त्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह को चाहती है। अब कहो कि मेरा काम कैसे निकले? अगर सोचा जाये कि चन्द्रकान्ता को लेकर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रहकर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दुर्दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेन्द्रसिंह और उसके ऐयार तेजसिंह को किसी तरह गिरफ्तार कर किसी ऐसी जगह ले जाकर खपा डाला जाये कि हजार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौका पाकर महाराज को मारने की फिक्र की जाये, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी जिंदगी में चन्द्रकान्ता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएंगे।
नाजिम : हमारे राजा के यहाँ बनिस्बत काफिरों के मुसलमान ज्यादा हैं, उन सबों को आपकी मदद के लिए मैं राजी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम खिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मजहब मुसलमानी को कबूल करें?
क्रूरसिंह : अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोजान से कबूल करता हूँ?
अहमद : तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिखकर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखलाकर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।
क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मजहब अख्तियार करने का इकरारनामा लिखकर फौरन नाजिम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा, ‘‘अब सब मुसलमानों का एक (दिल) कर लेना हम लोगों के जिम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिये। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हमीं दोनों वजीर मुकर्रर किये जाएंगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा देखिये कि बात-की-बात में जमाना कैसे उलट-पुलटकर देते हैं।’’
क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाजिम ने कहा, ‘‘इस वक्त हम लोग चन्द्रकान्ता के हालचाल की खबर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चन्द्रकान्ता जरूर बाग में गयी होगी और अपनी सखी चपला से अपनी विरह-कहानी कह रही होगी, इसलिए हम को पता लगाना कोई मुश्किल न होगा कि आज कल वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता के बीच में क्या हो रहा है।’’
ये कह कर दोनों ऐयार क्रूरसिंह से विदा लेकर वहाँ से चले गये।
———————————————————————————————–
*इनकी उम्र 21 वर्ष या 22 वर्ष की थी, इनके ऐयार भी कमसिन थे।
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Old 03-07-2013, 03:50 PM   #4
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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
(पहला अध्याय )
तीसरा बयान

कुछ-कुछ दिन बाकी है, चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिलकर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिये की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुन्दर-सुन्दर बुर्जियां अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चन्द्रकान्ता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़कर चन्द्रकान्ता के हाथ में दे रही है, मगर चन्द्रकान्ता को वीरेन्द्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियां जबर्दस्ती बाग में खींच लायी हैं।
चन्द्रकान्ता की सखी चम्पा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चन्द्रकान्ता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फौव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।
चपला : न मालूम चम्पा किधर चली गयी?
चन्द्रकान्ता : कहीं इधर- उधर घूमती होगी।
चपला : दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।
चन्द्रकान्ता : देखो वह आ रही है।
चपला : इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।
इतने में चम्पा ने आकर फूलों का एक गुच्छा चन्द्रकान्ता के हाथ में दिया और कहा, ‘‘देखिये, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लायी हूँ, अगर इस वक्त कुंवर वीरेन्द्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।’’
वीरेन्द्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चन्द्रकान्ता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल-मुख मुरझा गया, ऊंची-ऊंची सांसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी, ‘‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन से-ऐसे पाप किये हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समायी है। कहते हैं कि चन्द्रकान्ता को कुँवारी ही रक्खूँगा। हाय ! वीरेन्द्र के पिता ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें कीं , मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कम्बख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।’’
एकाएक चपला ने चन्द्रकान्ता का हाथ पकड़कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया। चपला के इशारे को समझ चन्द्रकान्ता चुप हो रही और चपला का हाथ पकड़कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रुमाल उसी जगह जान-बूझकर गिराती गई।
थोड़ी दूर आगे बढ़कर उसने चम्पा से कहा, ‘‘ सखी देख तो, फौव्वारे के पास कहीं मेरा रुमाल गिर पड़ा है।’’
चम्पा रुमाल लेने फौव्वारे की तरफ चली गयी तब चन्द्रकान्ता ने चपला से पूछा, ‘‘सखी, तैने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?’’
चपला ने कहा, ‘‘ मेरी प्यारी सखी, मुझको चम्पा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चम्पा नहीं है।’’ इतने में चम्पा ने रुमाल लाकर चपला के हाथ में दिया।
चपला ने चम्पा से पूछा, ‘‘सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तैने किया?’’
चम्पा बोली, ‘‘नहीं, मैं तो भूल गयी।’’
तब चपला ने कहा, ‘‘भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गयी?’’
चम्पा बोली, ‘‘बात तो याद है।’’ तब फिर चपला ने कहा, ‘‘भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानू की तुझे याद है।’’
इस बात का जवाब न देकर चम्पा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चम्पा नहीं है। आखिर चपला यह कहकर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चम्पा को एक किनारे ले गयी और कुछ मामूली बातें करके बोली,‘‘देख तो चम्पा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती? क्योंकि कल से कान में दर्द है।’’
नकली चम्पा चपला के फेर में पड़ गयी और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रखकर नकली चम्पा को सुँघा दी जिसके सूँघते ही चम्पा बेहोश होकर गिर पड़ी।
चपला ने चन्द्रकान्ता को पुकार कर कहा, ‘‘ आओ सखी, अपनी चम्पा का हाल देखो।’’
चन्द्रकान्ता ने पास आकर चम्पा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा, ‘‘सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चम्पा से शरमाना पड़े !’’
“नहीं, ऐसा न होगा।’’ कहकर चपला चम्पा को पीठपर लाद फौव्वारे के पास ले गयी और चन्द्रकान्ता से बोली, ‘‘तुम फौव्वारे से चुल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ !’’ चन्द्रकान्ता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चम्पा की सूरत बदल गयी और साफ नाजिम की सूरत निकल आयी। देखते ही चन्द्रकान्ता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली, ‘‘सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की !’’
‘‘देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।’’ कहकर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गयी, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अन्दर बेहोश नाजिम को ले जाकर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलायी। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कसकर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आकर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा लेकर खड़ी हो गयी और मारना शुरू किया।
‘‘माफ करो मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा !’’ इत्यादि कहकर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी ? वह कोड़ा जमाये ही गयी और बोली, ‘‘सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी ! तू यहाँ क्यों आया था ? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी ? क्या बाग की सैर को जी चाहा था ? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी ? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया ? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ !’’ यह कहकर फिर मारना शुरू किया, और पूछा, ‘‘सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चम्पा कहाँ गई ?’’
मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला, ‘‘चम्पा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़ककर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघकर वह बेहोश हो गयी, तब मैंने उसे मालती लता के कुंज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो !’’
चपला ने कहा, ‘‘ठहर, छोड़ती हूँ।’’ मगर फिर भी दस पाँच कोड़े और जमा ही दिये, यहाँ तक की नाजिम बिलबिला उठा, तब चपला ने चन्द्रकान्ता से कहा, ‘‘सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चम्पा को ढूँढ़कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो!’’
चम्पा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जलाकर ढ़ूँढ़ने लगी। देखा की सचमुच चम्पा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघाकर होश में लायी और पूछा, ‘‘क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।’’
चम्पा ने कहा, ‘‘ मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठाकर सूंघते ही मैं बेहोश हो गयी, फिर न मालूम क्या हुआ ! हाय, हाय ! न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे !’’
वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक लेकर चपला ने चम्पा का बदन ढंका और तब यह कहकर की ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की’ चम्पा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चन्द्रकान्ता और नाजिम थे। नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी!’’ चम्पा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली, ‘‘बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगा कर अपना गुस्सा निकाल लूँ?’’
चपला ने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ !’’ बस फिर क्या था, चम्पा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाये, यहाँ तक कि नाजिम घबड़ा उठा और जी में कहने लगा, ‘‘खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई!’’
आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैद कर तीनों महल की तरफ रवाना हुई। यह छोटा-सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खास कर चन्द्रकान्ता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।
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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
(पहला अध्याय )
चौथा बयान

तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रुखसत होकर विजयगढ़ पहुँचे और चन्द्रकान्ता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अंधेरी रात होती तो कमंद लगाकर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।
आखिर तेजसिंह एकान्त में गये और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचे। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले, ‘‘यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज ने हमको अपनी अर्दली में नौकर रक्खा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तम्बाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तम्बाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे !’’
‘‘हाँ, हाँ, आइए, बैठिए, तम्बाकू पीजिए !’’कहकर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रक्खा। तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं हिन्दू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।’’ यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।
उन्होंने दो फूँक तम्बाकू के नहीं पिये थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खाँसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा, ‘‘मियाँ तुम लोग अजब कड़वा तम्बाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तम्बाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गयी है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तम्बाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गयी है कि सिवाय उस तम्बाकू के और कोई तम्बाकू अच्छा नहीं लगता !’’
इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तम्बाकू निकालकर दिया और कहा, ‘‘तुम लोग भी पीकर देख लो कि कैसा तम्बाकू है।
भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तम्बाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा, ‘‘लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तम्बाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे !’’ यह कहकर नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तम्बाकू ले लिया और खूब दोहरा जमाकर तेजसिंह के सामने लाए ! तेजसिंह ने कहा, ‘‘तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।’’
अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।
थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे होकर गिर पड़े और बेहोश हो गये।
अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अन्दर घुस गये और नजर बचाकर बाग में पहुँचे। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमन्द डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूँ तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरन्त उसे बेहोशी की बुकनी सुँघाई और जब बेहोश हो गयी तो उसे वहां से उठाकर किनारे ले गये। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचे जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा दस पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंड़ी की सूरत बनाये हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गये।
तेजसिंह को देख चपला बोली, ’’ क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आकर बैठ गयी है?
चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंड़ी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बनाकर आया हूँ उसका नाम केतकी है।
नकली केतकी : हां काम तो करने गयी थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आयी हूँ।
चपला : ऐसा ! अच्छा तूने क्या देखा कह?
नकली केतकी : सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।
सब लौंडियां हटा दी गईं और केवल चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा रह गईं। अब केतकी ने हँसकर कहा, ‘‘कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊँ।’’
चन्द्रकान्ता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेन्द्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी वीरेन्द्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है?
आखिर चन्द्रकान्ता ने केतकी से कहा, ‘‘हाँ हाँ, इनाम दूंगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है ?’’
केतकी ने कहा, ‘‘पहले दे दो तो कहूं, नहीं तो जाती हूँ।’’
यह कह उठकर खड़ी हो गई।
केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी, ‘‘क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़ के बातें कर रही है। लगाऊँ दो लात उठ के !’’
केतकी ने जवाब दिया, ‘‘क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूँगी !’’
अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहां तक कि दोनों आपस में गुँथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।
नकली केतकी: (हँसकर) क्यों, भाग क्यों गई ? आओ लड़ो !
चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली, ‘‘ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ !’’
इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और वीरेन्द्रसिंह की चिट्ठी निकाल कर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चीठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेन्द्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेन्द्रसिंह कभी चीठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ कर चपला शरमा गई और गर्दन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।
चन्द्रकान्ता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेन्द्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी-
चन्द्रकान्ता: क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है ?
तेजसिंह: मिजाज क्या खाक अच्छा होगा ? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है ! अभी उसी दिन तुम्हारी चीठी लेकर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूँगा, किसी तरह समझा-बुझाकर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जाकर वहाँ बन्दोबस्त कर आऊँ तब तुमको ले चलूँगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।
चन्द्रकान्ता: अफसोस! तुम उनको अपने साथ न लाये, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रक्खा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रक्खा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ाकर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गये हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जाकर तब कहूँगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अन्दर जाने की इजाजात किसने दी थी ?
यह कह कर चन्द्रकान्ता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।
तेजसिंह चपला की चालाकी सुनकर हैरान हो गये और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले, ‘‘चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।’’
यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम ! मैंने क्या धोखा खाया! पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा, ‘‘जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया?’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में लाकर कैद करतीं या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देतीं, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।
इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गये और बहुत शर्मिन्दा होकर बोली, ‘‘सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने खयाल न किया!’’
तेजसिंह: और कोई क्यों खयाल करता! तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका खयाल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं?
चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अन्दर जाकर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली, ‘‘क्या कहूं, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।’’
अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया, ‘‘बड़ी ऐयार बनती थीं, कहती थीं हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला!’’
चपला झुंझला उठी और चिढ़कर बोली, ‘‘चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में लाकर बेहिसाब जूतियां न लगाऊँ।’’
तेजसिंह ने कहा, ‘‘बस तुम्हारी कारीगरी देखी गई। अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जाकर कैद करता हूँ।’’
इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चन्द्रकान्ता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलाँ जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जाकर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूँगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जायेगा।
चन्द्रकान्ता ने तेजसिंह से ताकीद की कि ‘‘दूसरे, तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।’’
‘‘बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा !’’ यह कहकर तेजसिंह चलने को तैयार हुए। चन्द्रकान्ता उन्हें देख रोकर बोली, ‘‘क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है?’’ इतना कहते ही गला भऱ आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया औऱ कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबड़ा जाओगी तो कैसे काम चलेगा? बहुत-कुछ समझा-बुझाकर चन्द्रकान्ता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आये। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आये हैं बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपट कर दरबानों से कहा, ‘‘तुम लोग पहरा देते हौ या जमीन सूँघते हौ?’’ इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आंखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुर्दों से बाजी लगाकर ! देखो, मैं बड़ी रानी से कहकर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ!’’
जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुनकर सन्न हो गये और लगे खुशामद करने-
‘‘देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आकर धोखा दे ऐसा जहरीला तम्बाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी ! देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गये। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।’’
नकली केतकी ने कहा, ‘‘अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार! जो फिर कभी ऐसा हुआ!’’ यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गये। डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही है।
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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
(पहला अध्याय )
पाँचवा बयान

अहमद ने, जो बाग के पेड़ पर बैठा हुआ था जब देखा कि चपला ने नाजिम को गिरफ्तार कर लिया और महल में चली गई तो सोचने लगा कि चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बस यही तीनों महल में गई हैं, नाजिम इन सभी के साथ नहीं गया तो जरूर वह इस बगीचे में ही कहीं कैद होगा, यह सोच वह पेड़ से उतर इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। जब उस तहखाने के पास पहुंचा जिसमें नाजिम कैद था तो भीतर से चिल्लाने की आवाज आयी जिसे सुन उसने पहचान लिया कि नाजिम की आवाज है। तहखाने के किवाड़ खोल अन्दर गया, नाजिम को बँधा-पा झट से उसकी रस्सी खोली और तहखाने के बाहर आकर बोला, ‘‘चलो जल्दी, इस बगीचे के बाहर हो जायें तब सब हाल सुनें कि क्या हुआ।”
नाजिम और अहमद बगीचे के बाहर आये और चलते-चलते आपस में बाच-चीत करने लगे। नाजिम ने चपला के हाथ फंस जाने और कोड़ा खाने का पूरा हाल कहा।
अहमदः भाई नाजिम, जब तक पहले चपला को हम लोग न पकड़ लेंगे तब तक कोई काम न होगा, क्योंकि चपला बड़ी चालाक है और धीरे-धीरे चम्पा को भी तेज कर रही है। अगर वह गिरफ्तार न की जायेगी तो थोड़े ही दिनों में एक की दो हो जाएँगी चम्पा भी इस काम में तेज होकर चपला का साथ देने लायक हो जायेगी।
नाजिमः ठीक है, खैर, आज तो कोई काम नहीं हो सकता, मुश्किल से जान बची है। हाँ, कल पहले यही काम करना है, यानी जिस तरह से हो चपला को पकड़ना और ऐसी जगह छिपाना है कि जहाँ पता न लगे और अपने ऊपर किसी को शक भी न हो।
ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें करते चले जा रहे थे, थोड़ी देर में जब महल के अगले दरवाजे के पास पहुंचे तो देखा कि केतकी जो कुमारी चन्द्रकान्ता की लौंडी है सामने से चली आ रही है।
तेजसिंह ने भी जो केतकी के वेश में चले आ रहे थे, नाजिम और अहमद को देखते ही पहचान लिया और सोचने लगे कि भले मौके पर ये दोनों मिल गये हैं और अपनी भी सूरत अच्छी है, इस समय इन दोनों से कुछ खेल करना चाहिए और बन पड़े तो दोनों नहीं, एक को तो जरूर ही पकड़ना चाहिए।
तेजसिंह जान-बूझकर इन दोनों के पास से होकर निकले। नाजिम और अहमद भी यह सोचकर उसके पीछे हो लिए कि देखें कहाँ जाती है?
नकली केतकी (तेजसिंह) ने मुड़कर देखा और कहा, ‘‘तुम लोग मेरे पीछे-पीछे क्यों चले आ रहे हो? जिस काम पर मुकर्रर हो उस काम को करो!”
अहमद ने कहा, ‘‘किस काम पर मुकर्रर हैं और क्या करें, तुम क्या जानती हो?”
केतकी ने कहा, ‘‘मैं सब जानती हूँ! तुम वही काम करो जिसमें चपला के हाथ की जूतियाँ नसीब हों! जिस जगह तुम्हारी मददगार एक लौंडी तक नहीं है वहाँ तुम्हारे किये क्या होगा?”
नाजिम और अहमद केतकी की बात सुन कर दंग रह गये और सोचने लगे कि यह तो बड़ी चालाक मालूम होती है। अगर हम लोगों के मेल में आ जाय तो बड़ा काम निकले, इसकी बातों से मालूम भी होता है कि कुछ लालच देने पर हम लोगों का साथ देगी।
नाजिम ने कहा, ‘‘सुनो केतकी, हम लोगों का तो काम ही चालाकी करने का है। हम लोग अगर पकड़े जाने और मरने-मारने से डरें तो कभी काम न चले, इसी की बदौलत खाते हैं, बात-की-बात में हजारों रुपये इनाम मिलते हैं, खुदा की मेहरबानी से तुम्हारे जैसे मददगार भी मिल जाते हैं जैसे आज तुम मिल गईं। अब तुमको भी मुनासिब है कि हमारी मदद करो, जो कुछ हमको मिलेगा उससे हम तुमको भी हिस्सा देंगे।”
केतकी ने कहा, ‘‘सुनो जी, मैं उम्मीद के ऊपर जान देने वाली नहीं हूँ, वे कोई दूसरे होंगे। मैं तो पहले दाम लेती हूँ। अब इस वक्त अगर कुछ मुझको दो तो मैं अभी तेजसिंह को तुम्हारे हाथ गिरफ्तार करा दूं। नहीं तो जाओ, जो कुछ करते हो करो।”
तेजसिंह की गिरफ्तारी का हाल सुनते ही दोनों की तबीयत खुश हो गई! नाजिम ने कहा, ‘‘अगर तेजसिंह को पकड़वा दो तो जो कहो हम तुमको दें।”
केतकीः एक हजार रुपये से कम मैं हरगिज न लूँगी। अगर मंजूर हो तो लाओ रुपये मेरे सामने रखो।
नाजिमः अब इस वक्त आधी रात को मैं कहाँ से रुपये लाऊँ, हाँ कल जरूर दे दूँगा।
केतकीः ऐसी बातें मुझसे न करो। मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि मैं उधार सौदा नहीं करती, लो मैं जाती हूँ।
नाजिमः (आगे से रोक कर) सुनो तो, तुम खफा क्यों होती हो? अगर तुमको हम लोगों का ऐतबार न हो तो तुम इसी जगह ठहरो, हम लोग जाकर रुपये ले आते हैं।
केतकीः अच्छा, एक आदमी यहाँ मेरे पास रहे और एक आदमी जाकर रुपये ले आओ।
नाजिमः अच्छा, अहमद यहाँ तुम्हारे पास ठहरता है, मैं जाकर रुपये ले आता हूँ।
यह कहकर नाजिम ने अहमद को तो उसी जगह छोड़ा और आप खुशी-खुशी क्रूरसिंह की तरफ रुपये लेने को चला।
नाजिम के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक केतकी और अहमद इधर-उधर की बातें करते रहे। बात करते-करते केतकी ने दो-चार इलायची बटुए से निकालकर अहमद को दीं और आप भी खाईं। अहमद को तेजसिंह के पकड़े जाने की उम्मीद में इतनी खुशी थी कि कुछ सोच न सका और इलायची खा गया, मगर थोड़ी ही देर में उसका सिर घूमने लगा। तब समझ गया कि यह कोई ऐयार (चालाक) है जिसने धोखा दिया। चट कमर से खंजर खींच बिना कुछ कहे केतकी को मारा, मगर केतकी पहले से होशियार थी, दांव बचाकर उसने अहमद की कलाई पकड़ ली जिससे अहमद कुछ न कर सका बल्कि जरा ही देर में बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। तेजसिंह ने उसकी मुश्कें बांधकर चादर में गठरी कसी और पीठ पर लाद नौगढ़ का रास्ता लिया। खुशी के मारे जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते चले गये, यह भी खयाल था कि कहीं ऐसा न हो कि नाजिम आ जाय और पीछा करे।
इधर नाजिम रुपये लेने के लिए गया तो सीधे क्रूरसिंह के मकान पर पहुंचा। उस समय क्रूरसिंह गहरी नींद में सो रहा था। जाते ही नाजिम ने उसको जगाया, क्रूरसिंह ने पूछा, ‘‘क्या है जो इस वक्त आधी रात के समय आकर मुझको उठा रहे हो?”
नाजिम ने क्रूरसिंह से अपनी पूरी कैफियत, यानी चन्द्रकान्ता के बाग में जाना और गिरफ्तार होकर कोड़े खाना, अमहद का छुड़ा लाना, फिर वहां से रवाना होना, रास्ते में केतकी से मिलना और हजार रुपये पर तेजसिंह को पकड़वा देने की बातचीत तय करना वगैरह सब खुलासा हाल कह सुनाया। क्रूरसिंह ने नाजिम के पकड़े जाने का हाल सुनकर कुछ अफसोस तो किया मगर पीछे तेजसिंह के गिरफ्तार होने की उम्मीद सुनकर उछल पड़ा, और बोला, ‘‘लो, अभी हजार रुपये देता हूँ, बल्कि खुद तुम्हारे साथ चलता हूँ” यह कहकर उसने हजार रुपये सन्दूक में से निकाले और नाजिम के साथ हो लिया।
जब नाजिम क्रूरसिंह को साथ लेकर वहाँ पहुंचा जहाँ अहमद और केतकी को छोड़ा था तो दोनों में से कोई न मिला। नाजिम तो सन्न हो गया और उसके मुँह से झट यह बात निकल पड़ी कि ‘धोखा हुआ!’
क्रूरसिंहः “कहो नाजिम, क्या हुआ?”
नाजिमः क्या कहूं, वह जरूर केतकी नहीं कोई ऐयार था जिसने पूरा धोखा दिया और अहमद को तो ले ही गया।
क्रूरसिंहः खूब, तुम तो बाग में ही चपला के हाथ से पिट चुके थे, अहमद बाकी था सो वह भी इस वक्त कहीं जूते खाता होगा, चलो छुट्टी हुई।
नाजिम ने शक मिटाने के लिए थोड़ी देर तक इधर-उधर खोज भी की पर कुछ पता न लगा, आखिर रोते-पीटते दोनों ने घर का रास्ता लिया।
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चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन्यास
(पहला अध्याय )
छठवाँ बयान

तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेन्द्रसिंह अपने महल में आये मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चन्द्रकान्ता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चन्द्रकान्ता की तस्वीर अपने सामने रखकर बातें किया करना, या पलंग पर लेट मुँह ढाँप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। वीरेन्द्रसिंह के बाप सुरेन्द्रसिंह को वीरेन्द्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।
वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आये तो उनकी घबराहट औऱ भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को सँभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा हुआ ही चाहता था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुंचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह के कमरे में पहुँचकर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं। वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘कहो भाई, क्या खबर लाये?”
तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चन्द्रकान्ता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया औऱ कहा, ‘‘यह चिट्ठी है, और यह सौगात है!”
वीरेन्द्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आँखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा, ‘‘सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रक्खो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जायेगा।
तेजसिंह: इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।
यह कह तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेजकर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गये तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा, ‘‘आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।”
देवीसिंह ने कहा, ‘‘गुरुजी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।”
आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।
वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में घूमघुमौवे पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुंचकर एक अंधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहां जाकर तेजसिंह ठहर गये औऱ देवीसिंह से बोले, ‘‘गठरी रख दो।”
देवीसिंह: (गठरी रखकर) गुरुजी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आवे भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।
तेजसिंह: सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझकर ले आया हूं, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।
देवीसिंह: मैं तुम्हारा ताबेदार हूं, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।
तेजसिंह: सुनो, और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह खयाल रक्खो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गये, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाये देता हूँ। इसका खोलना बतलाये देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह लाकर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अन्दर कैद करने से कैदियों के हाथ-पैर बाँधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कैदियों के खाने-पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अन्दर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊं, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदलकर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रहकर इधर-उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।
और भी बहुत-सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस चेहरे के मुंह में हाथ डालकर इसकी जुबान बाहर खींचो।”
देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अन्दर गये। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियां जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाड़ियां, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइये, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियाँ बना दी हैं। चारों तरफ की पहाड़ियाँ ढलवाँ और बनिस्बत नीचे के ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराये बल्कि खुशी मालूम हो।
सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बंधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहां ले आये हैं। लगा कलमा पढ़ने। तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हँसी आई, बोले, ‘‘मियाँ साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए!”
अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आँखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुँह से न निकल सका।
अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुंह में डाल दो।” देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुंह में डालते ही जोर से दरवाजा बन्द हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीली राह से घर की तरफ रवाना हुए।
पहर भर दिन चढ़ा होगा जब ये दोनों लौटकर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। वीरेन्द्रसिंह ने पूछा, ‘‘अहमद को कहां कैद करने ले गये थे जो इतनी देर लगी?”
तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूं, आज आपको भी वह जगह दिखाऊंगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदलकर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।”
इसके बाद वह सब बातें भी वीरेन्द्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेन्द्रसिंह ने बहुत पसन्द किया।
स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गये। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे-‘‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएँगे।” आखिर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेन्द्रसिंह राजा के साथ महल में चले गये और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आये, देवीसिंह को भी साथ लाये और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।
दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेन्द्रसिंह को उस घाटी में ले गये जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देखकर बहुत ही खुश हुए और बोले, ‘‘भाई, इस जगह को देखकर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘पहले-पहल इस जगह को देखकर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूंगा।’
वीरेन्द्रसिंह इस बात को सुनकर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहां का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुनकर वीरेन्द्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जायेगा।
वे दोनों वहाँ से रवाना हो अपने महल आये। कुमार ने कहा, ‘‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चन्द्रकान्ता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है? देखिए, तो क्या होता है? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूँगा।”
वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूंगा, इस तरह एकदम डरपोक होकर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पाँच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चन्द्रकान्ता का महल रह जायेगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।” इस बात को वीरेन्द्रसिंह ने भी पसन्द किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।
कुछ दिन बाद वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता सुरेन्द्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिमाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जाकर हाल-चाल ले आवें।
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Old 03-07-2013, 03:51 PM   #8
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Default Re: चन्द्रकान्ता – देवकीनन्दन खत्री रचित उपन&#

(पहला अध्याय )
छठवाँ बयान

तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेन्द्रसिंह अपने महल में आये मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चन्द्रकान्ता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चन्द्रकान्ता की तस्वीर अपने सामने रखकर बातें किया करना, या पलंग पर लेट मुँह ढाँप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। वीरेन्द्रसिंह के बाप सुरेन्द्रसिंह को वीरेन्द्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।
वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आये तो उनकी घबराहट औऱ भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को सँभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा हुआ ही चाहता था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुंचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह के कमरे में पहुँचकर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं। वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘कहो भाई, क्या खबर लाये?”
तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चन्द्रकान्ता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया औऱ कहा, ‘‘यह चिट्ठी है, और यह सौगात है!”
वीरेन्द्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आँखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा, ‘‘सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रक्खो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जायेगा।
तेजसिंह: इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।
यह कह तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेजकर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गये तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा, ‘‘आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।”
देवीसिंह ने कहा, ‘‘गुरुजी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।”
आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।
वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में घूमघुमौवे पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुंचकर एक अंधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहां जाकर तेजसिंह ठहर गये औऱ देवीसिंह से बोले, ‘‘गठरी रख दो।”
देवीसिंह: (गठरी रखकर) गुरुजी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आवे भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।
तेजसिंह: सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझकर ले आया हूं, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।
देवीसिंह: मैं तुम्हारा ताबेदार हूं, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।
तेजसिंह: सुनो, और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह खयाल रक्खो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गये, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाये देता हूँ। इसका खोलना बतलाये देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह लाकर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अन्दर कैद करने से कैदियों के हाथ-पैर बाँधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कैदियों के खाने-पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अन्दर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊं, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदलकर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रहकर इधर-उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।
और भी बहुत-सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस चेहरे के मुंह में हाथ डालकर इसकी जुबान बाहर खींचो।”
देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अन्दर गये। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियां जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाड़ियां, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइये, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियाँ बना दी हैं। चारों तरफ की पहाड़ियाँ ढलवाँ और बनिस्बत नीचे के ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराये बल्कि खुशी मालूम हो।
सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बंधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहां ले आये हैं। लगा कलमा पढ़ने। तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हँसी आई, बोले, ‘‘मियाँ साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए!”
अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आँखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुँह से न निकल सका।
अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुंह में डाल दो।” देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुंह में डालते ही जोर से दरवाजा बन्द हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीली राह से घर की तरफ रवाना हुए।
पहर भर दिन चढ़ा होगा जब ये दोनों लौटकर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। वीरेन्द्रसिंह ने पूछा, ‘‘अहमद को कहां कैद करने ले गये थे जो इतनी देर लगी?”
तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूं, आज आपको भी वह जगह दिखाऊंगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदलकर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।”
इसके बाद वह सब बातें भी वीरेन्द्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेन्द्रसिंह ने बहुत पसन्द किया।
स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गये। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे-‘‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएँगे।” आखिर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेन्द्रसिंह राजा के साथ महल में चले गये और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आये, देवीसिंह को भी साथ लाये और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।
दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेन्द्रसिंह को उस घाटी में ले गये जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देखकर बहुत ही खुश हुए और बोले, ‘‘भाई, इस जगह को देखकर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘पहले-पहल इस जगह को देखकर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूंगा।’
वीरेन्द्रसिंह इस बात को सुनकर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहां का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुनकर वीरेन्द्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जायेगा।
वे दोनों वहाँ से रवाना हो अपने महल आये। कुमार ने कहा, ‘‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चन्द्रकान्ता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है? देखिए, तो क्या होता है? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूँगा।”
वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूंगा, इस तरह एकदम डरपोक होकर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पाँच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चन्द्रकान्ता का महल रह जायेगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।” इस बात को वीरेन्द्रसिंह ने भी पसन्द किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।
कुछ दिन बाद वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता सुरेन्द्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिमाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जाकर हाल-चाल ले आवें।
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छठवाँ बयान

तेजसिंह को विजयगढ़ की तरफ विदा कर वीरेन्द्रसिंह अपने महल में आये मगर किसी काम में उनका दिल न लगता था। हरदम चन्द्रकान्ता की याद में सिर झुकाए बैठे रहना और जब कभी निराश हो जाना तो चन्द्रकान्ता की तस्वीर अपने सामने रखकर बातें किया करना, या पलंग पर लेट मुँह ढाँप खूब रोना, बस यही उनका कम था। अगर कोई पूछता तो बातें बना देते। वीरेन्द्रसिंह के बाप सुरेन्द्रसिंह को वीरेन्द्रसिंह का सब हाल मालूम था मगर क्या करते, कुछ बस नहीं चलता था, क्योंकि विजयगढ़ का राजा उनसे बहुत जबर्दस्त था और हमेशा उन पर हुकूमत रखता था।
वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को विजयगढ़ जाती बार कह दिया था कि तुम आज ही लौट आना। रात बारह बजे तक वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह की राह देखी, जब वह न आये तो उनकी घबराहट औऱ भी ज्यादा हो गई। आखिर अपने को सँभाला और मसहरी पर लेट दरवाजे की तरफ देखने लगे। सवेरा हुआ ही चाहता था कि तेजसिंह पीठ पर एक गट्ठा लादे आ पहुंचे। पहरे वाले इस हालत में इनको देख हैरान थे, मगर खौफ से कुछ कह नहीं सकते थे। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह के कमरे में पहुँचकर देखा कि अभी तक वे जाग रहे हैं। वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह को देखते ही वह उठ खड़े हुए और बोले, ‘‘कहो भाई, क्या खबर लाये?”
तेजसिंह ने वहाँ का सब हाल सुनाया, चन्द्रकान्ता की चिट्ठी हाथ पर रख दी, अहमद को गठरी खोल कर दिखा दिया औऱ कहा, ‘‘यह चिट्ठी है, और यह सौगात है!”
वीरेन्द्रसिंह बहुत खश हुए। चिट्ठी को कई मर्तबा पढ़ा और आँखों से लगाया, फिर तेजसिंह से कहा, ‘‘सुनो भाई, इस अहमद को ऐसी जगह रक्खो जहाँ किसी को मालूम न हो, अगर जयसिंह को खबर लगेगी तो फसाद बढ़ जायेगा।
तेजसिंह: इस बात को मैं पहले से सोच चुका हूँ। मैं इसको एक पहाड़ी खोह में रख आता हूँ जिसको मैं ही जानता हूँ।
यह कह तेजसिंह ने फिर अहमद की गठरी बाँधी और एक प्यादे को भेजकर देवीसिंह नामी ऐयार को बुलाया जो तेजसिंह का शागिर्द, दिली दोस्त और रिश्ते में साला लगता था, तथा ऐयारी के फन में भी तेजसिंह से किसी तरह कम न था। जब देवीसिंह आ गये तब तेजसिंह ने अहमद की गठरी अपनी पीठ पर लादी और देवीसिंह से कहा, ‘‘आओ, हमारे साथ चलो, तुमसे एक काम है।”
देवीसिंह ने कहा, ‘‘गुरुजी वह गठरी मुझको दो, मैं चलूँ, मेरे रहते यह काम आपको अच्छा नहीं लगता।”
आखिर देवीसिंह ने वह गठरी पीठ पर लाद ली और तेजसिंह के पीछे चल पड़े।
वे दोनों शहर के बाहर ही जंगल और पहाड़ियों में घूमघुमौवे पेचीदे रास्तों में जाते-जाते दो कोस के करीब पहुंचकर एक अंधेरी खोह में घुसे। थोड़ी देर चलने के बाद कुछ रोशनी मिली। वहां जाकर तेजसिंह ठहर गये औऱ देवीसिंह से बोले, ‘‘गठरी रख दो।”
देवीसिंह: (गठरी रखकर) गुरुजी, यह तो अजीब जगह है, अगर कोई आवे भी तो यहाँ से जाना मुश्किल हो जाए।
तेजसिंह: सुनो देवीसिंह, इस जगह को मेरे सिवाय कोई नहीं जानता, तुमको अपना दिली दोस्त समझकर ले आया हूं, तुम्हें अभी बहुत कुछ काम करना होगा।
देवीसिंह: मैं तुम्हारा ताबेदार हूं, तुम गुरु हो क्योंकि ऐयारी तुम्हीं ने मुझको सिखाई है, अगर मेरी जान की जरूरत पड़े तो मैं देने को तैयार हूँ।
तेजसिंह: सुनो, और जो बातें मैं तुमसे कहता हूँ उनका अच्छी तरह खयाल रक्खो। यह सामने जो पत्थर का दरवाजा देखते हो इसको खोलना सिवाय मेरे कोई भी नहीं जानता, या फिर मेरे उस्ताद जिन्होंने मुझको ऐयारी सिखाई, वे जानते थे। वे तो अब नहीं हैं, मर गये, इस समय सिवाय मेरे कोई नहीं जानता, और मैं तुमको इसका खोलना बतलाये देता हूँ। इसका खोलना बतलाये देता हूँ। जिस-जिस को मैं पकड़ कर लाया करूँगा इसी जगह लाकर कैद किया करूँगा जिससे किसी को मालूम न हो और कोई छुड़ा के भी न ले जा सके। इसके अन्दर कैद करने से कैदियों के हाथ-पैर बाँधने की जरूरत नहीं रहेगी, सिर्फ हिफाजत के लिए एक खुलासी बेड़ी उनके पैरों में डाल देनी पड़ेगी जिससे वह धीरे-धीरे चल-फिर सकें। कैदियों के खाने-पीने की भी फिक्र तुमको नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि इसके अन्दर एक छोटी-सी कुदरती नहर है जिसमें बराबर पानी रहता है, यहाँ मेवों के दरख्त भी बहुत हैं। इस ऐयार को इसी में कैद करते हैं, बाद इसके महाराज से यह बहाना करके कि आजकल मैं बीमार रहता हूँ, अगर एक महीने की छुट्टी मिले तो आबोहवा बदल आऊं, महीने भर की छुट्टी ले लो। मैं कोशिश करके तुम्हें छुट्टी दिला दूँगा। तब तुम भेष बदलकर विजयगढ़ जाओ और बराबर वहीं रहकर इधर-उधर की खबर लिया करो, जो कुछ हाल हो मुझसे कहा करो और जब मौका देखो तो बदमाशों को गिरफ्तार करके इसी जगह ला उनको कैद भी कर दिया करो।
और भी बहुत-सी बातें देवीसिंह को समझाने के बाद तेजसिंह दरवाजा खोलने चले। दरवाजे के ऊपर एक बड़ा सा चेहरा शेर का बना हुआ था जिसके मुँह में हाथ बखूबी जा सकता था। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस चेहरे के मुंह में हाथ डालकर इसकी जुबान बाहर खींचो।”
देवीसिंह ने वैसा ही किया और हाथ भर के करीब जुबान खींच ली। उसके खिंचते ही एक आवाज हुई और दरवाजा खुल गया। अहमद की गठरी लिए हुए दोनों अन्दर गये। देवीसिंह ने देखा कि वह खूब खुलासा जगह, बल्कि कोस भर का साफ मैदान है। चारों तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियां जिन पर किसी तरह आदमी चढ़ नहीं सकता, बीच में एक छोटा-सा झरना पानी का बह रहा है और बहुत से जंगली मेवों के दरख्तों से अजब सुहावनी जगह मालूम होती है। चारों तरफ की पहाड़ियां, नीचे से ऊपर तक छोटे-छोटे करजनी, घुमची, बेर, मकोइये, चिरौंजी वगैरह के घने दरख्तों और लताओं से भरी हुई हैं। बड़े-बड़े पत्थर के ढोंके मस्त हाथी की तरह दिखाई देते हैं। ऊपर से पानी गिर रहा है जिसकी आवाज बहुत भली मालूम होती है। हवा चलने से पेड़ों की सरसराहट और पानी की आवाज तथा बीच में मोरों का शोर और भी दिल को खींच लेता है। नीचे जो चश्मा पानी का पश्चिम से पूरब की तरफ घूमता हुआ बह रहा है उसके दोनों तरफ जामुन के पेड़ लगे हुए हैं और पके जामुन उस चश्मे के पानी में गिर रहे हैं। पानी भी चश्मे का इतना साफ है कि जमीन दिखाई देती है, कहीं हाथ भर, कहीं कमर बराबर, कहीं उससे भी ज्यादा होगा। पहाड़ों में कुदरती खोह बने हैं जिनके देखने से मालूम होता है कि मानों ईश्वर ने यहाँ सैलानियों के रहने के लिए कोठरियाँ बना दी हैं। चारों तरफ की पहाड़ियाँ ढलवाँ और बनिस्बत नीचे के ऊपर से ज्यादा खुलासा थीं और उन पर बादलों के टुकड़े छोटे-छोटे शामियानों का मजा दे रहे थे। यह जगह ऐसी सुहावनी थी कि वर्षों रहने पर भी किसी की तबीयत न घबराये बल्कि खुशी मालूम हो।
सुबह हो गई। सूरज निकल आया। तेजसिंह ने अहमद की गठरी खोली। उसका ऐयारी का बटुआ और खंजर जो कमर में बंधा था, ले लिया और एक बेड़ी उसके पैर में डालने के बाद होशियार किया। जब अहमद होश में आया और उसने अपने को इस दिलचस्प मैदान में देखा तो यकीन हो गया कि वह मर गया है और फरिश्ते उसको यहां ले आये हैं। लगा कलमा पढ़ने। तेजसिंह के उसके कलमा पढ़ने पर हँसी आई, बोले, ‘‘मियाँ साहब, आप हमारे कैदी हैं, इधर देखिए!”
अहमद ने तेजसिंह की तरफ देखा, पहचानते ही जान सूख गई, समझ गया कि तब न मरे तो अब मरे। बीवी केतकी की सूरत आँखों के सामने फिर गई, खौफ ने उसका गला ऐसा दबाया कि एक हर्फ भी मुँह से न निकल सका।
अहमद को उसी मैदान में चश्मे के किनारे छोड़ दोनों ऐयार बाहर निकल आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा, ‘‘इस शेर की जुबान जो तुमने बाहर खींच ली है उसी के मुंह में डाल दो।” देवीसिंह ने वैसा ही किया। जुबान उसके मुंह में डालते ही जोर से दरवाजा बन्द हो गया और दोनों आदमी उसी पेचीली राह से घर की तरफ रवाना हुए।
पहर भर दिन चढ़ा होगा जब ये दोनों लौटकर वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंचे। वीरेन्द्रसिंह ने पूछा, ‘‘अहमद को कहां कैद करने ले गये थे जो इतनी देर लगी?”
तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘एक पहाड़ी खोह में कैद कर आया हूं, आज आपको भी वह जगह दिखाऊंगा, पर मेरी राय है कि देवीसिंह थोड़े दिन भेष बदलकर विजयगढ़ में रहे। ऐसा करने से मुझको बड़ी मदद मिलेगी।”
इसके बाद वह सब बातें भी वीरेन्द्रसिंह को कह सुनाईं जो खोह में देवीसिंह को समझाई थीं और जो कुछ राय ठहरी थी वह भी कहा जिसे वीरेन्द्रसिंह ने बहुत पसन्द किया।
स्नान-पूजा और मामूली कामों से फुरसत-पा दोनों आदमी देवीसिंह को साथ लिए राजदरबार में गये। देवीसिंह ने छुट्टी के लिए अर्ज किया। राजा देवीसिंह को बहुत चाहते थे, छुट्टी देना मंजूर न था, कहने लगे-‘‘हम तुम्हारी दवा यहाँ ही कराएँगे।” आखिर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह की सिफारिश से छुट्टी मिली। दरबार बर्खास्त होने पर वीरेन्द्रसिंह राजा के साथ महल में चले गये और तेजसिंह अपने पिता जीतसिंह के साथ घर आये, देवीसिंह को भी साथ लाये और सफर की तैयारी कर उसी समय उनको रवाना कर दिया। जाती दफा उन्हें और भी बातें समझा दीं।
दूसरे दिन तेजसिंह अपने साथ वीरेन्द्रसिंह को उस घाटी में ले गये जहाँ अहमद को कैद किया था। कुमार उस जगह को देखकर बहुत ही खुश हुए और बोले, ‘‘भाई, इस जगह को देखकर तो मेरे दिल में बहुत-सी बातें पैदा होती हैं।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘पहले-पहल इस जगह को देखकर मैं तो आपसे भी ज्यादा हैरान हुआ था, मगर गुरु जीने बहुत कुछ हाल वहाँ का समझा कर मेरी दिलजमई कर दी थी जो किसी दूसरे वक्त आपसे कहूंगा।’
वीरेन्द्रसिंह इस बात को सुनकर और भी हैरान हुए और उस घाटी की कैफियत जानने के लिए जिद करने लगे। आखिर तेजसिंह ने वहां का हाल जो कुछ अपने गुरु से सुना था, कहा, जिसे सुनकर वीरेन्द्रसिंह बहुत प्रसन्न हुए। तेजसिंह ने वीरेन्द्रसिंह से कहा, वे इतना खुश क्यों हुए, और यह घाटी कैसी थी यह सब हाल किसी दूसरे मौके पर बयान किया जायेगा।
वे दोनों वहाँ से रवाना हो अपने महल आये। कुमार ने कहा, ‘‘भाई, अब तो मेरा हौसला बहुत बढ़ गया है। जी में आता है कि जयसिंह से लड़ जाऊँ।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपका हौसला ठीक है, मगर जल्दी करने से चन्द्रकान्ता की जान का खौफ है। आप इतना घबराते क्यों है? देखिए, तो क्या होता है? कल मैं फिर जाऊँगा और मालूम करूँगा कि अहमद के पकड़े जाने से दुश्मनों की क्या कैफियत हुई, फिर दूसरी बार आपको ले चलूँगा।”
वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, अब की बार मैं जरूर चलूंगा, इस तरह एकदम डरपोक होकर बैठे रहना मर्दों का काम नहीं।”
तेजसिंह ने कहा, ‘‘अच्छा, आप भी चलिए, हर्ज क्या है, मगर एक काम होना जरूरी है जो यह कि महाराज से पाँच-चार रोज के लिए शिकार की छुट्टी लीजिए और अपनी सरहद पर डेरा डाल दीजिए, वहाँ से कुल ढाई कोस चन्द्रकान्ता का महल रह जायेगा, तब हर तरह का सुभीता होगा।” इस बात को वीरेन्द्रसिंह ने भी पसन्द किया और आखिर यही राय पक्की ठहरी।
कुछ दिन बाद वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता सुरेन्द्रसिंह से शिकार के लिए आठ दिन की छुट्टी ले ली और थोड़े से अपने दिली आदमियों को, जो खास उन्हीं के खिदमती थे और उनको जान से ज्यादा चाहते थे, साथ ले रवाना हुए। थोड़ा-सा दिन बाकी था तब नौगढ़ और विजयगढ़ के सिमाने पर इन लोगों का डेरा पड़ गया। रात भर वहाँ मुकाम रहा और यह राय ठहरी कि पहले तेजसिंह विजयगढ़ जाकर हाल-चाल ले आवें।
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(पहला अध्याय)
सातवाँ बयान

अहमद के पकड़े जाने से नाजिम बहुत उदास हो गया और क्रूरसिंह को तो अपनी ही फिक्र पड़ गई कि कहीं तेजसिंह मुझको भी न पकड़ ले जाये! इस खौफ से वह हरदम चौकन्ना रहता था, मगर महाराज जयसिंह के दरबार में रोज आता और वीरेन्द्रसिंह के प्रति उनको भड़काया करता।
एक दिन नाजिम ने क्रूरसिंह को यह सलाह दी कि जिस तरह हो सके अपने बाप कुपथसिंह को मार डालो, उसके मरने के बाद जयसिंह जरूर तुमको मंत्री (वजीर) बनायेंगे, उस वक्त तुम्हारी हुकूमत हो जाने से सब काम बहुत जल्द होगा।
आखिर क्रूरसिंह ने जहर दिलवाकर अपने बाप को मरवा डाला। महाराज ने कुपथसिंह के मरने पर अफसोस किया और कई दिन तक दरबार में न आये। शहर में भी कुपथसिंह के मरने का गम छा गया।
क्रूरसिंह ने जाहिर में अपने बाप के मरने का भारी मातम (गम) किया और बारह रोज के वास्ते अलग बिस्तर जमाया। दिन भर तो अपने बाप को रोता पर रात को नाजिम के साथ बैठकर चन्द्रकान्ता से मिलने तथा तेजसिंह और वीरेन्द्रसिंह को गिरफ्तार करने की फिक्र करता। इन्हीं दिनों वीरेन्द्रसिंह ने भी शिकार के बहाने विजयगढ़ की सरहद पर खेमा डाल दिया था, जिसकी खबर नाजिम ने क्रूरसिंह को पहुंचाई और कहा, ‘‘वीरेन्द्रसिंह जरूर चन्द्रकान्ता की फिक्र में आया है, अफसोस! इस समय अहमद न हुआ नहीं तो बड़ा काम निकलता। खैर, देखा जाएगा।” यह कह क्रूरसिंह से बिदा हो बालादवी* के वास्ते चला गया।
तेजसिंह वीरेन्द्रसिंह से रुखसत हो विजयगढ़ पहुंचे और मंत्री के मरने तथा शहर भर में गम छाने का हाल लेकर वीरेन्द्रसिंह के पास लौट आये। यह भी खबर लाये कि दो दिन बाद सूतक निकल जाने पर महाराज जयसिंह क्रूर को अपना दीवान बनायेंगे।
वीरेन्द्रसिंहः देखो, क्रूर ने चन्द्रकान्ता के बाप को मार डाला। अगर राजा को भी मार डाले तो ऐसे आदमी का क्या ठिकाना!
तेजसिंह: सच है, वह नालायक जहाँ तक भी होगा राजा पर भी बहुत जल्द हाथ फेरेगा, अस्तु अब मैं दो दिन चन्द्रकान्ता के महल में न जाकर दरबार ही का हालचाल लूंगा, हाँ, इस बीच में अगर मौका मिल जाय तो देखा जायगा।
वीरेन्द्रसिंहः सो सब कुछ नहीं, चाहे जो हो, आज मैं चन्द्रकान्ता से जरूर मुलाकात करूँगा।
तेजसिंह: आप जल्दी न करें, जल्दी ही सब कामों को बिगाड़ती है।
वीरेन्द्रः जो भी हो, मैं तो जरूर जाऊँगा।
तेजसिंह ने बहुत समझाया मगर चन्द्रकान्ता की जुदाई में उनको भला-बुरा क्या सूझता था! एक न मानी और चलने के लिए तैयार हो ही गये। आखिर तेजसिंह ने कहा, ‘‘खैर, नहीं मानते तो चलिए, जब आपकी ऐसी मर्जी है तो हम क्या करें! जो कुछ होगा देखा जायगा।”
शाम के वक्त ये दोनों टहलने के लिए खेमे के बाहर निकले और अपने प्यादों से कह गये कि अगर हम लोगों के आने में देर हो तो घबराना मत। टहलते हुए दोनों विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
कुछ रात गई होगी जब चन्द्रकान्ता के उसी नजरबाग के पास पहुँचे जिसका हाल पहले लिख चुके हैं।
रात अंधेरी थी इसलिए इन दोनों को बाग में जाने के लिए कोई तरद्दुद न करना पड़ा, पहरे वालों को बचाकर कमन्द फेंका और उसके जरिए बाग के अन्दर एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो इधर उधर- निगाह दौड़ा कर देखने लगे।
बाग के बीचोबीच संगमरमर के एक साफ चिकने चबूतरे पर मोमी शमादान जल रहा था चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी बातें कर रही थीं। चपला बातें भी करती जाती थी और इधर-उधर तेजी के साथ निगाह भी दौड़ा रही थी।
चन्द्रकान्ता को देखते ही वीरेन्द्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कँपकँपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े। मगर वीरेन्द्रसिंह की यह हालत देख तेजसिंह पर कोई प्रभाव न हुआ, झट अपने ऐयारी बटुए से लखलखा निकाल सुँघा दिया और होश में लाकर कहा, ‘‘देखिए, दूसरे के मकान में आपको इस तरह बेसुध न होना चाहिए। अब आप अपने को सम्हालिए और इसी जगह ठहरिए, मैं जाकर बात कर आऊं तब आपको ले चलूं।”
यह कह उन्हें उसी पेड़ के नीचे छोड़ उस जगह गये जहाँ चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा बैठी थीं। तेजसिंह को देखते ही चन्द्रकान्ता बोली, ‘‘क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे? क्या इसी का नाम मुरव्वत है? अबकी आये तो अकेले ही आये। वाह, ऐसा ही था तो हाथ में चूड़ी पहन लेते, जवाँमर्दी की डींग क्यों मारते हैं! जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जीकर क्या करूंगी?” कहकर चन्द्रकान्ता रोने लगी, यहाँ तक कि हिचकी बँध गई।
तेजसिंह उसकी हालत देख बहुत घबराये और बोले, ‘‘बस, इसी को नादानी कहते हैं! अच्छी तरह हाल भी न पूछा और लगीं रोने, ऐसा ही है तो उनको लिये आता हूँ!”
यह कहकर तेजसिंह वहाँ गये जहाँ वीरेन्द्रसिंह को छोड़ा था और उनको अपने साथ ले चन्द्रकान्ता के पास लौटे। चन्द्रकान्ता वीरेन्द्रसिंह के मिलने से बड़ी खुश हुई, दोनों मिलकर खूब रोए, यहाँ तक कि बेहोश हो गये मगर थोड़ी देर बाद होश में आ गये और आपस में शिकायत मिली मुहब्बत की बात करने लगे।
अब जमाने का उलट-फेर देखिए। घूमता-फिरता टोह लगाता नाजिम भी उसी जगह आ पहुँचा और दूर से इन सबों की खुशी भरी मजलिस देखकर जल मरा। तुरन्त ही लौटकर क्रूरसिंह के पास पहुंचा। क्रूरसिंह ने नाजिम को घबराया हुआ देखा और पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात है जो तुम इतना घबराये हुए हो?”
नाजिमः है क्या, जो मैं सोचता था वही हुआ! यही वक्त चालाकी का है, अगर अब भी कुछ न बन पड़ा तो बस तुम्हारी किस्मत फूट गई, ऐसा ही समझना पड़ेगा।
क्रूरसिंहः तुम्हारी बातें तो कुछ समझ में नहीं आतीं, खुलासा कहो, क्या बात है?
नाजिमः खुलासा बस यही है कि वीरेन्द्रसिंह चन्द्रकान्ता के पास पहुंच गया और इस समय बाग में हँसी के कहकहे उड़ रहे हैं।
यह सुनते ही क्रूरसिंह की आंखों के आगे अन्धेरा छा गया, दुनिया उदास मालूम होने लगी, कहीं तो बाप के जाहिरी गम में वह सर मुड़ाए बरसाती मेंढक बना बैठा था, तेरह रोज कहीं बाहर जाना हो ही नहीं सकता था, मगर इस खबर ने उसको अपने आपे में न रहने दिया, फौरन उठ खड़ा हुआ और उसी तरह नंग-धड़ंग औंधी हाँडी-सा सिर लिए महाराज जयसिंह के पास पहुँचा।
जयसिंह क्रूरसिंह को इस तरह आया देख हैरान हो बोले, ‘‘क्रूरसिंह, सूतक और बाप का गम छोड़ कर तुम्हारा इस तरह आना मुझको हैरानी में डाल रहा है।
क्रूरसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, हमारे बाप तो आप हैं, उन्होंने तो पैदा किया, परवरिश आप की बदौलत होती है। जब आपकी इज्जत में बट्टा लगा तो मेरी जिन्दगी किस काम की है और मैं किस लायक गिना जाऊँगा?”
जयसिंह : (गुस्से में आकर) क्रूरसिंह! ऐसा कौन है जो हमारी इज्जत बिगाड़े?
क्रूरसिंहः एक अदना आदमी।
जयसिंह : (दांत पीसकर) जल्दी बताओ, वह कौन है, जिसके सिर पर मौत सवार हुई है?
क्रूरसिंहः वीरेन्द्रसिंह!
जयसिंह : उसकी क्या मजाल जो मेरा मुकाबला करे, इज्जत बिगाड़ना तो दूर की बात है! तुम्हारी बात कुछ समझ में नहीं आती, साफ-साफ जल्द बताओ, क्या बात है? वीरेन्द्रसिंह कहाँ हैं?
क्रूरसिंहः आपके चोर महल के बाग में!
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