18-12-2012, 02:41 PM | #1 |
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मैं क्यों लिखता हूँ :: मंटो
मैं क्यों लिखता हूँ
सआदत हसन मंटो |
18-12-2012, 02:42 PM | #2 |
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Re: मैं क्यों लिखता हूँ :: मंटो
मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ... मैं क्यों पीता हूँ... लेकिन इस दृष्टि से मुख़तलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता। पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ।
अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो ज़ाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूँ। हो सकता है, फ़ाकाकशी की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो ज़रूरी है। हाथ न चले तो ज़बान ही चलनी चाहिए। यह कितनी बड़ी ट्रेजडी है कि इनसान खाए-पिए बग़ैर कुछ भी नहीं कर सकता। लोग कला को इतना ऊँचा रुतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं। मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है? मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है। मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ। |
18-12-2012, 02:42 PM | #3 |
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Re: मैं क्यों लिखता हूँ :: मंटो
रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंज़ूर है। वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है, यह गलत है। वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है। उसको इबादत चाहिए। और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है।
मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती। लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है। किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ों लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित वाशिंदा। इस बज़ाहिर कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूँगा और दूसरों को सुनाऊँगा। |
18-12-2012, 02:43 PM | #4 |
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Re: मैं क्यों लिखता हूँ :: मंटो
चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मीनान से सो जाती है, मेरे अफ़सानों की हीरोइन नहीं हो सकती। मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है। जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है। उसके भारी-भारी पपोटे, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे अफ़सानों का मौजूँ (विषय) बन सकते हैं। उसकी गलाजत, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ - ये सब मुझे भाती हैं - मैं उसके मुतल्लिक लिखता हूँ और घरेलू औरतों की शस्ताकलामियों, उनकी सेहत और उनकी नफ़ासत पसंदी को नज़रअंदाज कर जाता हूँ।
सआदत हसन मंटो लिखता है इसलिए कि यह खुदा जितना बड़ा अफसानासाज और शायर नहीं, यह उसकी आजिजी जो उससे लिखवाती है। मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है। अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो ज़िदगी और भी मुश्किल बन जाए। पर मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूँढ़ नहीं पाया हूँ। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ। |
18-12-2012, 02:43 PM | #5 |
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Re: मैं क्यों लिखता हूँ :: मंटो
मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता। मैं अपनी ज़िंदगी का तीन-चौथाई हिस्सा बदपरहेजियों की भेंट चढ़ा चुका हूँ। मैं समझता हूँ कि ज़िदगी अगर परहेज़ से गुजारी जाए तो एक क़ैद है। अगर वह बदपरहेजियों से गुज़ारी जाए तो भी एक क़ैद है। किसी न किसी तरह हमें इस जुराब के धागे का एक सिरा पकड़कर उधेड़ते जाना है और बस।
***************समाप्त***************** |
30-09-2014, 10:01 AM | #6 | |
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Re: मैं क्यों लिखता हूँ :: मंटो
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