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![]() (साभार: आलोक श्रीवास्तव) पहाड़ों के जिस्मों पे बर्फ़ों की चादर चिनारों के पत्तों पे शबनम के बिस्तर हसीं वादियों में महकती है केसर कहीं झिलमिलाते हैं झीलों के ज़ेवर ये कश्मीर क्या है है जन्नत का मंज़र यहाँ के बशर हैं फ़रिश्तों की मूरत (बशर = इंसान) यहाँ की ज़बां है बड़ी ख़ूबसूरत यहाँ की फ़िज़ा में घुली है मुहब्बत यहाँ की हवाएं भी ख़ुशबू से हैं तर ये कश्मीर क्या है है जन्नत का मंज़र ये झीलों से लिपटे हुए हैं शिकारे ये वादी में बिखरे हुए फूल सारे यक़ीनों से आगे हसीं ये नज़ारे फ़रिश्ते उतर आए जैसे ज़मीं पर ये कश्मीर क्या है है जन्नत का मंज़र सुख़न सूफ़ियाना, हुनर का ख़ज़ाना अज़ानों से भजनों का रिश्ता पुराना ये पीरों फ़कीरों का है आशियाना यहां सर झुकाती है क़ुदरत भी आकर ये कश्मीर क्या है है जन्नत का मंज़र
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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#2 | |
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behad sundarta ke sath kashmeer ka varnan kiya hai is kavita me bhai hamse sheyar karne ke liye bahut bahut dhanywad bhai |
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#3 |
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जी बहुत बहुत धन्यवाद. यह कविता मुझे इन्टरनेट पर मिली जिसे श्री जगजीत सिंह ने अपनी खुबसूरत आवाज़ में भी गाया है.
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