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09-08-2013, 05:36 PM | #1 |
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डायरी के पन्ने और तुम ......
अंतरजाल में 'दिल्ली डायरीज' के नाम से उपलब्ध सामग्री को new नाम से प्रस्तुत कर रहा हूँ। कृपया आनंद लें।
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तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर । परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।। विद्या ददाति विनयम, विनयात्यात पात्रताम । पात्रतात धनम आप्नोति, धनात धर्मः, ततः सुखम ।। कभी कभी -->http://kadaachit.blogspot.in/ यहाँ मिलूँगा: https://www.facebook.com/jai.bhardwaj.754 Last edited by jai_bhardwaj; 09-08-2013 at 05:43 PM. |
09-08-2013, 05:37 PM | #2 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
प्रस्तावना :
यह वीकेंड है...तुम्हारे उदास होने का समय.तुम कमरे में अकेले बैठे हो..सोचते हो की वीकेंड दोस्तों के साथ बिताना चाहिए..लेकिन कौन से दोस्त?कौन दोस्त हैं तुम्हारे यहाँ जो एक कॉल पर कहीं भी मिलने आ जाए?तुम बिस्तर पर रखे अपने फोन को उठाते हो.रिसीवड कॉल में पिछले सात दिनों में किन लोगों ने फोन किया तुम ये देखते हो..सिर्फ चार नाम हैं..एक तुम्हारे घर से जिसका नंबर Home के नाम से सेव है , दूसरा तुम्हारे पिताजी का, तीसरा तुम्हारी बहन का और चौथा तुम्हारे एक दोस्त का, जो किसी दुसरे शहर में रहता है और जिससे तुमने चार पांच दिन पहले बात की थी..तुम कल रात के बारे में सोचते हो.लैपटॉप पर एक उदास सी फिल्म चल रही थी और तुम इंतजार कर रहे थे..तुम इंतजार कर रहे थे की कोई तो तुम्हे फोन या मेसेज करे और तुम्हे वीकेंड पर कहीं साथ वक़्त बिताने बुलाये...तुम अपना फोन बार बार चेक करते हो..लेकिन कहीं कोई मेसेज कोई कॉल नहीं है.तुम्हे कमरे में एकाएक घुटन सी महसूस होने लगती है.तुम निकल जाते हो, मई की इस जलती दोपहरी में...कहीं भी जा सकते हो तुम..लेकिन इस वक़्त घर में नहीं रहना चाहते..मोबाइल के एफएम पर एक गाने की धुन बजती है.तुम्हे कुछ याद आता है.आज से इग्यारह साल पहले मई का ही एक दिन था वो..जब तुम पहली बार दिल्ली आये थे और वो तुम्हे दिल्ली घुमा रही थी...वो बस में तुम्हारे बगल में बैठी तुम्हारी उँगलियों से खेल रही थी, और बस में यह गाना लगातार बज रहा था..तुम्हे याद आता है उसका चेहरा, जब कनौट प्लेस में उस शाम आसमान की तरफ देखकर उसने कहा था "I want to fly like a bird".तुम दो घंटे उसके साथ कनौट प्लेस के गलियारों में घूमते रहे थे...तुम सोचते हो की शाम में घर जाते ही तुम अपनी डायरी खोल के बैठ जाओगे और मई के वे तीन दिन तुम अपनी डायरी में लिखोगे, जितना भी तुम्हे याद है..वो सब तुम लिख डालोगे, ताकि वो सारे पल तुम कहीं सहेज कर रख सको..
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09-08-2013, 05:38 PM | #3 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
कथानक
वो मई का एक दिन था..आज से ठीक इग्यारह साल पहले.. पिछले साल जो हुआ था उससे पूरी तरह उबर भी नहीं पाया था की एक और हार सामने खड़ी थी.दिल्ली जाने का टिकट हाथ में था, लेकिन दिल्ली जाने का इरादा खत्म हो चूका था.जिस काम से दिल्ली जाना था, उस काम के होने की उम्मीद अब बची ही नहीं थी.उसी दिन उसका कॉल आया था, शहर में मेरी सबसे अच्छी दोस्त का कॉल.वो उन दिनों दिल्ली में थी और उसने एक घंटे तक मुझे समझाया था..दिल्ली का प्लान कैंसल न करने की विनती की थी.घर वालों ने भी दिल्ली का प्लान कैंसल न करने को कहा था."जाओ, जाकर घूम ही आओ", यही कहा था माँ ने उस शाम. रात भर मैं इस विषय पर सोचते रहा था और सुबह तक मैंने फैसला कर लिया था की मैं दिल्ली जाऊँगा.घर में अपना फैसला बताने के बाद सबसे पहले मैंने उसे कॉल किया था.फोन पर वो ख़ुशी से चिल्ला उठी थी.
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09-08-2013, 05:39 PM | #4 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
अगले दिन ट्रेन थी, और मैं अपने दोस्त के साथ दिल्ली के निकल पड़ा था.रात भर ट्रेन में नींद नहीं आई.ट्रेन की खिड़की से सर टिकाकर मैं सोचने लगा -मैं दो दिन उसके साथ दिल्ली घूमूँगा..और तीसरे दिन वो मेरे साथ ही वापस मेरे शहर आएगी.सिर्फ ये ख्याल काफी था मुझे रात भर जगाये रखने के लिए.उसकी वपसी उसी दिन थी जिस दिन मैं वापस लौटने वाला था.वो अपनी दो दीदी और बड़ी दीदी की तीन साल की बेटी के साथ आने वाली थी.कितने जतन करने पड़े थे, कितने झूठ-सच बहाने बनाने पड़े थे एक साथ टिकट लेने के लिए..ये सिर्फ हमें ही पता था.सुबह ट्रेन ठीक अपने समय पर दिल्ली स्टेशन पहुँच चुकी थी.हमने जल्दी जल्दी स्टेशन के सामने एक होटल किराये पर लिया और मैं नीचे पब्लिक बूथ से उसे फोन करने चला गया.
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09-08-2013, 05:39 PM | #5 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
"थैंक गौड!!एट लास्ट तुमने फोन किया..पता है मैं एक घंटे से फोन को घुर रही थी"...मेरे फोन करते ही उसने कहा था.मैंने अपना प्लान बताया की मुझे कहाँ कहाँ जाना है.मुझे कश्मीरी गेट के पास एक यूनिवर्सिटी में काम था, वहां तक कैसे जाना होगा ये समझाने के बाद उसने कहा की वो बारह बजे तक यूनिवर्सिटी ही डाईरेक्ट पहुँच जायेगी..मुझे उसने यूनिवर्सिटी के गेट के पास इंतजार करने को कहा था.मैं जल्दी जल्दी होटल में वापस गया, तैयार हुआ और कश्मीरी गेट के लिए निकल गया.मेरा दोस्त जो मेरे साथ आया था, उसे दुसरे काम थे तो वो होटल में ही रुक गया.
३० मई का वो दिन काफी गर्म दिन था.मैं समय से आधे घंटे पहले ही यूनिवर्सिटी के गेट के पास पहुँच गया था.वहीँ एक कोने में लगी एक बेंच पर बैठ गया और उसका इंतजार करने लगा.बारह बजते ही मेरा इक्साइट्मन्ट का लेवल भी अपने चरम पर पहुँच गया था.मेरी नज़रें यूनिवर्सिटी के गेट पर जाकर टिक गयीं.सवा बारह...साढ़े बारह...पौने एक बज गए थे...लेकिन उसका कोई पता नहीं था.मेरे मन में तरह तरह के ख्याल आने लगे..क्या आज वो नहीं आ पाएगी?एक बजने वाले हैं अब...अभी तक उसका कोई पता नहीं.अपनी इस फ्रस्ट्रेशन को छिपाने के लिए मैं एक मैगजीन लेकर बैठ गया, जिसे सुबह रेलवे स्टेशन पर मैंने खरीदा था.कुछ दो तीन ही मिनट हुए होंगे की मुझे एहसास हुआ कोई मेरे ठीक सामने खड़ा है और मुझे घूर रहा है.मैंने नज़रें उठाई तो सामने वो खड़ी थी.एक पल के लिए तो मैं उसे बिलकुल भी पहचान नहीं पाया था.बिलकुल ही अलग अवतार में थी वो..शायद दिल्ली का असर था उसपर..पीले रंग का एक कुरता, जींस, बड़े से गागल्ज़ और एक हैट..उसे हैट पहने हुए मैं पहली बार देख रहा था, और अगर वो अपने गागल्ज़ उतारकर मुझे नहीं देखती तो संभव था की मैं कुछ देर तक उसे एक अजनबी ही समझते रहता.
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09-08-2013, 05:39 PM | #6 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
"अरे..सॉरी..सॉरी...यु हैव नो आईडिया आज क्या क्या हुआ...अचानक से बुआ आ गयीं थी और उन्होंने मुझे रोक लिया था..जैसे तैसे निकली हूँ...ट्रैफिक भी बहुत ज्यादा था..मैं तो बस समझो की भागते भागते आई हूँ..".बिना मांगे दिए गए उसके इस एक्सप्लेनेसन पर मैं मुस्कुरा उठा."अरे होता है..होता है, कोई बात नहीं.." मैंने उसका गिल्ट कम करने की कोशिश की.हम कुछ देर वहीँ बैठे रहे, उसी यूनिवर्सिटी की बेंच पर, एक बड़े से पेड़ के नीचे.हम दोनों को समझ में नहीं आ रहा था की क्या बात किया जाए..दोनों में से कोई भी ये नहीं चाहते थे की जिस काम से यूनिवर्सिटी आना हुआ है, उसकी चर्चा करें.उसे ये डर था की मैं पिछली बातों को याद कर के उदास हो जाऊँगा और मुझे डर इस बात का था की पिछली बातों को याद करके कहीं उसका गिल्ट और बढ़ न जाए.पिछले साल मेरे ख़राब रिजल्ट के लिए वो खुद को कसूरवार समझ बैठी थी.हम अक्सर ऐसी हालत में जब पता नहीं होता की क्या बात करें, तब एक दुसरे का मजाक उड़ाने लगते हैं..और ये ट्रिक हमेशा काम कर जाता है.."तुम तो आज मॉडल जैसी दिख रही हो".."और तुम बिलकुल राजेन्द्र कुमार के ज़माने के हीरो जैसे"..."कितनी गर्मी है तुम्हारे इस शहर में"..."तुम्हारा शहर तो जैसे हमेशा बर्फ से ढंका रहता है"..इन्ही मजाकों ने हमें उस दिन भी उस अन्कम्फर्टबल सिच्युएसन से बाहर निकाला था.
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09-08-2013, 05:40 PM | #7 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
कुछ देर बाद मैंने उसे गेट के पास के एक दूकान से आईसक्रीम लाकर दी और खुद यूनिवर्सिटी की ऑफिस की तरफ बढ़ा.वो वहीँ उसी बेंच पर बैठी रही, वो मेरी लायी हुई मैगज़ीन को उलट पुलट कर देख रही थी.मैं कतार में खड़ा था.वो बार बार मेरी तरफ देखे जा रही थी.जब भी मेरी नज़रें उससे मिलती तब वो फ़ौरन अपनी नज़रें वापस मैगज़ीन की तरफ मोड़ ले रही थी..कुछ देर बाद उसने मैगज़ीन बैग में रख दिया और सिर्फ मुझे देखने लगी...वो शायद कुछ सोच रही थी..उसके चेहरे पर उसका वो रेगूलर एक्स्प्रेसन दिखाई नहीं दे रहा था..उसके उस चेहरे पर कई सारे सवाल टंगे हुए थे जिसे शायद मैंने पढ़ लिया था..और इस बार मैंने अपनी नज़रें दूसरी तरफ मोड़ ली..मैंने तब तक दोबारा उसके तरफ मुड़ के नहीं देखा जब तक मेरा काम नहीं हो गया और मैं कतार से बाहर नहीं आ गया.मैं जब वापस उसके पास आया तो उसने मुझसे सिर्फ इतना ही कहा "मुझे बड़ी प्यास सी लगी है..चलो सामने एक कैंटीन है, मैं कोल्डड्रिंक पियूंगी".कैंटीन की तरफ जाते हुए मैंने पूछा उससे "तुम जानना नहीं चाहती मेरा काम हुआ या नहीं".उसने कुछ भी नहीं कहा...कुछ देर हमारे बीच चुप्पी रही और फिर मैंने ही कहा "देखो शायद हो ही जाए मेरा काम..थोड़ी उम्मीद नज़र तो आई है". मेरे इस जवाब से उसका चेहरा खिल गया था.."सच में??????? वाऊ..ग्रेट...अब तो मैं कोल्डड्रिक के साथ पेस्ट्री भी खाऊँगी..जाओ लेकर आओ मेरे लिए".उसने चहकते हुए मुझसे कहा.
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09-08-2013, 05:40 PM | #8 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
"देखो अभी हमारे पास बहुत समय है..मैं घर पे दीदी को कह के आई हूँ की मैं शाम सात बजे तक घर आउंगी..चलो पहले लाल किला चलते हैं, फिर कनौट प्लेस".कोल्डड्रिंक पीते हुए वो प्लान बना रही थी.वो एक अच्छा खासा गरम दिन था और ऐसे में मुझे घुमने की कोई ख़ास ईच्छा नहीं थी...मैंने कहना चाहा की हम यहीं शाम तक बैठ कर बातें कर सकते हैं..तुम जितने चाहो कोल्डड्रिंक पी लो, मैं रोकूंगा नहीं.लेकिन उसका तर्क था "तुम लाल-किला के इतने नज़दीक आकर वहां नहीं गए तो उसे बहुत बुरा लगेगा...बेईज़्ज़्ती हो जायेगी उसकी".उसका ये कहना था की हम दोनों वहां से लाल किला के लिए निकल गए, उसी तपती दोपहर में..उसने अपना हैट जबरदस्ती मुझे पहना दिया था और खुद अपने सर को उसने अपनी ओढ़नी से उसने ढक लिया था, उसी ओढ़नी से जो कुछ देर पहले उसके बैग के हैंडल में बंधा लटक रहा था...जो मुझे बड़ा अटपटा सा लगा था और जिसे देख मैं इस नतीजे पर पहुंचा था की शायद ये ओढ़नी इसने बैग के श्रृंगार के लिए खरीदा होगा.हम लाल किला पहुँच गए थे...वो मुझे एक गाईड की तरह लाल किले के बारे में बता रही थी, पता नहीं लालकिला के सम्बन्ध में उसकी जानकारी कितनी सच थी और कितनी मनगढ़त..उसकी खुद की कल्पनाएँ...मैंने उसकी बातों को सुनते हुए अनसुना कर दिया और वहां पत्थरों पर जगह जगह लिखे गए डिसक्रिप्सन को पढने लगा.गर्मी के बावजूद वो जगह मुझे अच्छी लग रही थी, किले के अन्दर हवा अच्छी आ रही थी और मेरा दिल तो कह रहा था की बस अब शाम तक यहीं बैठे रह जाएँ...लेकिन उसे कनौट प्लेस जाने की पता नहीं क्यों इतनी उत्सुकता थी.
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09-08-2013, 05:40 PM | #9 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
कनौट प्लेस..एक ऐसा नाम जो न जाने मैं कब से सुनते आ रहा हूँ.उसके मुहं से तो खैर हजारों बार सुन चूका था..मैं भी देखना चाहता था की आखिर वहां क्या ऐसी बात है जो वो उसे दिल्ली की शान कहती है.हमने बस से जाने के बजाये ऑटो से कनौट प्लेस जाना बेहतर समझा.ऑटो पर वो मेरे साथ बैठी मुझे पुरे दिल्ली की जानकारी देते जा रही थी..."ये देखो..इसे दरियागंज मोहल्ला कहते हैं..याद है तुम्हे टी.वी पर आता था...गुमशुदा तलाश केंद्र..दरियागंज...यहाँ किताबों के दूकान होते हैं..देखो वो जो सामने कैफे है न, हम जब भी छुट्टियों में पुरानी दिल्ली आते हैं तो वहां कोल्ड-कॉफ़ी जरूर पीते हैं..ये देखो दिल्ली गेट...ये प्रगति मैदान...यहाँ प्रदर्शनियां लगती हैं..तरह तरह की...और वो देखो उधर..पता है क्या है? किसी का घर है..किसका मालुम है? यह अप्पू का घर है..अप्पू घर..समझे"..इतना कहकर वो जोरों से हँसने लगी..उसकी बात में जो शरारत छिपी थी, उसे मैं समझ गया था और मैं थोड़ा झेंप सा गया. "ये देखो मेरा फेवरिट रोड...बाराखम्बा रोड..लगता है न डिट्टो फोरेन जैसा...दिल्ली है हुजुर ये...हमारी बूटीफुल दिल्ली...इस रोड पर बड़े बड़े कम्पनियों के ऑफिस हैं..सारे बड़े लोग यहीं काम करते हैं...मेरे छोटे वाले अंकल भी पहले यहीं काम करते थे अब अमेरिका चले गए..और वो देखो सामने कनौट प्लेस आ गया..एकदम गोल गोल चक्कर जैसा है ये...पता है ये कितने ज़माने से मेरी दिल्ली की शान है..." वो मुझे ये सब डिटेल में बता रही थी और मैं किसी गंवार बेवकूफ की तरह अपनी बड़ी बड़ी आँखें फाड़ मुहं खोले उसे देख रहा था..उसकी बातों को सुन रहा था...कभी कभी ऑटो से बाहर झाँक कर बड़ी बड़ी बिल्डिंगे देखने लगता तो कभी सड़कें...मैं जब भी उसकी बातों को नज़रंदाज़ कर के इधर उधर देखता था तो वो नाराज़ हो जाती.."मिस्टर..ये बिल्डिंग तुम बाद में भी देख सकते हो....वो सुनो जो मैं कह रही हूँ तुमसे...ये ज्ञान की बात फिर कौन तुमसे कहेगा?" मैं फिर से उसकी बातें सुनने लगता.
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09-08-2013, 05:41 PM | #10 |
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Re: डायरी के पन्ने और तुम ......
ऑटो वाले ने हमें सीधा पालिका बाजार के सामने वाली सड़क के पास छोड़ा था.ऑटो वाले को मैं पैसे देने ही वाला था की उसने मेरा हाथ पकड़ के पीछे खींच लिया.."नो वे मिस्टर..आप मेरे शहर में आये हैं..यहाँ आप पैसे नहीं दे सकते..वरना ये शहर मुझे ये कहकर ताने मारेगा की अपने दोस्त से खर्च करवा दिया तुमने...आपको बस अपने शहर में मेरे लिए पैसे देने की इज़ाज़त है".मैंने भी उसके इस बात का कोई विरोध नहीं किया..और उलटे उससे कहा "अच्छा ये बात है...तो देखो, सामने आइसक्रीम की एक ट्रौली है...चलो मुझे खिलाओ आईसक्रीम".
"वाऊ ये हुई न बात...कम औन!! अभी आईसक्रीम खिलाती हूँ." वो लगभग उछलते कूदते हुए उस आइसक्रीम वाले के पास पहुँच गई थी..और मैं उसके पीछे पीछे..
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