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26-05-2012, 01:25 AM | #1 |
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डार्क सेंट की पाठशाला
मित्रो, यह सूत्र दरअसल एक विचार-वीथी है अर्थात मनोरंजक रूप में ज्ञान का खज़ाना ! यदि आपको कुछ सीखने की तमन्ना हो, तो ही इस पर आगे बढ़ें, अन्यथा मेरी यह 'निजी डायरी' आपके किसी काम की नहीं !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
26-05-2012, 01:28 AM | #2 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
शब्द कभी नहीं मिटते
आचार विचार और सोच यह हमारी आदतों में शुमार है। हम जो कुछ भी सोचते, करते और कहते हैं, उसका प्रतिबिंब हमारे मुख पर अंकित हो जाता है। यदि शब्दों की ही बात करें, तो हमारे मुख से जो शब्द निकलते हैं उसमें असीम सामर्थ्य होता है। ऐेसा सामर्थ्य जिसका मानव जीवन पर पूर्णतया प्रभाव पड़ता है। इसलिए कहा गया है कि धरती-आकाश भले ही मिट जाएं,किंतु उच्चारित शब्द कभी नहीं मिटते। सन 1916 के यूरोपियन युद्ध में इस शब्द शक्ति ने बड़ा कमाल कर दिखाया। फ्रांस के उच्चतम सैनिक अधिकारी जनरल पेंता ने अपने सैनिकों के दिलों में यह विश्वास भर दिया कि जर्मन सैनिक हमारी धरती पर पांव नहीं रख सकते । उनके शब्दों में ऐसी शक्ति, ऐसा सामर्थ्य था कि सैनिकों में अदम्य साहस जाग गया। उनमें उत्साह का ऐसा संचार हुआ कि वे जी जान से लड़ते हुए विजयी हुए। युद्ध में कार्यरत डॉक्टरों का कहना था कि घायल सैनिकों की तो बात ही क्या, जो सैनिक शहीद हो गए थे, उनके चेहरे पर भी विजय की झलक साफ दिखाई दे रही थी। वस्तुत हमारे मुंह से निकला शब्द सन्देशवाहक का काम करता है। यदि उससे प्रेम के शब्द निकलेंगे, तो प्रेम का संदेश देंगे और वैर-विरोध के शब्द निकलेंगे, तो वैर-विरोध का संदेश देंगे। मन में विचारे शब्दों की अपेक्षा मुंह से उच्चारित शब्दों का सामर्थ्य कई गुना अधिक होता है। किसी अच्छे वक्ता के मुंह से अच्छा भाषण सुनकर मनुष्य के चित्त पर जो प्रभाव पड़ता है, वह उसी प्रकार की किसी पुस्तक को पढ़कर नहीं पड़ता। पढ़े और सुने हुए शब्दों में काफी बड़ा अंतर होता है। लिखित शब्द भूले जा सकते हैं, मगर सुने हुए शब्दों को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता । उन शब्दों के पीछे जो विचार शक्ति है, वह शक्ति संपन्न होनी चाहिए। आप सदा मन में यह विचार करें कि मैं यह कार्य कर सकता हूं। मैं इसे करके दिखाऊंगा। मैं इसे अवश्य करूंगा। इन शब्दों को केवल मन में ही न रखें, इसका बार-बार मुंह से उच्चारण भी करें। फिर देखें कि आप वह सब कर सकते हैं या नहीं। यही आपके लिए जीत की सबसे बड़ी सीढ़ी साबित हो जाएगी।
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31-05-2012, 07:17 PM | #3 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
आपके इन शब्दों से तो मुझमे भी अदम्य साहस जाग उठा है !!
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"खैरात में मिली हुई ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती,
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26-05-2012, 01:32 AM | #4 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
समस्याओं का निपटारा करें
जीवन में किसी भी प्रकार की समस्या के सामने आ जाने से अथवा किसी कारणवश कोई मनोवेग या भावना उत्पन्न होने पर तत्काल कुछ कह देना या कर देना दुर्बल मन मस्तिष्क का परिचायक होता है। इसी प्रकार कोई इच्छा आपके मन में जागृत हो रही है, तो उस इच्छा के उत्पन्न होने पर तत्काल उसको बिना जांचे पूरा करने में लग जाना भी एक तरह से अविकसित व्यक्तित्व का ही लक्षण होता है। पहले तो यह ठान लीजिए कि आपको अपने मन का स्वामी बनना है। इसलिए सबसे पहले अपनी समस्या, इच्छा या मनोवेग को अपने विवेक के तराजू पर पूरी संजीदगी के साथ तौलिए। उसके अच्छे और बुरे परिणामों पर भी भरपूर सोचिए। इसके बाद जो नतीजे सामने आते हैं, उन नतीजों के आधार पर कुछ कहिए या कीजिए। यदि आपको लगता है कि उस समय कुछ कहना या करना कतई उचित नहीं है, तो शांत रहिए और मौन धारण कर लीजिए और अपने काम में जुट जाइए। इससे निश्चित तौर पर आपकी इच्छा शक्ति और व्यक्तित्व का विकास होगा। कई बार यह देखा गया है कि लोग अपनी समस्याओं को या कठिनाइयों को एक बार में ही निपटा देना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि वे समस्याओं या कठिनाइयों का समूह देख कर बेहद घबरा जाते हैं और उनके उत्साह पर पानी फिर जाता है। वे बेतरतीब तरीके से उन समस्याओं के समाधान में जुटने का प्रयास करने लगते हैं, जो कतई उचित नहीं है। समस्याओं या कठिनाइयों को निपटाने का सही ढंग यह है कि सबसे पहले उन सभी को कागज पर लिख डालिए। इसके बाद उस समस्या को उसके महत्व के क्रम से लगा लीजिए। यह देखिए कि वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण कौन सी समस्या है, जिसका आपको सबसे पहले निपटारा करना है। फिर उस समस्या को कई छोटे-छोटे भागों में बांटिए और उसके प्रारंभिक हल में जुट जाइए। इस प्रकार एक समय में एक ही समस्या को हल करने में अपना ध्यान लगाइए। इस विधि को अपनाने से आपका मनोबल और उत्साह बढ़ेगा। आप अपना काम और कुशलता से करने के कारण सरलता से सफलता प्राप्त कर सकेंगे।
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26-05-2012, 01:36 AM | #5 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
अहंकार का भूत
अहंकार या घमंड एक ऐसी बीमारी है, जो जिसके भी शरीर में प्रवेश कर जाती है, वह फिर कहीं का नहीं रहता। यह भी तय है कि ऐसे मनुष्य को अपने अहंकार के कारण एक न एक दिन पछताना भी पड़ता है। इसलिए मनुष्य कितना भी महान क्यों न हो जाए या कितना भी बड़ा पद क्यों न पा ले, उसे कभी भी अहंकार रूपी बीमारी को अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए अन्यथा उस मनुष्य का बड़ा होना या बड़ा पद पा लेना कोई मायने नहीं रखता। एक बहुत रोचक कथा से इसे सरल रूप में समझें - एक राजा के दो बेटे थे। बड़ा भाई अहंकारी था, जबकि छोटा भाई मेहनती और परोपकारी। राजा की मौत के बाद बड़ा भाई गद्दी पर बैठा। उसके अत्याचारों से समूची प्रजा परेशान हो गई। उधर छोटा भाई चुपके-चुपके परेशान प्रजा की मदद करता रहता था। कुछ दिनों बाद चारों तरफ छोटे भाई की प्रशंसा होने लगी। जब बड़े भाई को इसका पता लगा, तो उसने छोटे भाई को बुलाकर कहा - "मैं इस राज्य का राजा हूं। मेरी अनुमति के बगैर तुम प्रजा के हित में कोई काम नहीं करोगे।" छोटा भाई बोला - "भैया, प्रजा की सेवा करना तो मेरा धर्म है।" बड़े भाई ने राज्य का एक छोटा सा हिस्सा देकर उसे अलग कर दिया। छोटे भाई ने अपने हिस्से की जमीन में आम का बगीचा लगाया। उसकी देखभाल वह स्वयं करता था। जल्दी ही उसमें फल आने लगे। उस रास्ते से जो भी यात्री जाता, उसके फल पाकर प्रसन्न होता और छोटे भाई को दुआएं देता। बड़े भाई ने सोचा कि वह भी यदि ऐसा ही कोई बगीचा लगाए, तो फल खाकर लोग उसकी भी प्रशंसा करेंगे और छोटे भाई को भूल जाएंगे। यह सोचकर उसने भी राज्य के मुख्य मार्ग के किनारे एक बगीचा लगवाया और उसकी देखभाल के लिए दर्जनों मजदूरों की नियुक्ति की। पेड़ बड़े हो गए, मगर उनमें फल नहीं आए। बड़े भाई ने माली से पूछा - "इनमें फल क्यों नहीं आए?" माली को कोई जवाब नहीं सूझा। तभी एक संत उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने कहा - "इनमें फल नहीं आएंगे, क्योंकि इन पर अहंकार के भूत की छाया पड़ी हुई है।" यह सुनकर बड़ा भाई शर्मिंदा हो गया।
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23-11-2012, 03:28 PM | #6 | |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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26-11-2012, 07:48 PM | #7 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
तर्क-वितर्क में न उलझें
परमात्मा शांत स्वरूप हैं तो फिर इंसान के जीवन में अशांति कहां से आई? यह तो उसने अपने आप पैदा की है। शांति पाने के लिए भटकने की आवश्यकता नहीं है। जीवन से उन दोषों को दूर करो जिसने तुम्हें अशांत कर रखा है। और उन्हें तुम अच्छी तरह से जानते और पहचानते हो? उसके दूर होने पर फिर जीवन में शांति ही शेष बचेगी। उसके लिए फिर कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है। अशांत तो इंसान को उसके दोषों ने कर रखा है। उस पर दोषों को दूर करने के बजाए खोज रहे हैं शांति को। दूसरी चीज परमात्मा ने हमें जो यह जीवन दिया है उसे बेकार की उधेड़बुन में, तर्क-वितर्क में व्यर्थ न करें। इससे कुछ हासिल नहीं होगा। अनमोल समय और शक्ति का सदुपयोग करने पर आपके जीवन में आनंद बढ़ जाएगा। फिर किसी भी कार्य को करने में कठिनाई का सामना नहीं करना पडेþगा। कठिनाइयां आएंगी जरूर पर आपका विश्वास आपका रास्ता आसान कर देगा। लोभ इंसान को कहीं का नहीं छोड़ता। इसलिए इससे बचना चाहिए। इससे छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि अपने-पराए का भाव हृदय से निकाल कर जरूरतमंदों की सेवा करें। वैसे भी परमार्थ का भाव तो हम में कूट-कूट कर भरा है। अगर हम उसे भूल जाएंगे तो फिर यह सब कौन करेगा? हमारे महापुरुषों ने परमार्थ और इस देश के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर दिया। खाओ पिओ और मौज करो यह हमारी संस्कृति ना तो पहले कभी थी और ना ही यह संस्कृति अभी है। बल, बुद्धि और विद्या आदि को दूसरे के हित में लगाना ही परमार्थ कहलाता है। इससे हमारी पहचान बनी है। यह शरीर भोग के लिए नहीं, दूसरों की सेवा के लिए है। मनुष्य को किसी से कुछ लेने की नहीं बल्कि देने की आदत डालनी चाहिए। लेना जड़ता है और देना चेतना है। सेवा करना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। विपत्तियों से घबराएं नहीं। इससे प्रसन्नता बनी रहेगी और वह प्रसन्नता समस्याओं के समाधान की राह दिखाएगी।
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26-11-2012, 07:49 PM | #8 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
पेड़ न काटने का संदेश
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत नामदेव केवल महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश में अपनी विद्वता के लिए पूजे जाते थे। वे दूसरों के प्रति हमेशा ही दया भाव रखते थे। इतना ही नहीं वे पेड़-पौधों के प्रति भी बेहद संवेदनशील रहते थे। संत नामदेव के बचपन की एक घटना है। एक दिन नामदेव जंगल से घर आए तो उनकी धोती पर खून लगा था। जब उनकी मां की नजर खून पर गई तो वे घबरा गईं। आखिर एक मां को अपने बच्चे के कपड़ों पर लगा खून कैसे विचलित नहीं कर सकता? मां तत्काल नामदेव के पास पहुंची और पूछा, नामू तेरी धोती में कितना खून लगा है। क्या हुआ कहीं गिर पड़ा था क्या? नामदेव ने उत्तर दिया, नहीं मां गिरा नहीं था। मैंने कुल्हाड़ी से स्वयं ही अपना पैर छीलकर देखा था। मां ने धोती उठाकर देखा कि पैर में एक जगह की चमड़ी छिली हुई है। इतना होने पर भी नामदेव ऐसे चल रहे थे मानो उन्हें कुछ हुआ ही न हो। नामदेव की मां ने यह देखकर पूछा, नामू तू बड़ा मूर्ख है। कोई अपने पैर पर भला कुल्हाड़ी चलाता हैं? पैर टूट जाए, लंगड़ा हो जाए, घाव पक जाए या सड़ जाए तो पैर कटवाने की नौबत आ जाएगी। मां की बात सुनकर नामदेव बोले, तब पेड़ को भी कुल्हाड़ी से चोट लगती होगी। उस दिन तेरे कहने से मैं पलाश के पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाकर उसकी छाल उतार लाया था। मेरे मन में आया कि अपने पैर की छाल भी उतारकर देखूं। मुझे जैसी लगेगी, वैसी ही पेड़ को भी लगती होगी। नामदेव की बात सुनकर मां को रोना आ गया। वह बोली, नामू तेरे भीतर मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधों को लेकर भी दया का भाव है। तू एक दिन जरूर महान साधु बनेगा। मुझे पता चल गया कि पेड़ों में भी मनुष्य के ही जैसा जीवन है। अपने चोट लगने पर जैसा कष्ट होता है, वैसा ही उनको भी होता है। अब ऐसा गलत काम कभी तुझसे नहीं कराऊंगी। नामदेव की मां ने फिर कभी नामदेव को पेड़ काटने के लिए नहीं कहा।
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01-12-2012, 10:46 PM | #9 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
प्रतिशोध की भावना न रखें
जिस रोज अजमल कसाब को फांसी दी गई उस रोज कुछ इलाकों में दीवाली सा माहौल देखा गया। यह हमारे भीतर छुपी प्रतिशोध की भावना की अभिव्यक्ति थी जो एक आम प्रतिक्रिया है। सदियों से यह दुष्चक्र चला आ रहा है। अपराध और सजा। समाज में कहीं भी अपराध होता है तो सभी के मन में पहला भाव यही उठता है कि अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। फिल्मों में और टीवी सीरियलों में भी यही डायलॉग होता है। इससे एक मनोदशा बन गई है कि सजा देने से अपराध और अपराधी के प्रति हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो गई और जो पीड़ित है उसे न्याय मिल गया। लेकिन क्या वाकई इस सजा से अपराध बंद होते हैं? क्या वह अपराधी आगे कभी अपराध नहीं करता? क्या इससे अन्य अपराधियों के अपराधों पर रोक लगती है। सच्चाई तो यह है कि अपराधियों की संख्या में इजाफा हो रहा है। अदालतों में क्रिमिनल केस के अंबार लगे हुए हैं। जेलों में अब और अपराधियों को रखने की जगह नहीं है। तब भी हम किसी नए तरीके से सोचने को तैयार नहीं हैं। ओशो ने इस स्थिति पर गहरा विचार किया है और उनकी सोच हमारी परंपरागत सोच से हटकर है। वे कहते हैं कि सजा देने की पूरी अवधारणा ही अमानवीय है। अपराधी को कारागृहों की बजाय मनोचिकित्सा के अस्पतालों की जरूरत है। एक तो अपराधी उसी समाज का एक हिस्सा है जिसमें हम जीते हैं। तो इस पर भी सोचना चाहिए कि यह समाज ऐसा क्यों है? इसे इतनी भारी संख्या में पुलिस, अदालत और वकीलों की जरूरत क्यों है? जिस समाज मे कारागृह छोटे पड़ रहे हैं,क्योंकि अपराधी बढ़ते जा रहे हैं,क्या उस समाज की मानसिक चिकित्सा करने की जरूरत नहीं है? ये अपराधी कहां से आते हैं? परिवार से। अगर फल जहरीला हुआ तो हम बीज की जांच करते हैं कि उसमें तो कोई खराबी नहीं है। फिर जब बच्चे हिंसक हो रहे हैं तो क्या मां-बाप की मानसिकता की जांच नहीं करनी चाहिए? इस पर गौर करना ही चाहिए।
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26-05-2012, 01:39 AM | #10 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सभी मौसम अच्छे बशर्ते ...
एक गांव में एक सेठ रहते थे। वे काफी विचारवान थे और हर फैसला काफी सोच समझ कर किया करते थे। जब सेठ का बेटा जवान हुआ, तो सेठ ने निश्चय किया कि वह अपने पुत्र के लिए ऐसी समझदार वधू लाएंगे, जिसके पास हर समस्या का समाधान हो। वे अपने विवेक के साथ समझदार लड़की ढूंढने में जुट गए। सेठ जब भी किसी लड़की को देखने जाते, तो उससे प्रश्न करते कि सर्दी, गर्मी और बरसात में सबसे अच्छा मौसम कौन सा होता है? एक लड़की ने सेठ को उत्तर दिया - "गर्मी का मौसम सबसे अच्छा होता है। उसमें हम लोग पहाड़ पर घूमने जाया करते हैं। सुबह-सुबह टहलने में भी काफी सुख मिलता है।" दूसरी लड़की से मिले, तो उससे भी वही सवाल किया। उस लड़की ने कहा - "मुझे तो सर्दी का मौसम पसंद है। इस मौसम में तरह - तरह के पकवान बनते हैं। हम जो भी खाते हैं, सब आसानी से पच जाता है। इस मौसम में गर्म कपड़ों का अपना ही सुख है।" सेठ तीसरी लड़की से मिले और फिर वही सवाल दागा, तो उस लड़की ने कहा - "मुझे तो वर्षा ऋतु सबसे ज्यादा पसंद है। इस मौसम में पृथ्वी पर चारों ओर हरियाली होती है। खेतों-खलिहानों से मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू आती है। कभी-कभी तो उसमें इतनी महक होती है कि उसे खाने की इच्छा होती है। आसमान में इंद्रधनुष देखकर मन बेहद आनंदित हो जाता है। इसके अलावा बारिश में भीगने का अपना ही मजा है।" सेठ को तीनों लड़कियों की बातें अच्छी तो लगीं, पर वह उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। अपनी इच्छा के अनुसार जवाब न मिलने के कारण वह थोड़ा निराश भी हो गए और उन्होंने सोचा कि शायद वे अपने बेटे के लिए अपने विचारों वाली बहू नहीं ढूंढ पाएंगे। तभी अचानक एक दिन वे अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात एक लड़की से हुई। उससे भी उन्होंने वही सवाल दोहराया। लड़की ने जवाब दिया - "अगर हमारा मन और शरीर स्वस्थ है, तो सभी मौसम अच्छे हैं। अगर हमारा तन-मन स्वस्थ नहीं है, तो हर मौसम बेकार है।" सेठ इस उत्तर से बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने उस लड़की को बहू बना लिया।
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