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16-06-2018, 05:41 PM | #1 |
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जब लंकाधीश रावण पुरोहित बना
जब लंकाधीश रावण पुरोहित बना
(अद्भुत प्रसंग, भावविभोर करने वाला प्रसंग) ------------------------------------------- वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है, पर तमिल भाषा में लिखी *महर्षि कम्बन की #इरामावतारम्'* मे यह कथा है। रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं, अति-मानववादी भी था..। उसे भविष्य का पता था..। वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए असंभव है..। जब श्री राम ने खर-दूषण का सहज ही बध कर दिया तब तुलसी कृत मानस में भी रावण के मन भाव लिखे हैं-- खर दूसन मो सम बलवंता । तिनहि को मरहि बिनु भगवंता।। रावण के पास जामवंत जी को #आचार्यत्व का निमंत्रण देने के लिए लंका भेजा गया..। जामवन्त जी दीर्घाकार थे, वे आकार में कुम्भकर्ण से तनिक ही छोटे थे। लंका में प्रहरी भी हाथ जोड़कर मार्ग दिखा रहे थे। इस प्रकार जामवन्त को किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ा। स्वयं रावण को उन्हें राजद्वार पर अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्त ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं अभिनंदन का पात्र नहीं हूँ। मैं वनवासी राम का दूत बनकर आया हूँ। उन्होंने तुम्हें सादर प्रणाम कहा है। रावण ने सविनय कहा– "आप हमारे पितामह के भाई हैं। इस नाते आप हमारे पूज्य हैं। आप कृपया आसन ग्रहण करें। यदि आप मेरा निवेदन स्वीकार कर लेंगे, तभी संभवतः मैं भी आपका संदेश सावधानी से सुन सकूंगा।" >>>
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
16-06-2018, 05:43 PM | #2 |
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Re: जब लंकाधीश रावण पुरोहित बना
जामवन्त ने कोई आपत्ति नहीं की। उन्होंने आसन ग्रहण किया। रावण ने भी अपना स्थान ग्रहण किया। तदुपरान्त जामवन्त ने पुनः सुनाया कि वनवासी राम ने सागर-सेतु निर्माण उपरांत अब यथाशीघ्र महेश्व-लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं। इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचर्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है।
" मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूँ।" प्रणाम प्रतिक्रिया, अभिव्यक्ति उपरान्त रावण ने मुस्कान भरे स्वर में पूछ ही लिया "क्या राम द्वारा महेश्व-लिंग-विग्रह स्थापना लंका-विजय की कामना से किया जा रहा है ?" "बिल्कुल ठीक। श्रीराम की महेश्वर के चरणों में पूर्ण भक्ति है. I" जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना है और आचार्य बनने योग्य जाना है। क्या रावण इतना अधिक मूर्ख कहलाना चाहेगा कि वह भारतवर्ष के प्रथम प्रशंसित महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार कर दे? रावण ने अपने आपको संभाल कर कहा –" आप पधारें। यजमान उचित अधिकारी है। उसे अपने दूत को संरक्षण देना आता है। राम से कहिएगा कि मैंने उसका आचार्यत्व स्वीकार किया।" जामवन्त को विदा करने के तत्काल उपरान्त लंकेश ने सेवकों को आवश्यक सामग्री संग्रह करने हेतु आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचे, जो आवश्यक उपकरण यजमान उपलब्ध न कर सके जुटाना आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है। रावण जानता है कि वनवासी राम के पास क्या है और क्या होना चाहिए। >>>
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16-06-2018, 05:44 PM | #3 |
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Re: जब लंकाधीश रावण पुरोहित बना
अशोक उद्यान पहुँचते ही रावण ने सीता से कहा कि राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है।
" .यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का भी होता है। तुम्हें विदित है कि अर्द्धांगिनी के बिना गृहस्थ के सभी अनुष्ठान अपूर्ण रहते हैं। विमान आ रहा है, उस पर बैठ जाना। ध्यान रहे कि तुम वहाँ भी रावण के अधीन ही रहोगी। अनुष्ठान समापन उपरान्त यहाँ आने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। " स्वामी का आचार्य अर्थात स्वयं का आचार्य। यह जान जानकी जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया। . स्वस्थ कण्ठ से "सौभाग्यवती भव" कहते रावण ने दोनों हाथ उठाकर भरपूर आशीर्वाद दिया। सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरे । " आदेश मिलने पर आना" कहकर सीता को उन्होंने विमान में ही छोड़ा और स्वयं राम के सम्मुख पहुँचे । जामवन्त से संदेश पाकर भाई, मित्र और सेना सहित श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे। सम्मुख होते ही वनवासी राम आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। " दीर्घायु भव ! लंका विजयी भव ! " दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्द ने सबको चौंका दिया । सुग्रीव ही नहीं विभीषण की भी उन्होंने उपेक्षा कर दी। जैसे वे वहाँ हों ही नहीं। भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा " यजमान ! अर्द्धांगिनी कहाँ है ? उन्हें यथास्थान आसन दें।" >>>
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16-06-2018, 05:46 PM | #4 |
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Re: जब लंकाधीश रावण पुरोहित बना
श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर अत्यन्त विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्याचार्य सर्वोत्कृष्ट विकल्प के अभाव में अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान सम्पादन कर सकते हैं।
" अवश्य-अवश्य, किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं। यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था। इन सबके अतिरिक्त तुम संन्यासी भी नहीं हो और पत्नीहीन वानप्रस्थ का भी तुमने व्रत नहीं लिया है। इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान तुम कैसे कर सकते हो ?" " कोई उपाय आचार्य ?" " आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण अनुष्ठान उपरान्त वापस ले जाते हैं। स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर सन्निकट पुष्पक विमान में यजमान पत्नी विराजमान हैं।" श्रीराम ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाते हुए मौन भाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया। श्री रामादेश के परिपालन में. विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीता सहित लौटे। " अर्द्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्द्ध यजमान ..." आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया। गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा - लिंग विग्रह ? यजमान ने निवेदन किया कि उसे लेने गत रात्रि के प्रथम प्रहर से पवनपुत्र कैलाश गए हुए हैं। अभी तक लौटे नहीं हैं। आते ही होंगे। आचार्य ने आदेश दे दिया - " विलम्ब नहीं किया जा सकता। उत्तम मुहूर्त उपस्थित है। इसलिए अविलम्ब यजमान-पत्नी बालू का लिंग-विग्रह स्वयं बना ले।" जनक नंदिनी ने स्वयं के कर-कमलों से समुद्र तट की आर्द्र रेणुकाओं से आचार्य के निर्देशानुसार यथेष्ट लिंग-विग्रह निर्मित किया । यजमान द्वारा रेणुकाओं का आधार पीठ बनाया गया। श्री सीताराम ने वही महेश्वर लिंग-विग्रह स्थापित किया। आचार्य ने परिपूर्ण विधि-विधान के साथ अनुष्ठान सम्पन्न कराया।. अब आती है बारी आचार्य की दक्षिणा की.. श्रीराम ने पूछा - "आपकी दक्षिणा ?" >>>
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16-06-2018, 05:47 PM | #5 |
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Re: जब लंकाधीश रावण पुरोहित बना
पुनः एक बार सभी को चौंकाया। ... आचार्य के शब्दों ने।
" घबराओ नहीं यजमान। स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति नहीं हो सकती। आचार्य जानते हैं कि उनका यजमान वर्तमान में वनवासी है ..." " लेकिन फिर भी राम अपने आचार्य की जो भी माँग हो उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता है।" "आचार्य जब मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे ....." आचार्य ने अपनी दक्षिणा मांगी। "ऐसा ही होगा आचार्य।" यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी-- “रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाई पर वचन न जाई ।” यह दृश्य वार्ता देख सुनकर उपस्थित समस्त जन समुदाय के नयनाभिराम प्रेमाश्रुजल से भर गए। सभी ने एक साथ एक स्वर से सच्ची श्रद्धा के साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया । रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञ-कार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है ? (रामेश्वरम् देवस्थान में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी ) ****
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