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10-11-2012, 03:10 PM | #1 |
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आधे-अधूरे - मोहन राकेश
का.सू.वा. (काले सूटवाला आदमी) जो कि पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन तथा पुरुष चार की भूमिकाओं में भी है। उम्र लगभग उनचास-पचास। चेहरे की शिष्टता में एक व्यंग्य। पुरुष एक के रूप में वेशान्तर : पतलून-कमीज। जिंदगी से अपनी लड़ाई हार चुकने की छटपटाहट लिए। पुरुष दो के रूप में : पतलून और बंद गले का कोट। अपने आपसे संतुष्ट, फिर भी आशंकित। पुरुष तीन के रूप में : पतलून-टीशर्ट। हाथ में सिगरेट का डिब्बा। लगातार सिगरेट पीता। अपनी सुविधा के लिए जीने का दर्शन पूरे हाव-भाव में। पुरुष चार के रूप में : पतलून के साथ पुरानी कोट का लंबा कोट। चेहरे पर बुजु़र्ग होने का खासा एहसास। काइयाँपन।
स्त्री। उम्र चालीस को छूती। चेहरे पर यौवन की चमक और चाह फिर भी शेष। ब्लाउज और साड़ी साधारण होते हुए भी सुरुचिपूर्ण। दूसरी साड़ी विशेष अवसर की। बड़ी लड़की। उम्र बीस से ऊपर नहीं। भाव में परिस्थितियों से संघर्ष का अवसाद और उतावलापन। कभी-कभी उम्र से बढ़ कर बड़प्पन। साड़ी : माँ से साधारण। पूरे व्यक्तित्व में एक बिखराव। छोटी लड़की। उम्र बारह और तेरह के बीच। भाव, स्वर, चाल-हर चीज में विद्रोह। फ्रॉक चुस्त, पर एक मोजे में सूराख। लड़का। उम्र इक्कीस के आसपास। पतलून के अंदर दबी भड़कीली बुश्शर्ट धुल-धुल कर घिसी हुई। चेहरे से, यहाँ तक कि हँसी से भी, झलकती खास तरह की कड़वाहट। |
10-11-2012, 03:11 PM | #2 |
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Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
स्थान : मध्य-वित्तीय स्तर से ढह कर निम्न-मध्य-वित्तीय स्तर पर आया एक घर।
सब रूपों में इस्तेमाल होनेवाला वह कमरा जिसमें उस घर के व्यतीत स्तर के कई एक टूटते अवशेष - सोफा-सेट , डाइनिंग टेबल, कबर्ड और ड्रेसिंग टेबल आदि -किसी-न-किसी तरह अपने लिए जगह बनाए हैं। जो कुछ भी है, वह अपनी अपेक्षाओं के अनुसार न हो कर कमरे की सीमाओं के अनुसार एक और ही अनुपात से है। एक चीज का दूसरी चीज से रिश्ता तात्कालिक सुविधा की माँग के कारण लगभग टूट चुका है। फिर भी लगता है कि वह सुविधा कई तरह की असुविधाओं से समझौता करके की गई है - बल्कि कुछ असुविधाओं में ही सुविधा खोजने की कोशिश की गई है। सामान में कहीं एक तिपाई , कहीं दो-एक मोढ़े, कहीं फटी-पुरानी किताबों का एक शेल्फ और कहीं पढ़ने की एक मेज-कुरसी भी है। गद्दे,परदे, मेजपोश और पलंगपोश अगर हैं, तो इस तरह घिसे, फटे या सिले हुए की समझ में नहीं आता कि उनका न होना क्या होने से बेहतर नहीं था ? तीन दरवाजे तीन तरफ से कमरे में झाँकते हैं। एक दरवाजा कमरे को पिछले अहाते से जोड़ता है , एक अंदर के कमरे से और एक बाहर की दुनिया से। बाहर का एक रास्ता अहाते से हो कर भी है। रसोई में भी अहाते से हो कर जाना होता है। परदा उठने पर सबसे पहले चाय पीने के बाद डाइनिंग टेबल पर छोड़ा गया अधटूटा टी-सेट आलोकित होता है। फिर फटी किताबों और टूटी कुर्सियों आदि में से एक-एक। कुछ सेकंड बाद प्रकाश सोफे के उस भाग पर केंद्रित हो जाता है जहाँ बैठा काले सूट वाला आदमी सिगार के कश खींच रहा है। उसके सामने रहते प्रकाश उसी तरह सीमित रहता है , पर बीच-बीच में कभी यह कोना और कभी वह कोना साथ आलोकित हो उठता है। |
10-11-2012, 03:13 PM | #3 |
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Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
का.सू.वा. : (कुछ अंतर्मुख भाव से सिगार की राख झाड़ता) फिर एक बार, फिर से वही शुरुआत...।
जैसे कोशिश से अपने को एक दायित्व के लिए तैयार करके सोफे से उठ पड़ता है। मैं नहीं जानता आप क्या समझ रहे हैं मैं कौन हूँ और क्या आशा कर रहे हैं मैं क्या कहने जा रहा हूँ। आप शायद सोचते हों कि मैं इस नाटक में कोई एक निश्चित इकाई हूँ - अभिनेता, प्रस्तुतकर्ता, व्यवस्थापक या कुछ और; परंतु मैं अपने संबंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकता - उसी तरह जैसे इस नाटक के संबंध में नहीं कह सकता। क्योंकि यह नाटक भी अपने में मेरी ही तरह अनिश्चित है। अनिश्चित होने का कारण यह है कि...परंतु कारण की बात करना बेकार है। कारण हर चीज का कुछ-न-कुछ होता है, हालाँकि यह आवश्यक नहीं कि जो कारण दिया जाए, वास्तविक कारण वही हो। और जब मैं अपने ही संबंध में निश्चित नहीं हूँ, तो और किसी चीज के कारण-अकारण के संबंध में निश्चित कैसे हो सकता हूँ ? सिगार के कश खींचता पल-भर सोचता-सा खड़ा रहता है। मैं वास्तव में कौन हूँ ? - यह एक ऐसा सवाल है जिसका सामना करना इधर आ कर मैंने छोड़ दिया है जो मैं इस मंच पर हूँ, वह यहाँ से बाहर नहीं हूँ और जो बाहर हूँ...ख़ैर, इसमें आपकी क्या दिलचस्पी हो सकती है कि मैं यहाँ से बाहर क्या हूँ ? शायद अपने बारे में इतना कह देना ही काफी है कि सड़क के फुटपाथ पर चलते आप अचानक जिस आदमी से टकरा जाते हैं, वह आदमी मैं हूँ। आप सिर्फ घूर कर मुझे देख लेते हैं - इसके अलावा मुझसे कोई मतलब नहीं रखते कि मैं कहाँ रहता हूँ, क्या काम करता हूँ, किस-किससे मिलता हूँ और किन-किन परिस्थितियों में जीता हूँ। आप मतलब नहीं रखते क्योंकि मैं भी आपसे मतलब नहीं रखता, और टकराने के क्षण में आप मेरे लिए वही होते हैं जो मैं आपके लिए होता हूँ। इसलिए जहाँ इस समय मैं खड़ा हूँ, वहाँ मेरी जगह आप भी हो सकते थे। दो टकरानेवाले व्यक्ति होने के नाते आपमें और मुझमें, बहुत बड़ी समानता है। यही समानता आपमें और उसमें, उसमें और उस दूसरे में, उस दूसरे में और मुझमें...बहरहाल इस गणित की पहेली में कुछ नहीं रखा है। बात इतनी है कि विभाजित हो कर मैं किसी-न-किसी अंश में आपमें से हर-एक व्यक्ति हूँ और यही कारण है कि नाटक के बाहर हो या अंदर, मेरी कोई भी एक निश्चित भूमिका नहीं है। कमरे के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में टहलने लगता है। मैंने कहा था, यह नाटक भी मेरी ही तरह अनिश्चित है। उसका कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही सब कुछ इसमें निर्धारित या अनिर्धारित है। एक विशेष परिवार, उसकी विशेष परिस्थितियाँ ! परिवार दूसरा होने से परिस्थितियाँ बदल जातीं, मैं वही रहता। इसी तरह सब कुछ निर्धारित करता। इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलते - या वह स्त्री मेरी भूमिका ले लेती और मैं उसकी भूमिका ले कर उसे झेलता। नाटक अंत तक फिर भी इतना ही अनिश्चित बना रहता और यह निर्णय करना इतना ही कठिन होता कि इसमें मुख्य भूमिका किसकी थी - मेरी, उस स्त्री की, परिस्थितियों की, या तीनों के बीच से उठते कुछ सवालों की। फिर दर्शकों के सामने आ कर खड़ा हो जाता है। सिगार मुँह में लिए पल-भर ऊपर की तरफ देखता रहता है। फिर ' हँह ' के स्वर के साथ सिगार मुँह से निकाल कर उसकी राख झाड़ता है। पर हो सकता है, मैं एक अनिश्चित नाटक में एक अनिश्चित पात्र होने की सफाई-भर पेश कर रहा हूँ। हो सकता है, यह नाटक एक निश्चित रूप ले सकता हो - किन्हीं पात्रों को निकाल देने से, दो-एक पात्र और जोड़ देने से, कुछ भूमिकाएँ बदल देने से, या परिस्थितियों में थोड़ा हेर-फेर कर देने से। हो सकता है, आप पूरा देखने के बाद, या उससे पहले ही, कुछ सुझाव दे सकें इस संबंध में। इस अनिश्चित पात्र से आपकी भेंट इस बीच कई बार होगी...। हलके अभिवादन के रूप में सिर हिलाता है जिसके साथ ही उसकी आकृति धीरे-धीरे धुँधला कर अँधेरे में गुम हो जाती है। उसके बाद कमरे के अलग-अलग कोने एक-एक करके आलोकित होते हैं और एक आलोक व्यवस्था में मिल जाते हैं। कमरा खाली है। तिपाई पर खुला हुआ हाई स्कूल का बैग पड़ा है जिसमें आधी कापियाँ और किताबें बाहर बिखरी हैं। सोफे पर दो-एक पुराने मैगजीन ,एक कैंची और कुछ कटी-अधकटी तस्वीरें रखी हैं। एक कुरसी की पीठ पर उतरा हुआ पाजामा झूल रहा है। स्त्री कई-कुछ सँभाले बाहर से आती हैं। कई-कुछ में कुछ घर का है , कुछ दफ्तर का , कुछ अपना। चेहरे पर दिन-भर के काम की थकान है और इतनी चीजों के साथ चल कर आने की उलझन। आ कर सामान कुरसी पर रखती हुई वह पूरे कमरे पर एक नजर डाल लेती है। |
10-11-2012, 03:14 PM | #4 |
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Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
स्त्री: (थकान निकालनेवाले स्वर में) ओह् होह् होह् होह् ! (कुछ हताश भाव से) फिर घर में कोई नहीं।(अंदर के दरवाज़े की तरफ देख कर) किन्नी !...होगी ही नहीं, जवाब कहाँ से दे ? (तिपाई पर पड़े बैग को देख कर) यह हाल है इसका! (बैग की एक किताब उठा कर) फिर फाड़ लाई एक और किताब ! जरा शरम नहीं कि रोज-रोज कहाँ से पैसे आ सकते हैं नयी किताबों के लिए ! (सोफे के पास आ कर) और अशोक बाबू यह कमाई करते रहे हैं दिन-भर ! (तस्वीर उठा कर देखती) एलिजाबेथ टेलर...आड्रेबर्न...शर्ले मैक्लेन !
तस्वीरें वापस रख कर बैठने लगती है कि नजर झूलते पाजामे पर जा पड़ती है। (उस तरफ जाती) बड़े साहब वहाँ अपनी कारगुजारी कर गए हैं। पाजामे को मरे जानवर की तरह उठा कर देखती है और कोने में फेंकने को हो कर फिर एक झटके के साथ उसे तहाने लगती है। दिन-भर घर पर रह कर आदमी और कुछ नहीं, तो अपने कपड़े तो ठिकाने पर रख ही सकता है। पाजामे कबर्ड में रखने से पहले डाइनिंग टेबल पर पड़े चाय के सामान को देख कर और खीज जाती है , पाजामे को कुरसी पर पटक देती है और प्यालियाँ वैगरह ट्रे में रखने लगती है। इतना तक नहीं कि चाय पी है, तो बरतन रसोईघर में छोड़ आएँ। मैं ही आ कर उठाऊँ, तो उठाऊँ...। ट्रे उठा कर अहाते के दरवाजे की तरफ बढ़ती ही है कि पुरुष एक उधर से आ जाता है। स्त्री ठिठक कर सीधे उसकी आँखों में देखती है , पर वह उससे आँखें बचाता पास से निकल कर थोड़ा आगे आ जाता है। पुरुष एक : आ गईं दफ्तर से ? लगता है, आज बस जल्दी मिल गई। स्त्री : (ट्रे वापस मेज पर रखती) यह अच्छा है कि दफ्तर से आओ, तो कोई घर पर दिखे ही नहीं। कहाँ चले गए थे तुम ? पुरुष एक : कहीं नहीं। यहीं बाहर था - मार्केट में। स्त्री : (उसका पाजामा हाथ में ले कर) पता नहीं यह क्या तरीका है इस घर का ? रोज आने पर पचास चीजें यहाँ-वहाँ बिखरी मिलती हैं। पुरुष एक : (हाथ बढ़ा कर) लाओ, मुझे दे दो। स्त्री : (दूसरे पाजामे को झाड़ कर फिर से तहाती हुई) अब क्या देदूँ ! पहले खुद भी तो देख सकते थे। गुस्से में कबर्ड खोल कर पाजामे को जैसे उसमें कैद कर देती है। पुरुष एक फालतू-सा इधर-उधर देखता है , फिर एक कुरसी की पीठ पर हाथ रख लेता है। (कबर्ड के पास आ कर ट्रे उठाती) चाय किस-किसने पी थी? पुरुष एक : (अपराधी स्वर में) अकेले मैंने। स्त्री : तो अकेले के लिए क्या जरूरी था कि पूरी ट्रे की ट्रे ... किन्नी को दूध दे दिया था ? पुरुष एक : वह मुझे दिखी ही नहीं अब तक। स्त्री : (ट्रे ले कर चलती है) दिखे तब न जो घर पर रहे कोई। अहाते के दरवाजे से हो कर पीछे रसोईघर में चली जाती है। पुरुष एक लंबी 'हूँ' के साथ कुरसी को झुलाने लगता है। स्त्री पल्ले से हाथ पोंछती रसोईघर से वापस आती है। पुरुष एक : मैं बस थोड़ी देर के लिए निकला था बाहर। स्त्री : (और चीजों को समेटने में व्यस्त) मुझे क्या पता कितनी देर के लिए निकले थे।...वह आज फिर आएगा अभी थोड़ी देर में। तब तो घर पर रहोगे तुम ? पुरुष एक : (हाथ रोक कर) कौन आएगा ? सिंघानिया ? स्त्री : उसे किसी के यहाँ के खाना खाने आना है इधर। पाँच मिनट के लिए यहाँ भी आएगा। पुरुष एक फिर उसी तरह 'हूँ' के साथ कुरसी को झुलाने लगता है। : मुझे यह आदत अच्छी नहीं लगती तुम्हारी। कितनी बार कह चुकी हूँ। पुरुष एक कुरसी से हाथ हटा लेता है। पुरुष एक : तुम्हीं ने कहा होगा आने के लिए। स्त्री : कहना फर्ज नहीं बनता मेरा ? आखिर बॉस है मेरा। पुरुष एक : बॉस का मतलब यह थोड़े ही है न कि...? स्त्री : तुम ज्यादा जानते हो ? काम तो मैं ही करती हूँ उसके मातहत। पुरुष एक फिर से कुरसी को झुलाने को हो कर एकाएक हाथ हटा लेता है। पुरुष एक : किस वक्त आएगा ? स्त्री : पता नहीं जब गुजरेगा इधर से। पुरुष एक : (छिले हुए स्वर में) यह अच्छा है...। स्त्री : लोगों को ईर्ष्या है मुझसे, कि दो बार मेरे यहाँ आ चुका है। आज तीसरी बार आएगा। |
10-11-2012, 03:14 PM | #5 |
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Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
कैंची , मैगजीन और तस्वीरें समेट कर पढ़ने की मेज की दराज में रख देती है। किताबें बैग में बंद करके उसे एक तरफ सीधा खड़ा कर देती है।
पुरुष एक : तो लोगों को भी पता है वह आता है यहाँ ? स्त्री : (एक तीखी नजर डाल कर) क्यों, बुरी बात है ? पुरुष एक : मैंने कहा है बुरी बात है ? मैं तो बल्कि कहता हूँ, अच्छी बात है। स्त्री : तुम जो कहते हो, उसका सब मतलब समझ में आता है मेरी। पुरुष एक : तो अच्छा यही है कि मैं कुछ न कह कर चुप रहा करूँ। अगर चुप रहता हूँ, तो...। स्त्री : तुम चुप रहते हो। और न कोई। अपनी चीजें कुरसी से उठा कर उन्हें यथास्थान रखने लगती है। पुरुष एक : पहले जब-जब आया है वह, मैंने कुछ कहा है तुमसे ? स्त्री : अपनी शरम के मारे ! कि दोनों बार तुम घर पर नहीं रहे। पुरुष एक : उसमें क्या है ! आदमी को काम नहीं हो सकता बाहर ? स्त्री : (व्यस्त) वह तो आज भी हो जाएगा तुम्हें। पुरुष एक : (ओछा पड़कर) जाना तो है आज भी मुझे...पर तुम जरूरी समझो मेरा यहाँ रहना, तो...। स्त्री : मेरे लिए रुकने की जरूरत नहीं। (यह देखती कि कमरे में और कुछ तो करने को शेष नहीं) तुम्हें और प्याली चाहिए चाय की ? मैं बना रही हूँ अपने लिए। पुरुष एक : बना रही हो तो बना लेना एक मेरे लिए भी। स्त्री अहाते के दरवाजे की तरफ जाने लगती है। : सुनो। स्त्री रुक कर उसकी तरफ देखती है। : उसका क्या हुआ...वह जो हड़ताल होनेवाली थी तुम्हारे दफ्तर में ? स्त्री : जब होगी पता चल ही जाएगा तुम्हें। पुरुष एक : पर होगी भी ? स्त्री : तुम उसी के इंतजार में हो क्या ? चली जाती है। पुरुष एक सिर हिला कर इधर-उधर देखता है कि अब वह अपने को कैसे व्यस्तरख सकता है। फिर जैसे याद हो आने से शाम का अखबार जेब से निकाल कर खोल लेता है। हर सुर्खी पढ़ने के साथ उसके चेहरे का भाव और तरह का हो जाता है- उत्साहपूर्ण , व्यंग्यपूर्ण,तनाव-भरा या पस्त। साथ मुँह से 'बहुत अच्छे! 'मार दिया, 'लो' और 'अब'? जैसे शब्द निकल पड़ते हैं। स्त्री रसोईघर से लौट कर आती है। |
10-11-2012, 03:15 PM | #6 |
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Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
पुरुष एक : (अखबार हटा कर स्त्री को देखता) हड़तालें तो आजकल सभी जगह हो रही हैं। इसमें देखो...।
स्त्री : (उस ओर से विरक्त) तुम्हें सचमुच कहीं जाना है क्या? कहाँ जाने की बात कर रहे थे तुम? पुरुष एक : सोच रहा था, जुनेजा के यहाँ हो आता। स्त्री : ओऽऽ जुनेजा के यहाँ !...हो आओ। पुरुष एक : फिलहाल उसे देने के लिए पैसा नहीं है, तो कम-से-कम मुँह तो उसे दिखाते रहना चाहिए। स्त्री : हाँऽऽ, दिख आओ मुँह जा कर। पुरुष एक : वह छह महीने बाहर रह कर आया है। हो सकता है, कोईनया कारोबार चलाने की सोच रहा हो जिसमें मेरे लिए... स्त्री : तुम्हारे लिए तो पता नहीं क्या-क्या करेगा वह जिंदगी में! पहले ही कुछ कम नहीं किया है। झाड़न ले कर कुरसियों वगैरह को झड़ना शुरू कर देती है। : इतनी गर्द भरी रहती है हर वक्त इस घर में ! पता नहीं कहाँ से चली आती है ! पुरुष एक : तुम नाहक कोसती रहती हो उस आदमी को। उसने तो अपनी तरफ से हमेशा मेरी मदद ही की है ! स्त्री : न करता मदद, तो उतना नुकसान तो न होता जितना उसके मदद करने से हुआ है। पुरुष एक : (कुढ़ कर सोफे पर बैठता) तो नहीं जाता मै ! अपने अकेले के लिए जाना है मुझे! अब तक तकदीर ने साथ नहीं दिया तो इसका यह मतलब तो नहीं कि... स्त्री : यहाँ से उठ जाओ। मुझे झाड़ लेने दो जरा। पुरुष एक उठ कर फिर बैठने की प्रतीक्षा में खड़ा रहता है। : उस कुरसी पर चले जाओ। वह साफ हो गई है। पुरुष एक गाली देती नजर से उसे देख कर उस कुरसी पर जा बैठता है। : (बड़बड़ाती) पहली बार प्रेस में जो हुआ सो हुआ। दूसरी बार फिर क्या हो गया ? वही पैसा जुनेजा ने लगाया, वही तुमने गाया। एक ही फैक्टरी लगी, एक ही जगह जमा-खर्च हुआ। फिर भी तकदीर ने उसका साथ दे दिया, तुम्हारा नहीं दिया। पुरुष एक : (गुस्से से उठता है) तुम तो ऐसी बात करती हो जैसे... स्त्री : खड़े क्यों हो गए ? पुरुष एक : क्यों, मैं खड़ा नहीं हो सकता ? स्त्री : (हलका वक्फा ले कर तिरस्कारपूर्ण स्वर में) हो तो सकते हो,पर घर के अंदर ही। पुरुष एक : (किसी तरह गुस्सा निगलता) मेरी जगह तुम हिस्सेदार होती न फैक्टरी की, तो तुम्हें पता चल जाता कि... स्त्री : पता तो मुझे तब भी चल ही रहा है। नहीं चल रहा ? पुरुष एक : (बड़बड़ाता) उन दिनों पैसा लिया था फैक्टरी से ! जो कुछ लगाया था, यह सारा तो शुरू में ही निकाल-निकाल कर खा लिया और.... स्त्री : किसने खा लिया ? मैंने ? पुरुष एक : नहीं, मैंने ! पता है कितना खर्च था उन दिनों इस घर का, चार सौ रुपए महीने का मकान था। टैक्सियों में आना-जाना होता था। किस्तों पर फ्रिज खरीदा गया था। लड़के-लड़की की कान्वेंट की फीसें जाती थीं... । स्त्री : शराब आती थी। दावतें उड़ती थीं। उन सब पर पैसा तो खर्च होता ही था। पुरुष एक : तुम लड़ना चाहती हो ? स्त्री : तुम लड़ भी सकते हो इस वक्त, ताकि उसी बहाने चले जाओ घर से।....वह आदमी आएगा, तो जाने क्या सोचेगा कि क्यों हर बार इसके आदमी को कोई-न-कोई काम हो जाता है बाहर। शायद समझे कि मैं ही जान-बूझ कर भेज देती हूँ। |
10-11-2012, 03:32 PM | #7 |
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Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
: कब तक...? क्यों...?
फिर समझ में नहीं आता कि क्या करना है। ड्रेसिंग टेबल की कुछ चीजों को ऐसे ही उठाती-रखती है। क्रीम की शीशी हाथ में आ जाने पर पल-भर उसे देखती रहती है। फिर खोल लेती है। : घर दफ्तर...घर दफ्तर ! क्रीम चेहरे पर लगते हुए ध्यान आता है कि वह इस वक्त नहीं लगानी थी। उसे एक और शीशी उठा लेती है। उसमें से लोशन रूई पर ले कर सोचती है। कहाँ लगाए और कहीं का नहीं सूझता ,तो उससे कलाइयाँ साफ करने लगती है। : सोचो...सोचो। ध्यान सिर के बालों में अटक जाता है। अनमनेपन में लोशनवाली रूई सिर पर लगाने लगती है, पर बीच में ही हाथ रोक कर उसे अलग रख देती है। उँगलियों से टटोल कर देखती है कि कहाँ सफेद बाल ज्यादा नजर आ रहे हैं। कंघी ढूँढ़ती है, पर वह मिलती नहीं। उतावली में सभी खाने-दराजें देख डालती है। आखिर कंघी वहीं तौलिए के नीचे से मिल जाती है। : चख-चख....किट...किट...चख-चख...किट-किट। क्या सोचो? कंघी से सफेद बालों को ढँकने लगती है। ध्यान आँखों की झाँइयों पर चला जाता है तो कंघी रख कर उन्हें सहलाने लगती है। तभी पुरुष तीन बाहर के दरवाजे से आता है...सिगरेट के कश खींच कर छल्ले बनाता है। स्त्री उसे नहीं देखती , तो वह राख झाड़ने के लिए तिपाई पर रखी ऐश-ट्रे की तरफ बढ़ जाती है। स्त्री पाउडर की डब्बी खोल कर आँखों के नीचे पाउडर लगती है। डब्बीवाला हाथ काँप जाने से थोड़ा पाउडर बिखर जाता है। : (उसाँस के साथ) कुछ मत सोचो। उठा खड़ी होती है , एक बार अपने को अच्छी तरह आईने में देख लेती है। पुरुष तीन पहले सिगरेट से दूसरा सिगरेट सुलगता है। : होने दो जो होता है। सोफे की तरफ मुड़ती ही है कि पुरुष तीन पर नजर पड़ने से ठिठक जाती है , आँखों में एक चमक भर आती है। पुरुष तीन : (काफी कोमल स्वर में) हलो, कुकू ! स्त्री : अरे ! पता ही नहीं चला तुम्हारे आने का । पुरुष तीन : मैंने देखा, अपने से ही बात कर रही हो कुछ। इसीलिए...। स्त्री : इंतजार में ही थी मैं। तुम सीधे आ रहे हो दफ्तर से ? पुरुष तीन कश खींच कर छल्ले बनाता है। पुरुष तीन : सीधा ही समझो।स्त्री : समझो यानी कि नहीं । पुरुष तीन : नाउ-आउ।...दो मिनट रुका बस, पोल स्टोर में। एक डिजाइन देना था उनका। फिर घर जा कर नहाया और सीधे....। स्त्री : सीधा कहते हो इसे ? पुरुष तीन : (छल्ले बनाता) तुम नहीं बदलीं बिलकुल। उसी तरह डाँटती हो आज भी। पर बात-सी है कुकू डियर, कि दफ्तर के कपड़ों में सारी शाम उलझन होती इसीलिए सोचा कि.... स्त्री : लेकिन मैंने कहा नहीं था, बिलकुल सीधे आना ? बिना एक भी मिनट जाया किए ? पुरुष तीन : जाया कहाँ किया एक मिनट भी ? पोल स्टोर में तो.... स्त्री : रहने दो अब। तुम्हारी बहानेबाजी नई चीज नहीं है मेरे लिए। पुरुष तीन : (सोफे पर बैठता है) कह लो जो जी चाहे। बिना वजह लगाम खींचे जाना मेरे लिए भी नई चीज नहीं है। स्त्री : बैठ रहे हो - चलना नहीं है ? पुरुष तीन : एक मिनट चल ही रहे हैं बस। बैठो। स्त्री अनमने ढंग से सोफे पर बैठ जाती है। : जिस तरह फोन किया तुमने अचानक, उससे मुझे कहीं लगा कि... स्त्री की आँखें उमड़ आती हैं। स्त्री : (उसके हाथ पर हाथ रख कर ) जोग !पुरुष तीन : (हाथ सहलाता) क्या बात है, कुकू ? स्त्री : मैं वहाँ पहुँच गई हूँ जहाँ पहुँचने से डरती रही हूँ जिंदगी-भर। मुझे आज लगता है कि... पुरुष तीन : (हाथ पर हलकी थपकियाँ देता) परेशान नहीं होते इस तरह। स्त्री : मैं सच कह रही हूँ। आज अगर तुम मुझसे कहो कि.... । पुरुष तीन : (अंदर की तरफ देख कर) घर पर कोई नहीं है ? स्त्री : बिन्नी है अंदर । हाथ हटा लेता है। पुरुष तीन : यहीं है वह ? उसका तो सुना था कि...स्त्री : हाँ ! पर आई हुई है कल से । पुरुष तीन : तब का देखा है उसे। कितने साल ही गए ! स्त्री : अब आ रही होगी बाहर। देखो, तुमसे बहुत-बहुत बातें करनी हैं मुझे आज। पुरुष तीन : मैं सुनने के लिए ही तो आया हूँ। फोन पर तुम्हारी आवाज से ही मुझे लग गया था कि... स्त्री : मैं बहुत....वो थी उस वक्त। पुरुष तीन : वह तो इस वक्त भी हो। स्त्री : तुम कितनी अच्छी तरह समझते हो मुझे...कितनी अच्छी तरह ! इस वक्त मेरी जो हालत है अंदर से...। स्वर भर्रा जाता है । पुरुष तीन : प्लीज !स्त्री : जोग ! पुरुष तीन : बोलो ! स्त्री : तुम जानते हो, मैं...एक तुम्हीं हो जिस पर मैं... पुरुष तीन : कहती क्यों हो ? कहने की बात है यह ? स्त्री : फिर भी मुँह से निकल जाती है। देखो ऐसा है कि....नहीं। बाहर चल कर ही बात करूँगी। पुरुष तीन : एक सुझाव है मेरा। स्त्री : बताओ। पुरुष तीन : बात यहीं कर लो जो करनी है उसके बाद.... स्त्री : ना-ना यहाँ नहीं। पुरुष तीन : क्यों ? स्त्री : यहाँ हो ही नहीं सकेगी बात मुझसे। हाँ, तुम कुछ वैसा समझते हो बाहर चलने में मेरे साथ, तो... पुरुष तीन : कैसी बात करती हो ?तुम जहाँ भी कहो, चलते हैं। मैं तो इसीलिए कह रहा था कि... स्त्री : मैं जानती हूँ सब। तुम्हारी बात गलत नहीं समझती मैं कभी। पुरुष तीन : तो बताओ, कहाँ चलोगी ? स्त्री : जहाँ ठीक समझो तुम। पुरुष तीन : मैं ठीक समझूँ ? हमेशा तुम्हीं नहीं तय किया करती थी ? स्त्री : गिंजा कैसा रहेगा ?....वहाँ वही कोनेवाली टेबल खाली मिल जाए शायद। |
15-11-2013, 12:52 AM | #8 |
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Re: आधे-अधूरे - मोहन राकेश
Thanks to Teji.
I have coped this to my Kindle Reader. I saw this play staged more than 40 years ago and had enjoyed it. I am sure I will enjoy reading this again. Regards GV |
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