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22-09-2011, 09:30 PM | #1 |
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दुष्यंत कुमार की कविताएँ
दुश्यन्त कुमार की कविताएँ आधुनिक हिन्दी के कवियों में दुश्यन्त कुमार एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। अपनी अल्प आयु में भी जितना कुछ इन्होंने सृजन किया, वह इन्हें हिन्दी जगत में सदा के लिए प्रतिस्थापित करने के लिए काफ़ी है। मेरी कोशिश होगी कि इनके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी यहाँ पोस्ट कर सकूँ। |
22-09-2011, 09:31 PM | #2 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। -दुश्यन्त कुमार |
24-09-2011, 11:44 AM | #3 | |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
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24-09-2011, 07:15 PM | #4 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
मुक्तक
१ संभल संभल के बहुत पाँव धर रहा हूँ मैं पहाड़ी ढाल से जैसे उतर रहा हूँ मैं कदम कदम पे' मुझे टोकता है दिल ऐसे गुनाह कोई बड़ा जैसे कर रहा हूँ मैं। २ तरस रहा है मन फूलों की नयी गंध पाने को खिली धूप में, खुली हवा में गाने मुसकाने को तुम अपने जिस तिमिरपाश में मुझको कैद किये हो वह बंधन ही उकसाता है बाहर आ जाने को। ३ गीत गाकर चेतना को वर दिया मैने आँसुओं के दर्द को आदर दिया मैने प्रीत मेरी आस्था की भूख थी, सहकर ज़िन्दगी़ का चित्र पूरा कर दिया मैने। ४ जो कुछ भी दिया अनश्वर दिया मुझे नीचे से ऊपर तक भर दिया मुझे ये स्वर सकुचाते हैं लेकिन तुमने अपने तक ही सीमित कर दिया मुझे। |
24-09-2011, 07:27 PM | #5 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
आज सड़कों पर
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह, यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख। वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे, कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख। ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है, रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख। राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई, राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख। |
22-09-2011, 09:31 PM | #6 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
एक अच्छे सूत्र की सुरुवात के लिए बधाई
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जो सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक से हैं झगड़ा झूठे विषयों में होता है। -------------------------------------------------------------------------- जिनके घर शीशो के होते हे वो दूसरों के घर पर पत्थर फेकने से पहले क्यू नहीं सोचते की उनके घर पर भी कोई फेक सकता हे -------------------------------------------- Gaurav Soni
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23-09-2011, 01:25 AM | #7 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
बहुत ही उम्दा रचना है दुष्यंत जी की,
ऐसी सुंदर रचनाओं की प्रस्तुती के लिए अनूप जी का आभार ....... |
23-09-2011, 01:35 AM | #8 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
कहाँ तो तय था
कैसे मंजर खंडहर बचे हुए हैं जो शहतीर है ज़िंदगानी का कोई मकसद मुक्तक आज सड़कों पर लिखे हैं मत कहो, आकाश में धूप के पाँव गुच्छे भर अमलतास सूर्य का स्वागत आवाजों के घेरे जलते हुए वन का वसन्त आज सड़कों पर आग जलती रहे एक आशीर्वाद आग जलनी चाहिए मापदण्ड बदलो कहीं पे धूप की चादर बाढ़ की संभावनाएँ इस नदी की धार में हो गई है पीर पर्वत-सी
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23-09-2011, 09:03 PM | #9 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
मेरा हौसला बढ़ाने के लिए आप सब का आभार।
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23-09-2011, 09:04 PM | #10 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए। यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहाँ से चलें उम्र भर के लिए। न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफ़र के लिए। खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही, कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए। वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए। तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर को, ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए। जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए। - दुश्यन्त कुमार |
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