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Thanks. Last edited by teji; 09-12-2010 at 11:58 AM. |
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![]() गांधी जीवनी जब गांधीजी का जन्म हुआ, तब देश में अंग्रेजी हुकूमत का साम्राज्य था । यद्यपि 1857 की क्रांति ने ब्रिटिश सत्ता को हिलाने का प्रयास किया था, परंतु अंग्रेजी शक्ति ने उस विद्रोह को कुचल कर रख दिया । अंग्रेजो के कठोर शासन में भारतीय जनमानस छटपटा रहा था । अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए अंग्रेज किसी भी हद तक अत्याचार करने के लिए स्वतंत्र थे । देश की नई पीढ़ी के जन्म लेते ही, ब्रिटिश हुकूमत गुलामी की जंजीरों से उन्हें जकड़ रही थी । लगभग डेढ़ दशक तक अंग्रेजों ने भारत पर एकछत्र राज्य किया । जब गांधीजी की मृत्यु हुई, तब तक देश पूरी तरह से आलाद हो चुका था। गुलामी के काले बादल छँट चुके थे । देश के करोड़ो मूक लोगों को वाणी देने वाले इस महात्मा को लोगों ने अपने सिर-आँखों पर बैठाया । इतिहास के पन्नों में गांधीजी का योगदान स्वर्णाक्षरों में लिखा गया । गांधीजी का जीवन एक आदर्श जीवन माना गया। उन्हें भारत के सुंदर शिल्पकार की संज्ञा दी गई । उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए देशवासियों ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' की उपाधी दी । स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी के योगदान को भुला पाना एक टेढ़ी खीर है । ब्रिटिश हुकूमत को नाको चने चबवाने वाले इस महात्मा के कार्य मील का पत्थर साबित हुए। देशवासियों के सहयोग से उन्होंने वह कर दिखाया, जिसका स्वप्न भारत के हर घर में देखा जाता था, वह स्वप्न था - दासता से मुक्ति का, अंधेरे पर उजाले की विजय का । गांधीजी के निर्देशन में देश के करोड़ों लोगों ने आततायी शक्ति के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी । वे अपने आप में राजा राम मोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद सरस्वती, दादाभाई नौरोजी आदी थे। वास्तव में उनका व्यक्तित्व इन सभी का मिश्रण था । उनके विचार-चिंतन में सभी महापुरुषों की वाणी को शब्द मिले थे । इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय राजनीति के फलक पर ऐसा नीतिवान और कथन-करनी में एक जैसा आचरण करने वाला नेता अन्य कहीं भी दिखाई नहीं देता । गांधीजी ने हमेशा दूसरों के लिए ही संघर्ष किया। मानो उनका जीवन देश और देशवासियों के लिए ही बना था । इसी देश और उसके नागरिकों के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया । आने वाली पीढ़ि की नज़र में मात्र देशभक्त, राजनेता या राष्ट्रनिर्माता ही नहीं होंगे, बल्कि उनका महत्व इससे भी कहीं अधिक होगा । वे नैतिक शक्ति के धनी थे, उनकी एक आवाज करोड़ों लोगों को आंदोलित करने के की क्षमता रखती थी । वे स्वयं को सेवक और लोगों का मित्र मानते थे । यह महामानव कभी किसी धर्म विशेष से नहीं बंधा शायद इसीलिए हर धर्म के लोग उनका आदर करते थे । यदि उन्होंने भारतवासियों के लिए कार्य किया तो इसका पहला कारण तो यह था कि उन्होंने इस पावन भूमि पर जन्म लिया, और दूसरा प्रमुख कारण उनकी मानव जाति के लिए मानवता की रक्षा करने वाली भावना थी । वे जीवनभर सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलते रहे। सत्य को ईश्वर मानने वाले इस महात्मा की जीवनी किसी महाग्रंथ से कम नहीं है । उनकी जीवनी में सभी धर्म ग्रंथों का सार है। यह भी सत्य है कि कोई व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता। कर्म के आधार पर ही व्यक्ति महान बनता है, इसे गांधीजी ने सिद्ध कर दिखाया । एक बात और वे कोई असाधारण प्रतिभा के धनी नहीं थे । सामान्य लोगों की तरह वे भी साधारण मनुष्य थे । रवींद्रनाथ टागोर, रामकृष्ण परमहंस, शंकराचार्य या स्वामी विवेकानंद जैसी कोई असाधारण मानव वाली विशेषता गांधीजी के पास नहीं थी । वे एक सामान्य बालक की तरह जन्मे थे। अगर उनमें कुछ भी असाधारण था तो वह था उनका शर्मीला व्यक्तित्व । उन्होंने सत्य, प्रेम और अंहिंसा के मार्ग पर चलकर यह संदेश दिया कि आदर्श जीवन ही व्यक्ति को महान बनाता है । यहां यह प्रश्न सहज उठता है कि यदि गांधी जैसा साधारण व्यक्ति महात्मा बन सकता है, तो भला हम आप क्यों नहीं ? उनका संपूर्ण जीवन एक साधना थी, तपस्या थी । सत्य की शक्ति द्वारा उन्होंने सारी बाधाओं पर विजय प्राप्त की । वे सफलता की एक-एक सीढ़ी पर चढ़ते रहे । गांधीजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि दृढ़ निश्चय, सच्ची लगन और अथक प्रयास से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है । गांधीजी की महानता को देखते हुए ही अल्बर्ट आइंटस्टाइन ने कहा था कि, आने वाली पीढ़ी शायद ही यह भरोसा कर पाये कि एक हाड़-मांस का मानव इस पृथ्वी पर चला था । सचमुच गांधीजी असाधारण न होते हुए भी असाधारण थे । यह संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए गौरव का विषय है कि गांधीजी जैसा व्यक्तित्व यहाँ जन्मा । मानवता के पक्ष में खड़े गांधी को मानव जाति से अलग करके देखना ए बड़ी भूल मानी जायेगी। 1921 में भारतीय राजनीति के फलक पर सूर्य बनकर चमके गांधीजी की आभा से आज भी हमारी धरती का रूप निखर रहा है । उनके विचारों की सुनहरी किरणें विश्व के कोने-कोने में रोशनी बिखेर रही हैं । हो सकता है कि उन्होंने बहुत कुछ न किया हो, लेकिन जो भी किया उसकी उपेक्षा करके भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास नहीं लिखा जा सकता । |
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#3 |
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मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्तूबर सन् 1869 को पोरबंदर में हुआ था। पोरबंदर, गुजरात कठियावड़ की तीन सौ में से एक रियासत थी। उनका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था, जो कि जाति से वैश्य था। उनके दादा उत्तमचंद गांधी पोरबंदर के दीवान थे। आगे चलकर 1847 में उनके पिता करमचंद गांधी को पोरबंदर का दीवान घोषित किया गया। एक-एक करके तीन पत्नी की मृत्यु हो जाने पर करमचंद ने चौथा विवाह पुतलीबाई से किया, जिनकी कोख से गांधीजी ने जन्म लिया। मोहनदास की माँ का स्वभाव संतों के जैसा था। गांधीजी अपनी माँ के विचारों से खूब प्रभावित थे।
गांधीजी की आरंभिक शिक्षा पोरबंदर में हुई। जहाँ गणित विषय में उन्होंने अपने आपको काफी कमजोर पाया। कई वर्षों के बाद उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि वे झेंपू, शर्मीले और कम बुद्धि वाले छात्र हुआ करते थे। सात वर्ष की उम्र में उनका परिवार काठियावाड की अन्य रियासत राजकोट में आकर बस गया। यहाँ भी उनके पिता को दीवान बना दिया गया। यहाँ पर उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण की। बाद में हाईस्कूल में प्रवेश लिया। अब वे मध्यम श्रेणी के शांत, शर्मीले और झेंपू किस्म के छात्र बन चुके थे। एकांत उन्हें बहुत प्रिय था। विद्यालय की गतिविधियाँ या परीक्षाओं के परिणाम से ऐसा कोई संकेत नहीं मिला कि जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि वे भविष्य में महान बनेंगे। लेकिन विद्यालय में घटी एक घटना ने यह छिपा संदेश अवश्य दे डाला कि एक दिन यह छात्र आगे अवश्य जायेगा। हुआ यूं कि उस दिन स्कूल निरीक्षक विद्यालय में निरीक्षण के लिए आये हुए थे। कक्षा में उन्होंने छात्रों की 'स्पेलिंग टेस्ट` लेनी शुरू की। मोहनदास शब्द की स्पेलिंग गलत लिख रहे थे, इसे कक्षाध्यापक ने संकेत से मोहनदास को कहा कि वह अपने पड़ोसी छात्र की स्लेट से नकल कर सही शब्द लिखें। उन्होंने नकल करने से इंकार कर दिया। बाद में उन्हें उनकी इस 'मूर्खता` पर दंडित भी किया गया। वैसे तो मोहनदास आज्ञाकारी थे, पर उनकी दृष्टी में जो अनुचित था, उसे वे उचित नहीं मानते थे। उनका परिवार वैष्णव धर्म का अनुयायी था। इस संप्रदाय में मांस भक्षण और धूम्रपान घोर पाप माने जाते थे। उन दिनों शेख महताब नाम का उनका एक सहपाठी था। महताब ने गांधीजी को यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज भारत पर इसलिए राज कर रहे हैं, क्योंकि वे गोश्त खाते हैं। उस छात्र के मुताबिक मांस ही अंग्रेजो की शक्ति का राज है। दोस्त के इस कुतर्कों ने मोहनदास को गोश्त खाने के लिए राजी कर लिया। देशभक्ति के कारण उन्होंने पहली बार मांस खाने के बाद वे पूरी रात सो नहीं सके। बार-बार उन्हें ऐसा लगता जैसे बकरा पेट में मिमिया रहा हो। लेकिन थोड़े-थोड़े फासलें पर वे मांस का सेवन करते रहे। माता-पिता को आघात पहुँचे इसलिए उन्होंने गोश्त खाना बंद कर दिया। वे शाकाहारी बन गये। इस उम्र में उन्होंने धूम्रपान और चोरी करने का भी अपराध किया। लेकिन बाद में रो कर पश्चाताप करते हुए उन्होंने सारी बुरी आदतों से किनारा कर लिया। तेरह वर्ष की आयु में मोहनदास का विवाह उनकी हम-उम्र कस्तूरबा से कर दिया गया। उस उम्र के लड़के के लिए शादी का अर्थ नये वत्र, फेरे लेना और साथ में खेलने तक ही सीमित था। लेकिन जल्द ही उन पर काम का प्रभाव पड़ा। शायद इसी कारण उनके मन में बाल-विवाह के प्रति कठोर विचारों का जन्म हुआ। वे बाद में बाल-विवाह को भरत की एक भीषण बुराई मानते थे। एक दूसरे से कम उम्र में अनजान बच्चों का विवाह करना, आम रिवाज था और यह धारणा थी कि ऐसे विवाह प्रायः सुखी होते थे। कुछ भी हो, गांधीजी के बारे में ऐसा ही था। हालांकि बाद के वर्षों में उनकी अंतरात्मा बाल-विवाह को लेकर काफी कचोटती रहती थी, लेकिन उन्होंने आजीवन कस्तूरबा को एक आदर्श पत्नी के रूप में पाया। |
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मैट्रिक करने के बाद गांधीजी ने भावनगर के समलदास कालेज में प्रवेश लिया। यहाँ का वातावरण उन्हें रास नहीं आया, उन्हें पढ़ाई करने में काफी कठिनाइयाँ आ रही थी। इसी बीच सन् 1885 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गई। उनके परिवार के विश्वसनीय मित्र भावजी दवे चाहते थे कि मोहनदास अपने दादा व पिता की तरह मंत्री बनें। इस पद के लिए कानून की जानकारी सबस महत्वपूर्ण थी। इसलिए उन्होंने सलाह दी कि मोहनदास इंग्लैंड जाकर बैरिस्टरी की पढ़ाई करें। मोहनदास इसे सुनते ही खूब प्रसन्न हुए। उनकी माँ उन्हें विदेश भेजने के खिलाफ थीं। किंतु काफी मान-मनौवल के बाद जब वे राजी हुईं तब उन्होंने मोहनदास से यह संकल्प कराया कि वे शराब, त्री और मांस को भूलकर भी नहीं छुएँगे।
गांधीजी अपनी इंग्लैंड यात्रा के लिए बंबई के समुद्री तट पर पहुँचे। यहाँ भी उनके विदेश जान के खिलाफ जाति-बिरादरी के लोगों ने आपत्ति दर्ज की। यहाँ तक कि उन्हें बिरादरी से बाहर करने की धमकियाँ मिलीं। पर गांधीजी ने इंग्लैंड जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। 4 सितंबर 1888 को वे इंग्लैंड जाने के लिए रवाना हुए। इसके कुछ महिने बाद उनकी पत्नी कस्तूरबा ने एक सुंदर से लड़के को जन्मे दिया। आरंभ के कुछ दिन गांधीजी के लिए काफी दुखदायी थे। उनका वहाँ मन नहीं लगता था। "मैं हमेशा अपने घर और देश के बारे में सोचा करता था। सब कुछ असहज लगता था। अकेलापन पूरी तरह हावी हो चुका था। मांस न खाने की प्रतिज्ञा ने मेरी कठिनाइयों को और भी बढ़ा दिया था। संशय और आशंकाएँ अकेलेपन की भावना का उभार रही थीं। मुझे मेरा भविष्य अंधकारमय लगने लगा। अकेलेपन के अतिशय दुख से घबराकर जब मैं सोचता कि लम्बे-लम्बे तीन साल यहाँ काटने होंगे तो मेरी आँखों की नींद उड़ जाती और मैं फूट-फूटकर रोने लगता।" कुछ दिनों के पश्चात एम के गांधी ने पूरी तरह से 'जेंटलमैन` बनने का निश्चय किया। ल्रदन के सबसे फैशनेबल और महंगे दर्जियों से सूट सिलाये गये। घड़ी में लगाने के लिए भारत से सोने की दुलड़ी चैन भी उन्होंने मंगवा ली। नाच-गाने की शिक्षा लेने लगे। सिल्की (रेशमी) टोपी भी उन्होंने खरीदी। लेकिन आत्मनिरीक्षण की उनकी आदत ने उनके मन को झकझोर कर रख दिया। यह तामझाम उन्हें बेमानी लगने लगा। तीन महीने फैशन की चकचौंध में भटकने के बाद उन्होंने फिजूलखर्ची छोड़कर मितव्ययिता का मार्ग चुना। उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने जीवन में तड़क-भड़क को स्थान न देकर अपने चारित्रिक गुणों का विकास करेंगे। उनके मत में "उच्च चरित्र ही व्यक्ति को 'जेंटलमैन` बना सकता है।" दूसरे वर्ष उनके एक थियोसिफिकल मित्र ने उन्हें एडविन अर्नोल्ड के छंद बद्ध गीता अनुवाद वाली पुस्तक 'दि सांग सेलेस्टियल` की जानकारी दी। यह पहला अवसर था जब उन्होंने गीता का अध्ययन किया। पहली बार में ही गीता से उनके युवा मन को बल मिला और धीरे-धीरे गीता उनके जीवन की सूत्रधार बन गई। "इसके अध्ययन ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी।" इसके कुछ ही दिनों बाद उनके एक ईसाई मित्र ने उनका परिचय 'बाइबल` से करवाया। उन्होंने बाइबल का अध्ययन किया। यहीं पर उन्होंने बुद्ध की जीवनी से उन्हें काफी प्रेरणा मिली। इन सभी पुस्तकों से उनका युवा मन आंदोलित हुआ। उनके चिंतन में इनका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। परीक्षा पास करने के बाद तीन वर्षों के पश्चात गांधीजी 1891 में पुनः भारत लौटे। तीन वर्ष तक उन्होंने माँ को दिये वचन का पालन किया। किसी युवक द्वारा अपनी प्रतिज्ञा का विदेशी सरजमीं पर पालन करना निश्चित ही इसकी महानता को दर्शाता है। वे बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। |
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#5 |
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बम्बई में जहाज से उतरते ही एक अत्यंत दुखद समाचार सुनने को मिला। इस समाचार ने उन्हें हिला कर रख दिया। समाचार यह था कि जब वह इंग्लैंड में थे तभी उनकी माँ चल बसी थीं। परिवरवालों ने जान-बूझकर उनसे यह खबर छिपा रखी थी, ताकि वे अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें।
कुछ समय राजकोट में बिताने के पश्चात् गांधीजी ने बम्बई आकर वकालत करने का निश्चय किया। कुछ दिनों तक वे यहाँ रहे। किंतु अदालत के माहौल से वे क्षुब्ध हो गये। रिश्वत, झूठ, साजिश और वकीलों की घटिया दलीलों से उन्हें घृणा होने लगी। इसलिए मौका मिलते ही, वे यहाँ से अन्य कहीं और जाने के लिए तैयार बैठे थे। अपने आपको बम्बई में असफल होता देख वे एक फिर राजकोट चले गये। यहाँ भी उन्हें सुकून नहीं मिला। इसी बीच उन्हें वह मौका मिल गया जिसकी उन्हें तलाश थी। दक्षिण अफ्रीका का स्थित भारतीय मुस्लिम फर्म दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी ने अपने मुकदमे की पैरवी के लिए दक्षिण अफ्रीका में उन्हें आमंत्रित किया। दक्षिण अफ्रीका का यह प्रस्ताव उन्हें भा गया। वर्ष 1893 के अप्रैल महीने में चौबीस वर्षीय गांधीजी दक्षिण अफ्रीका चले गये। जहाज छ सप्ताह में डरबन पहुँचा। वहाँ अब्दुल्ला सेठ ने उनकी अगवानी की। वहाँ भारतीयों की संख्या अधिक थी। यहाँ के अधिकांश व्यापारी मुसलमान थे। मुसलमान अपने को 'अरब` तो पारसी अपने आपको 'पर्शियन` कहलाना पसंद करते थे। यहाँ भारतीयों को, चाहे वो कोई भी काम क्यों न करता हों, किसी भी धर्म जाति के क्यों न हों, यूरोपीय उन्हें 'कुली` कहते थे। दक्षिण अफ्रीका के एकमात्र बैरिस्टर एम. के. गांधी शीघ्र ही 'कुली बैरिस्टर` के नाम से जाने जाने लगे। डरबन में एक सप्ताह बिताने के बाद गांधीजी ट्रंसवाल की राजधानी प्रिटोरिया जाने को तैयार हुए। उनके मुवक्किल के मुकदमे की सुनवाई वहीं होनी थी। अब्दुल्ला ने उन्हें प्रथम दर्जे का टिकट खरीद कर दिया। जब गाड़ी नाताल की राजधानी मार्टिजबर्ग पहुँची, तो रात 9 बजे के करीब एक श्वेत यात्री डिब्बे में आया। उसने रेल कर्मचारीयों की उपस्थिति में गांधीजी को 'सामान्य डिब्बे` में जाने का आदेश दिया। गांधीजी ने इसे मानने से इंकार कर दिया। इसके बाद एक सिपाही की मदद से उन्हें बलपूर्वक उनके सामान के साथ डिब्बे के बाहर ढकेल दिया गया। उस रात कड़ाके की ठंड थी। ठंड की उस रात में प्रतिक्षा कक्ष में बैठे गांधीजी सोचने लगे : ृमैं अपने अधिकारों के लिए लडूँ या फिर भारत वापस लौट जाउ?ृ अंत में उन्होंने अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने का निश्चय किया। अगले दिन आरक्षित बर्थ पर यात्रा करते हुए गांधीजी चार्ल्सटाउन पहुँचे। यहाँ एक और दिक्कत उनका इंतजार कर रही थी। यहाँ से उन्हें जोहान्स्बर्ग के लिए बग्गी पकड़नी थी। पहले तो एजेंट उन्हें यात्रा की अनुमति देने के पक्ष में ही नहीं था, पर गांधीजी के आग्रह पर उसने उन्हें अनुमति तो दे दी। लेकिन बग्गी में नहीं बल्कि कोचवान के साथ बाहर बक्से पर बैठ कर उन्हें यात्रा करनी थी। गांधीजी अपमान के इस कड़वे घूंट को भी पी गये। लेकिन कुछ देर बाद जब उस सहयात्री ने गांधीजी को पायदान के पास बैठने को कहा, ताकि वही खुली हवा और सिगारेट का आनंद कोचवान के पास बैठ कर ले सके, तो गांधीजी ने इंकार कर दिया। इस पर उस आदमी ने गांधीजी की खूब पिटाई की। कुछ यात्रियों ने बीच-बचाव किया और गांधीजी को उनकी जगह पुनः दे दी गई। प्रिटोरिया तक की यात्रा के अनुभवों ने, ट्रंसवाल में भारतीयों की स्थिति का उन्हें आभास करा दिया था। सामाजिक न्याय के पक्षधर गांधीजी इस संबंध में कुछ करना चाहते थे। वे तैय्यब सेठ के पास गये। मुकदमा उसके ही खिलाफ चल रहा था। उससे उन्होंने मित्रता कर ली, यह एक विशिष्ट प्रयास था। उसकी मदद से उन्होंने ट्रंसवाल की राजधानी में रहने वाले सभी भारतीयों की एक बैठक बुलाई। बैठक एक मुसलमान व्यापारी के घर पर हुई और गांधीजी ने बैठक को संबोधित किया। अपने जीवन में गांधीजी का यह पहला भाषण था। उन्होंने भारत से आने वाले सभी धर्मों एवं जातियों के लोगों से भेदभाव मिटाने का आग्रह किया। साथ ही एक स्थायी संस्था बनाने का सुझाव दिया ताकि भारतीयों के अधिकारों की सुरक्षा की जा सके और समय-समय पर अधिकारीयों के समक्ष उनकी समस्याओं को उठाया जा सके। नाताल की उपेक्षा ट्रंसवाल में भारतीयों की स्थिति बदतर थी। यहाँ भारतीयों को असमानताओं, तिरस्कारों और कठिनाइयों का अधिक सामना करना पड़ता था। यहाँ के कठोर कानून की मार हर भारतीय झेल रहा था। ट्रंसवाल में प्रवेश के लिए उन्हें तीन पाउंड का 'प्रवेश कर` देना पड़ता था। रात्रि में नौ बजे के बाद बाहर निकलने के लिए अनुमति पत्र लेना पड़ता था। वे सार्वजनिक फुटपाथों पर नहीं चल सकते थे, उन्हें पशुओं के साथ गलियों के रास्ते में ही चलना पड़ता था। एक बार तो राष्ट्रपति क्रूगर के घर के निकट फुटपाथ पर चलने के लिए गांधीजी पुलिसवालों के हत्थे चढ़ गये थे। कुछ काल के लिए भारतीयों की दुर्दशा की ओर से गांधीजी का ध्यान हट गया - व्यावहारिक कारण यह था कि उन्हें अब्दुल्ला सेठ की मुकदमे की ओर ध्यान देना था, जिसके लिए वे यहाँ आये थे। उन्होंने अब्दुल्ला सेठ और उनके चचेरे भाई तैय्यब सेठ के बीच सुलह करा दी। उनके इस शांतिपूर्ण समझौते की चर्चा वहाँ का हर भारतीय करता रहा। गांधीजी का एक वर्ष समाप्त हो गया था, और मुकदमा तय करने के बाद वे स्वदेश लौटने की तैयारी करने लगे थे। वे डरबन लौट आये। अब्दुल्ला सेठ ने उनके सम्मान में एक विदाई समारोह आयोजित किया। इस विदाई समारोह के दौरान गांधीजी की नजर समाचार पत्र में छपी एक खबर पर पड़ी, जो नाताल के 'इंडियन फ्रैंचाइज़ बिल` के बारे में था। इस विधेयक के जरिये वहाँ के भारतीयों का मताधिकार छीना जा रहा था। गांधीजी ने इसके गंभीर परिणामों से लोगों को अवगत कराया। भारतीय मूल के लोग गांधीजी से वहाँ ठहरने और उनका मार्गदर्शन करने की चिरौरी करने लगे। गांधीजी ने वहाँ एक महिना ठहरने की बात इस शर्त पर मान ली कि सभी लोग अपने मताधिकार के लिए आवाज उठायेंगे। गांधीजी ने वहाँ स्वयंसेवकों का एक संगठन खड़ा किया। वहाँ के विधानमंडल के अध्यक्ष को तार भेजकर यह अनुरोध किया कि वे भारतीयों का पक्ष सुने बिना मताधिकार विधेयक वर बहस न करें। लेकिन इसे नजरंदाज कर मताधिकार विधेयक पपरित कर दिया गया। गांधीजी हार मानने वाले नहीं थे। उन्होंने लंदन में उपनिवेशों के मंत्री लार्ड रिपन के समक्ष अपनी वह याचिका पेश की, जिस पर अधिकाधिक नाताल भारतीयों के हस्ताक्षर थे। बैचेनी भरा एक महीना बीत जाने के बाद छोड़ना गांधीजी के लिए असंभव लगने लगा था। डरबन के भारतीयों की समस्याओं ने उन्हें रोक लिया। लोगों ने उनसे वहीं वकालत करने का आग्रह किया। समाज सेवा के लिए पारिश्रमिक लेना उनके स्वभाव के विरूद्ध था। लेकिन उनकी बैरिस्टर की गरिमा के अनुरूप तीन सौ पाउंड प्रतिवर्ष की जरूरतवाले धन की व्यवस्था भारतीस मूल के लोगों द्वारा की गई। इसके बाद गांधीजी ने अपने आपको जनसेवा में समर्पित कर दिया। नाताल के सर्वोच्च न्यायालय में काफी परेशानियाँ झेलने के बाद अंत में उन्हें वहाँ के प्रमुख न्यायाधीश ने वकील के रूप में शपथ दिलाई। संघर्ष करके गांधीजी काले-गोरे का भेद मिटाकर सर्वोच्च न्यायालय के वकील बन गये। |
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गांधीजी के निःस्वार्थ कार्यों और वहाँ जमी वकालत को देखते हुए तो ऐसा लगने लगा था कि जैसे वह नाताल में बस गये हों। सन् 1896 के मध्य में वह अपने पूरे परिवार को अपने साथ नाताल ले जाने के उद्देश से भारत आये। अपनी इस यात्रा के दौरान उनका लक्ष्य दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के लिए देश में यथाशक्ति समर्थन पाना और जनमत तैयार करना भी था।
राजकोट में रहकर उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्या पर एक पुस्तक लिखी और उसे छपवाकर देश के प्रमुख समाचार पत्रों में उसकी प्रतियाँ भेजी। इसी समय राजकोट में फैली महामारी प्लेग अपना उग्र रूप धारण कर चुकी थी। गांधीजी स्वयंसेवक बनकर अपनी सेवाँए देने लगें। वहाँ की दलित बस्तियों में जाकर उन्होंने प्रभावितों की हर संभव सहायता की। अपनी यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात देश के प्रखर नेताओं से हुई। बदरुद्दीन तैय्यब, सर फिरोजशाह मेहता, सुरेंद्रनाथ बेनर्जी, लोकमान्य जिलक, गोखले आदि नेताओं के व्यक्तित्व का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन सभी के समक्ष उन्होंने प्रवासी भारतीयों की समस्याओं को रखा। सर फिरोजशहा मेहता की अध्यक्षता में गांधीजी द्वारा भाषण देने का कार्यक्रम बंबई में संपन्न हुआ। इसके बाद कलकत्ता में गांधीजी द्वारा एक जनसभा को संबोधित किया जाना था। लेकिन इससे पहले कि वे ऐसा कर पाते, दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों का एक अत्यावश्यक तार उन्हें आया। इसके बाद वे अपनी पत्नी और बच्चों के साथ वर्ष 1896 के नवंबर महीने में डरबन के लिए रवाना हो गये। भारत में गांधीजी ने जो कुछ किया और कहा उसकी सही रिपोर्ट जो नाताल नहीं पहुँची। उसे बढ़ा-चढ़ाकर तोड़-मरोड़ कर वहाँ पेश किया गया। इसे लेकर वहाँ के गोरे वाशिंदे गुस्से से आग बबुला हो उठे थे। 'क्रूरलैंड` नामक जहाज से जब गांधीजी नाताल पहुँचे तो वहाँ के गोरों ने उनके साथ अभद्र व्यवहार किया। उन पर सड़े अंडों और कंकड़ पत्थर की बौछार होने लगी। भीड़ ने उन्हें लात-घूसों से पीटा। अगर पुलिस सुपरिंटेंडंट की पत्नी ने बीच-बचाव न किया होता तो उस दिन उनके प्राण पखेरू उड़ गये होते। उधर लंदन के उपनिवेश मंत्री ने गांधीजी पर हमला करने वालों पर कार्रवाई करने के लिए नाताल सरकार को तार भेजा। गांधीजी ने ओरपियों को पहचानने से इंकार करते हुए उनके विरुद्ध कोई भी कार्रवाई न करने का अनुरोध किया। गांधीजी ने कहा, "वे गुमराह किये गये हैं, जब उन्हें सच्चाई का पता चलेगा तब उन्हें अपने किये का पश्चाताप खुद होगा। मैं उन्हें क्षमा करता हूँ।" ऐसा लग रहा था जैसे ये वाक्य गांधीजी के न होकर उनके भीतर स्पंदित हो रहे किसी महात्मा के हों। अपनी दक्षिण अफ्रीका की दूसरी यात्रा के बाद गांधीजी में अद्भुत बदलाव आया। पहले वे अँग्रेजी बैरिस्टर के माफिक जीवन जीते थे। लेकिन अब वे मितव्ययिता को अपने जीवन में स्थान देने लगे। उन्होंने अपने खर्च और अपनी आवश्यकताओं को कम कर दिया। गांधीजी ने 'जीने की कला` सीखी। कपड़ा इत्री करने कपड़ा सिलने आदि काम वे खुद करने लगे। वे अपने बाल खुद काटते। साफ-सफाई भी करते। इसके अलावा वे लोगों की सेवा के लिए भी समय निकाल लेते। वे प्रतिदिन दो घंटे का समय एक चैरिटेबल अस्पताल में देते, जहाँ वे एक कंपाउंडर की हैसियत से काम करते थे। वे अपने दो बेटों के साथ-साथ भतीजे को भी पढ़ाते थे। वर्ष 1899 में बोअर-युद्ध छिड़ा। गांधीजी की पूरी सहानुभूति बोअर के साथ थी जो अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे। गांधीजी ने सभी भारतीयों से उनका सहयोग देने की अपील की। उन्होंने लोगों को इकठ्ठा किया और डॉ. बूथ की मद्द से भारतीयों की एक एंबुलैंस टुकड़ी बनाई। इस टुकड़ी में 1,100 स्वयंसेवक थे जो कि सेवा के लिए तत्पर थे। इस टुकड़ी का कार्य घायलों की देखभाल में जुटना था। गांधीजी के नेतृत्व में सभी स्वयंसेवकों ने अपनी अमूल्य सेवाएँ दी। गांधीजी जाति, धर्म, रूप, रंग भेद से दूर रहकर केवल मानवता की सेवा में जुटे थे। उनके इस कार्य की प्रशंसा में वहाँ के समाचार पत्रों ने खूब लिखा। 1901 में युद्ध समाप्त हो गया। गांधीजी ने भारत वापसी का मन बना लिया था। शायद उन्हें दक्षिण अफ्रीका में अच्छी सफलता मिली थी, लेकिन वे 'रूपयों के पीछे न भागने लगें` इस भय के कारण भी वे भारत आने के पक्ष में थे। लेकिन नाताल के भारतीय उन्हें सरलता से छोड़ने वाले नहीं थे। आखिर इस शर्त पर उन्हें इजाजत दी गई कि यदि साल-भर के अंदर अगर उनकी कोई आवश्यकता आ पड़ी तो वे भारतीय समाज के हित के लिए पुनः लौट आयेंगे। वे भारत लौटे। सबसे पहले कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सभा में शामिल हुए। यहाँ पर पहली बार उन्हें ऐसे लगा जैसे भारतीय राजनेता बोलते अधिक हैं और काम कम करते हैं। गोखले के यहाँ कुछ दिन बिताने के बाद वे भारत यात्रा के लिए निकल पड़े। उन्होंने तीसरे दर्जे के डिब्बे में यात्रा करने का निश्चय किया ताकि वे लोगों (गरीबों) की तकलीफें जानने के साथ-साथ स्वयं भी उसके अनुरूप ढल सकें। उन्हें इस बात दुख हुआ कि तीसरे दर्जे में भारतीय रेल अधिकारीयों द्वारा काफी लापरवाही बरती जाती है। इसके इलावा यात्रियों की गंदी आदतें भी डिब्बे की दुर्दशा के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार थीं। अब गांधीजी भारत में ही रहना चाहते थे। बम्बई लौटकर उन्होंने अदालत में काम करने की कोशिश की, लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों को उनकी जरूरत आ पड़ी। "जोसेफ चैम्बरलेन दक्षिण अफ्रीका आ रहे हैं, कृपया जल्द लौटें।" दक्षिण अफ्रीका के भारतीय द्वारा भेजे गये इस तार को पाते ही गांधीजी अपने वचन का पालन करते हुए वहाँ के लिए चल पड़े। भारतीयों के लिए जोसेफ के मन में घृणा और उपेक्षा की भावना थी। उसने घोषणा कर दी थी कि यदि भारतीयों को वहाँ रहना है तो यूरोपीय लोगों को 'संतुष्ट` रखना ही होगा। भारतीयों की समस्याओं को लेकर गांधीजी चैम्बरलेन से मिले, किंतु गांधीजी को निराश होना पड़ा। इसके बाद गांधीजी ने जोहान्सबर्ग में रहकर वहाँ के सुप्रीम कोर्ट में वकालत के लिए प्रवेश लिया। यहाँ रहकर उन्होंने अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद की। यहाँ के जुलू युद्ध से उनके मन में जो द्वंद्व उपजा था उसने उनके निजी असमंजस-ब्रह्मचर्य को सुलझा दिया था। उन्हें लगा कि अब समय आ गया है कि उन्हें जीवन भर के लिए ब्रह्मचर्य का व्रत ले लेना चाहिए। गांधीजी के लिए इस व्रत का अर्थ न केवल शरीर की शुद्धि से था, अपितु यह मन के शुद्धिकरण का भी माध्यम था, और वे वर्षों तक अपने चेतन या अचेतन मस्तिष्क से कामासक्ति के शारीरीक आनंद के नामो-निशान को मिटाने के लिए संघर्ष करते रहे। गांधीजी ने सुबह उठते ही गीता पढ़ने का नियम बना रखा था। वे उसके विचारों का अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करने लगे। 'अव्यावसायिकता' की जो बात गीता में की गई है, उसे उन्होंने अपने भीतर आत्मसात करने का निश्चय किया। गीता के बाद रसकिन की पुस्तक 'अन टु दी लास्ट' का गहरा प्रभाव उन पर पड़ा। इस पुस्तक का अध्ययन उन्होंने फीनिक्स कॉलनी में अपना योगदान दिया। लेकिन गांधीजी फीनिक्स में अधिक दिनों तक नहीं टिके। वे जोहान्सबर्ग गये, जहाँ बाद में उन्होंने एक आदर्श कॉलनी की स्थापना की, जो कि शहर से बीस मील की दूरी पर थी। उन्होंने इसका नाम 'टालस्टाय फार्म` रखा। समूचे भारत में आज बड़ी तेजी से बुनियादी शिक्षा की जो प्रणाली जड़ें जमाती जा रही हैं, उसको टालस्टाय फार्म में बड़ी मेहनत से विकसित किया गया था। एक बार जब फीनिक्स बस्ती में एक 'नैतिक भूल` का पता चला, तो गांधीजी ने अपना सभी सामाजिक कार्य बंद कर दिया और वे ट्रंसवाल से नाताल चले गये। जहाँ युवाओं के पाप का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने सात दिन का उपवास रखा। ट्रंसवाल की सरकार ने एक कानून बनाने की घोषणा की थी, जिसके मुताबिक आठ वर्ष की आयु से अधिक के हर भारतीय को अपना पंजीकरण कराना होगा। उसकी अंगुलियों के निशान लिये जायेंगे और उसे प्रमाण पत्र लेकर हमेशा अपने पास रखना होगा। गांधीजी ने इस काले कानून का विरोध किया। लोगों को जुटाकर सभाएँ की। जनवरी 1908 में गांधीजी को नके अन्य सत्याग्रहियों के साथ दो महीने के लिए जेल भेज दिया गया। इसके बाद जनरल स्मटस् ने गांधीजी के सामने प्रस्ताव रखा - यदि भारतीय स्वेच्छा से पंजीकरण करवा लेंगे, तो अनिवार्य पंजीकरण का कानून रद्द कर दिया जाएगा। समझौता हो गया और स्मटस् ने गांधीजी सं कहा कि अब वे आजाद हैं। जब गांधीजी ने अन्य भारतीय बंदियों के बारे में पूछा तब जनरल ने कहा कि बाकी लोगों को अगली सुबह रिहा कर दिया जायेगा। गांधीजी जनरल के वचन को सत्य मानकर जोहान्सबर्ग लौटे। इधर स्मटस् ने अपना वचन भंग कर दिया। इसे लेकर भारतीय आग बबूला हो उठे। जोहान्सबर्ग में 16 अगस्त 1908 को विशाल सभा हुई, जिसमें काले कानून के प्रति विरोध प्रदर्शित करते हुए लोगों ने पंजीकरण प्रमाण पत्रों की होली जलाई। गांधीजी खुद कानून का उल्लंघन करने के लिए आगे बढ़े। एक बार फिर 10 अक्तूबर 1908 को वे गिरफ्तार हुए। इस बार उन्हें एक महीने के कठोर श्रम कारावास की सजा सुनाई गई। गांधीजी का संघर्ष जारी था। फरवरी 1909 में एक बार फिर उन्हें गिरफ्तार कर तीन महीने के कठोर कारावास की सजा दी गई। इस बार की जेल यात्रा में उन्होंने काफी वाचन किया। यहाँ वे नित्य प्रार्थना भी करते थे। वर्ष 1911 में गोखलेजी दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर आये। बोअर जनरलों ने गांधीजी और गोखले से भारतीयों के खिलाफ अधिक भेदभाव वाली कुव्यवस्थाओं को समाप्त करने का वादा किया। लेकिन व्यक्ति कर की व्यवस्था बंद नहीं की गई। गांधीजी संघर्ष करने के लिए तैयार हो गये। महिलाएँ जो अब तक आंदोलन में सक्रिय नहीं थीं, गांधीजी के आवाहन पर उठ खड़ी हुईं। उनमें बलिदान की मशाल जल उठी। अब सत्याग्रह नये तेवर के रूप में सामने आ रहा था। गांधीजी ने निश्चय किया कि महिलाओं का एक जत्था कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए ट्रंसवाल से नाताल जायेगा। वह भी बिना कर दिये। महिलाएँ इस संघर्ष यज्ञ में बढ़-चढ़कर शामिल हुईं। उनकी पत्नी कस्तूरबा भी इसमें शामिल हुईं। इस कानून को तोड़ने का प्रयास कर रहीं महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधीजी के मार्गदर्शन में कई जगह हड़तालें हुईं। अहिंसा का मार्ग अपनाते हुए गांधीजी ने अपना सत्याग्रह शुरू किया। गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। कई सत्याग्रही कमर कस चुके थे। गांधीजी का सत्याग्रह रंग ले चुका था। कई लोगों ले अपनी गिरफ्तारीयाँ दीं। पुलिस की पिटाई और भुखमरी के बावजूद सत्याग्रही अपने मार्ग पर अटल थे। गांधीजी का सत्याग्रह एक अचूक हथियार सिद्ध हुआ। अंततः समझौता हुआ और "भारतीय राहत विधेयकृ पास हुआ। कानून में यह प्रावधान किया गया कि बिना अनुमति भारतीय एक प्रांत से दूसरे प्रांत में तो नहीं जा सकते, लेकिन यहाँ जन्में भारतीय केप कॉलनी में जाकर रह सकेंगे। अलावा इसके भारतीय पद्धति के विवाहों को वैध घोषित किया गया। अनुबंधित श्रमिकों पर से व्यक्ति कर हटा लिया गया, साथ ही बकाया रद्द कर दिया गया। अब दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी का कार्य पूर्ण हो चुका था। 18 जुलाई 1914 को वे गोखले के बुलावे पर समुद्री मार्ग से अपनी पत्नी के साथ इंग्लैंड रवाना हुए। जाने से पहले जेल में अपने द्वारा बनाई गई चपलों की जोड़ी उन्होंने स्मटस् को भेंट दी। जनरल स्मटस् ने इसे पच्चीस वर्षों तक पहना। बाद में उन्होंने लिखा, "तब से मैंने कई गर्मियों में इन चपलों को पहना है, हालांकि मुझे यह अहसास है कि इतने महान व्यक्ति की मैं किसी प्रकार बराबरी नहीं कर सकता।" |
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