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18-04-2012, 12:53 AM | #1 |
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ममता बनर्जी के कार्टून
दोस्तों मैं ममता बनर्जी के कुछ कार्टून पेश कर रहा हूँ, यह सब कार्टून इंटरनेट से लिए गए हैं, और इनको यहाँ दिखाने के लिए मैं ही जिम्मेदार हूँ, और ऐसा हो सकता है की बंगाल सरकार मुझे गिरफ्तार कर ले. और आप लोग भी सावधान रहे, इस सूत्र में पोस्ट करने से आप भी खतरे में फस सकते हैं.
यह सूत्र समर्पित है जादवपुर University के प्रोफ़ेसर अम्बिकेश मोहपात्रा को जिन्होंने यह कार्टून बना कर बंगाल के इतिहास में अपना नाम अमर करवा लिया.
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18-04-2012, 12:56 AM | #2 |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
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18-04-2012, 12:57 AM | #3 |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
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18-04-2012, 12:57 AM | #4 |
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18-04-2012, 12:57 AM | #5 |
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18-04-2012, 12:59 AM | #6 |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
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18-04-2012, 10:50 AM | #7 | |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
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बहुत ही अच्छे कार्टून संग्रह
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19-04-2012, 02:24 PM | #8 |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
यूं तो अभिषेक जी ने इस सूत्र का निर्माण किया था ताकि इसमे ममता दीदी के कार्टूनों को लगाया जा सके, क्योंकि दीदी को अपने कार्टून पसंद नहीं है। या यूं कहिए की वो सच देखना/सुनना नहीं चाहती है। तभी तो कार्टून बनाने वाले प्रोफेसर को जेल भेजवा दिया। मगर सच तो सच है, वो तो दिखेगा ही।
इस मुद्दे पर प्रसिद्ध पत्रकार श्री पुण्य प्रसून बाजपेयी जी ने प्रकाश डाला है, उनके विचारो को यहा हूबहू दे रहा हूँ। |
19-04-2012, 02:26 PM | #9 |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
ममता : संघर्ष से कार्टून तक बंगाल में बदल गयी मां, माटी-मानुष की परिभाषा पश्चिम बंगाल में कुछ भी ममता बनर्जी के हक में अच्छा नहीं हो रहा है. अपना कार्टून बनाने वाले प्रोफेसर को जेल भिजवाने वाले ममता के लोग अब वामपंथियों से जातीय दुश्मनी पर उतर आये हैं. वे वामपंथियों से रिश्तेदारी तो दूर, उनसे बातचीत करने से भी परहेज करने लगे हैं. कल तक ममता के साथ खड़ा बुद्धिजीवी वर्ग भी दूर हो चला है. झुग्गी-झोपड़ी हटाने का विरोध करने वाले वैज्ञानिक को जेल में ठूंस दिया गया, तो एक अन्य वैज्ञानिक के घर दिनदहाड़े गुंडों ने घुस कर सबके सामने उनकी बेटी को निर्वस्त्र कर दिया. इन अराजकताओं के चलते बंगाल में ममता की लोकप्रियता में भारी गिरावट हुई है, लेकिन उनके सलाहकार उन्हें इन सच्चइयों से रूबरू नहीं होने देना चाहते. |
19-04-2012, 02:28 PM | #10 |
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Re: ममता बनर्जी के कार्टून
बंगाल का नया संकट संसदीय राजनीति का वह चेहरा है, जिसे बहुसंख्य तबके ने इस उम्मीद से जिया कि लोकतंत्र आयेगा. लेकिन सत्ता ने उसी जमीन पर अपना सियासी हल चलाना शुरू कर दिया, जिसने लोकतंत्र की दुहाई देकर सत्ता पायी.
अगर बंगाल के सियासी तौर-तरीकों में बीते चार दशकों को तौलें, तो याद आ सकता है कि एक वक्त सिद्धार्थ शंकर रे सत्ता की हनक में नक्सलबाड़ी को जन्म दे बैठे. फिर नक्सलबाड़ी से निकले वामपंथी मिजाज ने सिंगूर से लेकर नंदीग्राम तक, जो लकीर खींची, उसने ममता के मां, माटी मानुष की थ्योरी को सत्ता की ड्योढ़ी तक पहुंचा दिया. लेकिन इन सियासी प्रयोग में वामपंथ की एक महीन लकीर हमेशा मार्क्स-एंगेल्स को याद करती रही. शायद इसीलिए तीन दशक की वामपंथी सत्ता को उखाड़ने के लिए ममता की पहल से कई कदम आगे वामपंथी बंगाल ही चल रहा था, जिसे यह मंजूर नहीं था कि कार्ल मार्क्स और फ्रेड्रिक एंगेल्स को पढ़ कर वामपंथी सत्ता ही वामपंथ भूल जाये. लेकिन सत्ता पलटने के बाद वाम बंगाली हतप्रभ है कि अब तो कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ही सत्ता को बर्दाश्त नहीं है. वाम विचार से प्रभावित अखबार भी सत्ता को मंजूर नहीं है. जिस अतिवाम के हिंसक प्रयोग को वामपंथी सत्ता की काट के लिए मां, माटी, मानुष का नारा लगा कर ममता ने इस्तेमाल किया, उसी अतिवाम के किशनजी का इनकांउटर करा कर ममता ने संकेत दे दिये कि जब संसदीय सियासत ही लोकतंत्र का मंदिर है, तो इसके नाम पर किसी की भी बलि दी ही जा सकती है. इस कड़ी में अस्पतालों में दुधमुंहे बच्चों की मौत के लिए भी पल्ला झाड़ना हो या फिर बलात्कार के मामले में भुक्तभोगी को ही कटघरे में खड़ा करने का सत्ता का स्वाद और इन सबके बीच खुद पर बनते कार्टून को भी बर्दाश्त ना कर पाने की हनक. ये परिस्थितियां सवाल सिर्फममता को लेकर नहीं करतीं, बल्कि संसदीय चुनाव की जीत में ही समूची स्वतंत्रता, लोकतंत्र और जनता की नुमाइंदगी के अनूठे सच पर भी सवाल खड़ा करती है |
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