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23-09-2011, 01:43 AM | #1 |
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कुंवर बेचैन की रचनाएँ
कुंवर बेचैन जन्म : ०१ जुलाई १९४२ उपनाम : बेचैन जन्म स्थान : ग्राम ,उमरी ,जिला मुरादाबाद ,उत्तर प्रदेश ,भारत
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23-09-2011, 01:44 AM | #2 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
दुखों की स्याहियों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी कि जैसे सोख़्ता हो। जनम से मृत्यु तक की यह सड़क लंबी भरी है धूल से ही यहाँ हर साँस की दुलहिन बिंधी है शूल से ही अँधेरी खाइयों के बीच अपनी ज़िंदगी ऐसी कि ज्यों ख़त लापता हो। हमारा हर दिवस रोटी जिसे भूखे क्षणों ने खा लिया है हमारी रात है थिगड़ी जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है घनी अमराइयों के बीच अपनी ज़िंदगी, जैसे कि पतझर की लता हो। हमारी उम्र है स्वेटर जिसे दुख की सलाई ने बुना है हमारा दर्द है धागा जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है कई शहनाइयों के बीच अपनी ज़िंदगी जैसे अभागिन की चिता हो।
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23-09-2011, 01:48 AM | #3 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है। तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं तब आया करती थी महक पसीने से आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से अब अनाम जंजीरों ने आ जकड़ी है। तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम शहरों में आते ही बने बहीखाते नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से चेहरे पर अब जाल-पूरती मकड़ी है। तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से अब वह केवल पात-चबाती बकरी है।
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23-09-2011, 01:50 AM | #4 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नहीं पाती मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते 'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते
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23-09-2011, 02:15 AM | #5 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
अधर-अधर को ढूँढ रही है,ये भोली मुस्कान
जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान नयन-गेह से निकले आँसू ऐसे डरे-डरे भीड़ भरा चौराहा जैसे, कोई पार करे मन है एक, हजारों जिसमें बैठे हैं तूफान जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान साँसों के पीछे बैठे हैं नये-नये खतरे जैसे लगें जेब के पीछे कई जेब-कतरे तन-मन में रहती है हरदम कोई नयी थकान जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान
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23-09-2011, 08:02 PM | #6 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।
सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाविए। ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए। चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए। मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे ज़ख़्मों के आस पास यों ज्यादा न दाबिए। पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।
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30-09-2011, 06:00 PM | #7 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
बहुत अच्छा सुत्र बनाया हैँ आपने
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जो सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक से हैं झगड़ा झूठे विषयों में होता है। -------------------------------------------------------------------------- जिनके घर शीशो के होते हे वो दूसरों के घर पर पत्थर फेकने से पहले क्यू नहीं सोचते की उनके घर पर भी कोई फेक सकता हे -------------------------------------------- Gaurav Soni
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01-10-2011, 12:26 AM | #8 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
मिलना और बिछुड़ना दोनों
जीवन की मजबूरी है। उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है। शाखों से फूलों की बिछुड़न फूलों से पंखुड़ियों की आँखों से आँसू की बिछुड़न होंठों से बाँसुरियों की तट से नव लहरों की बिछुड़न पनघट से गागरियों की सागर से बादल की बिछुड़न बादल से बीजुरियों की जंगल जंगल भटकेगा ही जिस मृग पर कस्तूरी है। उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है। सुबह हुए तो मिले रात-दिन माना रोज बिछुड़ते हैं धरती पर आते हैं पंछी चाहे ऊँचा उड़ते हैं सीधे सादे रस्ते भी तो कहीं कहीं पर मुड़ते हैं अगर हृदय में प्यार रहे तो टूट टूटकर जुड़ते हैं हमने देखा है बिछुड़ों को मिलना बहुत जरूरी है। उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हममें दूरी है।
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01-10-2011, 11:05 AM | #9 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
सुबह सुबह
सूरज के पास बैठी है जिंदगी उदास जाने क्यों? जीवन के सागर में तैर रहे मछली-से दिन मछुए की बंसी के काँटे-सा अनजानी संध्या का छिन अंबर के कागज के पास बैठी हैं स्याहियाँ उदास जाने क्यों ?
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05-10-2011, 05:31 PM | #10 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
(रात)
जाते-जाते दिवस, रात की पुस्तक खोल गया। रात कि जिस पर सुबह-शाम की स्वर्णिम ज़िल्द चढ़ी गगन-ज्योतिषी ने तारों की भाषा ख़ूब पढ़ी आया तिमिर, शून्य के घट में स्याही घोल गया। (सुबह) देख भोर को नभ-आनन पर छाई फिर लाली पेड़ों पर बैठे पत्ते फिर बजा उठे ताली इतनी सारी- चिड़ियों वाला पिंजड़ा डोल गया। (दोपहर) ड्यूटी की पाबंद, देखकर अपनी भोर-घड़ी दिन के ऑफ़िस की सीढ़ी पर गोरी धूप चढ़ी सूरज- 'बॉस' शाम तक कुछ 'मैटर' बोल गया। (शाम) नभ के मेज़पोश पर जब स्याही-सी बिखरी शाम हुई ऑफिस की सीढी धूप-लली उतरी तम की भीड़ धूप का स्वर्णिम कंगन मौल गया।
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