|
09-11-2012, 10:06 PM | #1 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
सैय्यद इंशा अल्ला खाँ की 'रानी केतकी की कहानी'
|
09-11-2012, 10:07 PM | #2 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट।
और न किसी बोली का मेल है न पुट।। सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियाँ जातियाँ जो साँसें हैं, उसके बिन ध्यान यह सब फाँसे हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खेलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पड़े और कड़वा कसैला क्यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बड़े से बड़े अगलों ने चक्खी है। देखने को दो आँखें दीं और सुनने के दो कान। नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान।। मिट्टी के बासन को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड़ सके। सच है, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनानेवालो को क्या सराहे और क्या कहे। यों जिसका जी चाहे, पड़ा बके। सिर से लगा पाँव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्यान में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियाँ खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करैं। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिये यों कहा है - |
09-11-2012, 10:07 PM | #3 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लड़के वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उम्र घराने छूट किसी चोर ठग से क्या पड़ी! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूँ तीसों घड़ी।
|
09-11-2012, 10:08 PM | #4 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
डौल डाल एक अनोखी बात का
एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी बोली का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलने वालों में से एक कोई पढ़े-लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढ़े धाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुँह थुथाकर, नाक भी चढ़ाकर, आँखें फिराकर लगे कहने - यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदवीपन भी न निकले और भाखापन भी न हो। बस जैसे भले लोग अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सब डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नही होने का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर झुँझलाकर कहा - मैं कुछ ऐसा बड़बोला नहीं जो राई को परबत कर दिखाऊँ और झूठ सच बोलकर उँगलियाँ नचाऊँ, और बे-सिर बे-ठिकाने की उलझी-सुलझी बातें सुनाऊँ, जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकालता? जिस ढब से होता, इस बखेड़े को टालता। |
09-11-2012, 10:08 PM | #5 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
इस कहानी का कहनेवाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है। दहना हाथ मुँह पर फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूद-फाँद, लपट झपट दिखाऊँ जो देखते ही आप के ध्यान का घोड़ा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अल्हड़पन में है, हिरन के रूप में अपनी चौकड़ी भूल जाय।
टुक घोड़े पर चढ़ के अपने आता हूँ मैं। करतब जो कुछ है, कर दिखता हूँ मैं।। उस चाहनेवाले ने जो चाहा तो अभी। कहता जो कुछ हूँ, कर दिखाता हूँ मैं।। अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर देखिए, किस ढंग से बढ़ चलता हूँ और अपने फूल के पंखड़ी जैसे होठों से किस किस रूप के फूल उगलता हूँ। |
09-11-2012, 10:08 PM | #6 |
Special Member
Join Date: Nov 2010
Location: Patal Lok
Posts: 1,867
Rep Power: 17 |
Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
कहानी के जीवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार
किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुँवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जीवन की जोत में सूरज की एक स्रोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उसने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ यों ही सी मसें भीनती चली थीं। पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उसने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को अपने घोड़े पर चढ़के अठखेल और अल्हड़पन के साथ देखता भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट पोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सब छोड़ छाड़कर घोड़ा फेंका। कोई घोड़ा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुँवर उदैभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जँभाइयाँ, अँगड़ाइयाँ लेता, हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूँढने। इतने में कुछ एक अमराइयाँ देख पड़ी, तो उधर चल निकला; तो देखता है वो चालीस-पचास रंडियाँ एक से एक जोबन में अगली झूला डाले पड़ी झूल रही है और सावन गातियाँ हैं। ज्यों ही उन्होंने उसको देखा - तू कौन? तू कौन? की चिंघाड़ सी पड़ गई। उन सभों में एक के साथ उसकी आँख लग गई। कोई कहती थी यह उचक्का है। कोई कहती थी एक पक्का है। वही झूलेवाली लाल जोड़ा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहते थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने को बहुत सी नाँह-नूह की और कहा - "इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न धक, जो तुम झट से टहक पड़े। यह न जाना, यह रंडियाँ अपने झूल रही हैं। अजी तुम तो इस रूप के साथ इस रव बेधड़क चले आए हो, ठंडे ठंडे चले जाओ।" |
Bookmarks |
|
|