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#1 |
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![]() जन्म: 28 अगस्त 1896 निधन: 1982 उपनाम: फ़िराक़ जन्म स्थान: गोरखपुर, भारत कुछ प्रमुख कृतियाँ: गुले-नग़मा, बज्में जिन्दगी रंगे-शायरी, सरगम विविध: फ़िराक़ साहब का मूल नाम रघुपति सहाय था। उन्हें गुले-नग़मा के लिये 1969 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। जीवनी: फ़िराक़ गोरखपुरी / परिचय
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..." click me
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#2 |
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![]() अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभी लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ाब जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदें हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गाँ जब फ़ितने पर तोले हैं इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होये है नदीम ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोले हैं ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं हम लोग अब तो पराये-से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़" अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं
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#3 |
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![]() इस सुकूते *फ़िज़ा में खो जाएं
आसमानों के राज हो जाएं हाल सबका जुदा-जुदा ही सही किस पॅ हँस जाएं किस पॅ रो जाएं राह में आने वाली नस्लों के ख़ैर कांटे तो हम न बो जाएं िज़न्दगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त सोच लें और उदास हो जाएं रात आयी फ़ि*राक दोस्तो नहीं किससे कहिए कि आओ सो जाएं
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#4 |
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![]() उमीदे-मर्ग कब तक
*ज़ि*न्दगी का दर्दे-सर कब तक यॅ माना सब्र करते हैं महब्बत में मगर कब तक दयारे दोस्त हद होती है यूँ भी दिल बहलने की न याद आयें ग़रीबों को तेरे दीवारो-दर कब तक यॅ तदबीरें भी तक़दीरे- महब्बबत बन नहीं सकतीं किसी को हिज्र में भूलें रहेंगे हम मगर कब तक इनायत1 की करम की लुत्फ़ की आख़ि*र कोई हद है कोई करता रहेगा चारा-ए-जख्*़मे ज़िगर2 कब तक किसी का हुस्नर रूसवा हो गया पर्दे ही पर्दे में न लाये रंग आख़िरकार ता*सीरे- नज़र कब तक
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#5 |
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![]() उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी
इक नागन-सी लहराने लगी जब ज़ि*क्र तेरा महफ़ि*ल में छिड़ा क्यों आँख तेरी शरमाने लगी क्या़ मौजे-सबा थी मेरी नज़र क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी महफ़ि*ल में तेरी एक-एक अदा कुछ साग़र-सी छलकाने लगी या रब यॉ चल गयी कैसी हवा क्यों दिल की कली मुरझाने लगी शामे-वादा कुछ रात गये तारों को तेरी याद आने लगी साज़ों ने आँखे झपकायीं नग़्मों को मेरे नींद आने लगी जब राहे-ज़ि*न्दगी काट चुके हर मंज़ि*ल की याद आने लगी क्या उन जु़ल्फ़ों को देख लिया क्यों मौजे-सबा थर्राने लगी तारे टूटे या आँख कोई अश्कों से गुहर1 बरसाने लगी तहज़ीब उड़ी है धुआँ बन कर सदियों की सई2 ठिकाने लगी कूचा-कूचा रफ़्ता-रफ़्ता वो चाल क़यामत ढाने लगी क्या बात हुई ये आँख तेरी क्यों लाखों कसमें खाने लगी अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे रूख़सारों के फूल खिलाने लगी फि*र रात गये बज़्मे-अंजुम रूदाद3 तेरी दोहराने लगी फि*र याद तेरी हर सीने के गुलज़ारों को महकाने लगी बेगोरो-कफ़न जंगल में ये लाश दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी वो सुब्ह* की देवी ज़ेरे शफ़क़ घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी उस वक्त फ़ि*राक हुई यॅ ग़ज़ल जब तारों को नींद आने लगी
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#6 |
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![]() ए ज़ज़्बे निहां और कोई है कि वही है
खिलवत कदा ए दिल में आवाज हुई है कह दे जरा सर तेरे दामन में छुपा लूं और यूं तो मुकद्दर में मेरे बेवतनी है वो रंग हो या बू हो कि बाद ए सहरी हो ए बाग ए जहां जो भी यहां है, सफ़री है ये बारिश ए अनवर, ये रंगीनी ए गुफ़्तार गुल बारी ओ गुल सैरी ओ गुल पैरहानी है ए ज़िन्दगी ए इश्क में समझा नहीं तझको जन्नत भी, जहन्नुम भी, ये क्या बूलजबी है है नुत्क जिसे चूमने के वास्ते बेताब सौ बात की एक बात तेरी बे-सखुनी है मौजे हैं मय ए सुर्ख की या खते ए दाहन है लब है की शोला ए बर्क ए अम्बी है जागे हैं फ़िराक आज गम ए हिज़्रा में ता सुबह आहिस्ता से आ जाओ अभी आंख लगी है.
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#7 |
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![]() उस ज़ुल्फ़ की याद जब आने लगी
इक नागन-सी लहराने लगी जब ज़ि*क्र तेरा महफ़ि*ल में छिड़ा क्यों आँख तेरी शरमाने लगी क्या़ मौजे-सबा थी मेरी नज़र क्यों ज़ुल्फ़ तेरी बल खाने लगी महफ़ि*ल में तेरी एक-एक अदा कुछ साग़र-सी छलकाने लगी या रब यॉ चल गयी कैसी हवा क्यों दिल की कली मुरझाने लगी शामे-वादा कुछ रात गये तारों को तेरी याद आने लगी साज़ों ने आँखे झपकायीं नग़्मों को मेरे नींद आने लगी जब राहे-ज़ि*न्दगी काट चुके हर मंज़ि*ल की याद आने लगी क्या उन जु़ल्फ़ों को देख लिया क्यों मौजे-सबा थर्राने लगी तारे टूटे या आँख कोई अश्कों से गुहर1 बरसाने लगी तहज़ीब उड़ी है धुआँ बन कर सदियों की सई2 ठिकाने लगी कूचा-कूचा रफ़्ता-रफ़्ता वो चाल क़यामत ढाने लगी क्या बात हुई ये आँख तेरी क्यों लाखों कसमें खाने लगी अब मेरी निगाहे-शौक़ तेरे रूख़सारों के फूल खिलाने लगी फि*र रात गये बज़्मे-अंजुम रूदाद3 तेरी दोहराने लगी फि*र याद तेरी हर सीने के गुलज़ारों को महकाने लगी बेगोरो-कफ़न जंगल में ये लाश दीवाने की ख़ाक उड़ाने लगी वो सुब्ह* की देवी ज़ेरे शफ़क़ घूँघट-सी ज़रा सरकाने लगी उस वक्त फ़ि*राक हुई यॅ ग़ज़ल जब तारों को नींद आने लगी
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#8 |
Junior Member
Join Date: Mar 2011
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nice post Sikndar sahab
![]() कौन है गमगी, कौन है शादाँ- फ़िराक गोरखपुरी सबकी हालत एक है नादा कौन है गमगी, कौन है शादाँ उसका पाना है वह करिश्मा सोच तो मुश्किल, देख तो आसा बादाकशो को फिक्र है जिसकी बादा न सागर, बर्क न बारां दुनिया को दुनिया करना है ये मनसूबे, साज न सामां ढूंढ़ ले मुझको दुनिया-दुनिया सहारा-सहरा, जिन्दा-जिन्दा उम्र 'फ़िराक' ने युही बसर की कुछ गेम जाना, कुछ गमे दौरा - फ़िराक गोरखपुरी मायने शादाँ=खुश, बादाकश=शराब पीने वाले, साग़र=जाम, बर्क=बिजली, बारां=बारिश, सहारा=रेगिस्तान, जिन्दा=कैदखाना |
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#9 |
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![]() कभी पाबन्दियों से छुट के भी दम घुटने लगता है
दरो-दीवार हो जिनमें वही ज़िन्दाँ नहीं होता हमारा ये तजुर्बा है कि ख़ुश होना मोहब्बत में कभी मुश्किल नहीं होता, कभी आसाँ नहीं होता बज़ा है ज़ब्त भी लेकिन मोहब्बत में कभी रो ले दबाने के लिये हर दर्द ऐ नादाँ ! नहीं होता यकीं लायें तो क्या लायें, जो शक लायें तो क्या लायें कि बातों से तेरी सच झूठ का इम्काँ नहीं होता
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#10 | |
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