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25-01-2014, 07:36 PM | #1 |
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मनोरंजक लोककथायें
मनोरंजक लोककथायें
लोककथायें जन-जीवन में प्रचलित वे कथायें या कहानियाँ हैं जो मनुष्य की कथा सुनने-सुनाने की प्रवृत्ति के चलते अस्तित्व में आयीं और कालान्तर में विभिन्न परिवर्तनों को अपनाते हुये अपने वर्तमान स्वरूप में प्राप्त होती हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ निश्चित कथानक क्षेत्र विशेष की संस्कृति, रूढ़ियों और शैलियों में ढल कर लोककथाओं के रूप में प्रवृत्तियों और चरित्रों से माध्यम से विकसित होती हैं। एक ही कथा विभिन्न संदर्भों और अंचलों में बदलकर अनेक रूप ग्रहण कर लेती है। लोकगीतों की भाँति लोककथाएँ भी हमें मानव की परंपरागत विरासत के रूप में प्राप्त होती हैं। दादी-नानी के पास बैठकर बचपन में जो कहानियाँ सुनी जाती है या लोक जीवन में जो कथाएं पीढ़ी दर पीढ़ी चली आती हैं उनका निर्माण कब, कहाँ कैसे और किसके द्वारा हुआ, यह बताना असंभव है। इस सूत्र में हम आपको देश विदेश दोनों जगह की लोक कथाओं से परिचित करायेंगे. आशा है यह कहानियाँ आपको भरपूर मनोरंजन प्रदान करेंगी तथा सम्बंधित स्थानों की संस्कृति से भी परिचित कराएंगी.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 06-03-2014 at 04:49 PM. |
25-01-2014, 07:38 PM | #2 |
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Re: लोककथा संसार
नार्वे की लोक कथा
घास में गुड़िया एक राजा था। उसके बारह बेटे थे। जब वे बड़े हो गए, तब राजा ने उनसे कहा -"तुम्हे अपने अपने लिए एक-एक पत्नी ढूंढकर लानी है। लेकिन वह पत्नी एक ही दिन में सूत कातकर कपड़ा बुने, फिर उससे एक कमीज सिलकर दिखाए, तभी मैं उसे बहू के रूप में स्वीकार करूंगा।" इसके बाद राजा ने अपने बेटों को एक-एक घोड़ा दिया। वे सभी अपनी-अपनी पत्नी खोजने निकल पड़े। कुछ ही दूर गए थे कि उन्होंने आपस में कहा कि वे अपने छोटे भाई को साथ नहीं ले जाएंगे। ग्यारह भाई अपने छोटे भाई को अकेला छोड़कर चले गए। वह रास्ते में सोचने लगा कि वह आगे जाए या लौट जाए। उसका चेहरा उतर गया था। वह घोड़े से उतरकर घास पर बैठ गया और रोने लगा। रोते-रोते अचानक चौंक गया। उसके सामने की घास हिली और कोई सफेद चीज उसकीओर आने लगी। जब वह चीज राजकुमार के पास आई, तो उसे एक नन्ही-सी लड़की दिखाई दी। उसने कहा- " मैं छोटी-सी गुड़िया हूँ। यहां घास पर ही रहती हूँ। तुम यहां क्यों आए हो? " राजकुमार ने अपने बड़े भाइयों के बारे में बताया। उसने अपने पिता की शर्त के बारे मेंभी बताया। फिर उसने गुड़िया से पूछा-" क्या तुम एक दिन में सूत कातकर, कपड़ा बुनकर एक कमीज सिल सकती हो? अगर यह कर दोगी, तो मैं तुमसे शादी कर लूंगा। मैं अपने भाइयों के दुर्व्यवहारों के कारण आगे नहीं जाना चाहता।"
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25-01-2014, 07:42 PM | #3 |
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Re: लोककथा संसार
गुड़िया ने 'हाँ' कर दी। तुरंत ही उसने सूत काता कपड़ा बुना और एक छोटी-सी कमीज लेकर महल की ओर चल पड़ा। जब वह महल में पहुंचा तो उसे शर्म आरही थी, क्योंकि कमीज बहुत छोटी थी। फिर भी राजा ने उसे विवाह करने की अनुमति दे दी।
राजकुमार गुड़िया को लेने चल पड़ा। जब वह घास पर बैठी गुड़िया के पास पहुंचा, तो उसने गुड़िया से घोड़े पर बैठने को कहा। गुड़िया ने कहा- " मैं तो अपने दो चूहों के पीछे चांदी की चम्मच बांधकर उसमें बैठकर जाऊंगी।" राजकुमार ने उसका कहना मान लिया। राजकमार घोड़े पर सवार हो गया। गुड़िया चूहों के पीछे बंधी चांदी की चम्मच पर सवार हो गई। राजकुमार सड़क के एक ओर चलने लगा, क्योंकि उसे डर था कि कहीं उसके घोड़े का पांव गुड़िया के ऊपर न पड़ जाए। गुड़िया सड़क के जिस ओर चल रही थी, उस ओर एक नदी बह रही थी। अचानक गुड़िया नदी में गिर गई। लेकिन जब वह नदी के अंदर से ऊपर आई, तो राजकुमार के समान बड़ी हो गई थी। राजकुमार बहुत प्रसन्न हुआ। राजकुमार महल में पहुंचा, तो उसके सभी बड़े भाई अपनी-अपनी होने वाली पत्नियों के साथ वहां आ चुके थे। लेकिन उसके भाइयों की पत्नियों का न व्यवहार अच्छा था , न ही वे सुन्दर थीं। जब उन्होंने अपने भाई की सुन्दर पत्नी को देखा, तो वे सभी जल-भुन गए। राजा को पता चला कि बड़े पुत्रों ने छोटे राजकुमार के साथ दुर्व्यवहार किया है, तो उसने बड़े बेटों की खूब निंदा की। फिर छोटे बेटे को गद्दी सौंप दी। छोटे राजकुमार का विवाह गुड़िया के साथ धूमधाम से हुआ। अब छोटा राजकुमार राजा था और गुड़िया रानी। दोनों सुख से रहने लगे। (आलेख साभार: सुरेश चन्द्र शुक्ल)
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25-01-2014, 09:19 PM | #4 |
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Re: लोककथा संसार
स्वीडन की लोक-कथा:
प्रियतमा के लिये...! स्वीडन की यह लोक कथा, मूलतः डेनिश प्रेमी जोड़े को लेकर कही गई है ! कथा का नायक आरिल्ड एक कुलीन डेनिश परिवार का युवा है , वो डेनिश नौसेना में कार्यरत है और अपने बचपन की मित्र थाले से प्रेम करता है ! दोनों पड़ोसी देशों के मध्य शांति के दिनों में वो, स्वीडन के राजा एरिक के राज्याभिषेक में एक मेहमान बतौर सम्मिलित भी हुआ था ! कालांतर में, किसी कारणवश, स्वीडन और डेनमार्क में युद्ध हो जाने के बाद, वो युद्धबंदी के तौर पर स्वीडन की कैद में था, तो उसकी प्रेमिका थाले ने उसे पत्र लिख कर सूचित किया कि, उसके पिता ने, उसके विरोध के बावजूद, उसका विवाह, किसी अन्य व्यक्ति से तय करते हुए, विवाह की तिथि भी पक्की कर दी है, क्योंकि उनका मानना है कि, आरिल्ड अब कभी भी अपने वतन वापस नहीं आ पायेगा ! कैदखाने में अपनी प्रेमिका का पत्र पाकर आरिल्ड भावुक हो जाता है और उसकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं ! जेल की कोठरी की धुंधली रौशनी में पत्र को ढीले हाथों से थामे हुए, वो युद्ध की क्रूरता और उसका भयावह परिणाम देख रहा था ! उसने अपनी प्रेमिका से ब्याह का वचन दिया था, जो उसकी आजादी के बिना संभव ही नहीं था ! लड़खड़ाते हुए क़दमों से वो उठा और उसने स्वीडन के राजा एरिक को पत्र लिखा, महामहिम , आपको स्मरण होगा कि मैं आपके राज्याभिषेक के समय , आपका सम्मानित मेहमान था और आज आपका बंदी हूं ! राज्याभिषेक के दिन आपने मुझे अपना मित्र माना था, सो मैं आपसे विनती करता हूं कि आप मुझे मेरी प्रियतमा से ब्याह करने के लिए मुक्त करने की कृपा करें ! मैं आपको वचन देता हूं कि मैं, अपनी रोपणी की पहली फसल कटते ही आपकी कैद में वापस आ जाऊंगा ! राजा एरिक ने युवक के वचन पर विश्वास करते हुए उसे एक फसल की समयावधि के लिए , मुक्त करने के आदेश दे दिये ! डेनमार्क पहुंचने पर थाले से उसकी आनंदमयी मुलाकात हुई , किन्तु थाले के पिता उसकी स्वतंत्रता की एक फसली वचनबद्धता वाली योजना से खुश नहीं थे, हालांकि विरोध के बावजूद उन्होंने प्रेमी युगल का ब्याह हो जाने दिया !
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25-01-2014, 09:21 PM | #5 |
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Re: लोककथा संसार
आरिल्ड को पता था कि, पहली फसल कटते ही, उसे राजा एरिक की कैद में वापस जाना होगा, अतः उसने सोच विचार कर, एक विशाल भूक्षेत्र में बीजारोपण कर दिया ! बसंत के मौसम के कुछ माह बाद ही, राजा एरिक के दूत ने आकर, आरिल्ड से कहा, फसल कटाई का मौसम बीत चुका है और हमारे राजा आपकी वापसी का इंतज़ार कर रहे हैं ! इस पर आरिल्ड ने कहा, मेरी फसल अभी कैसे कटेगी ? वो तो अभी तक अंकुरित भी नहीं हुई है ! यह सुनकर दूत ने आश्चर्य से पूछा, अंकुरित भी नहीं हुई ? ऐसा क्या रोपा है आपने ? ...आरिल्ड ने कहा पाइन के पौधे ! अपने दूत से यह किस्सा सुनकर, राजा एरिक ने हंसते हुए कहा, कि वो एक योग्य व्यक्ति है, उसे कैद में नहीं रखा जाना चाहिये ! इस तरह से आरिल्ड और थाले हमेशा एक साथ बने रहे ! कहते हैं कि पाइन का एक शानदार जंगल उनके प्रेम की विरासत बतौर आज भी जीवित है !
{यह आख्यान मूलतः डेनमार्क के प्रेमी युगल का है, किन्तु शांति काल के मित्रवत व्यवहार और युद्ध काल के शत्रुवत व्यवहार ने इसे दो देशों की कथा में बदल दिया है ! नायक अपने बचपन की सखि से ब्याह के लिए वचनबद्ध है तथा वह उससे ब्याह करने देने की छूट की एवज में शत्रु देश के राजा की कैद में वापस जाने के लिए भी अपना वचन दे बैठता है, उसका भावी श्वसुर उसकी वचनबद्धता के प्रति आशंकित है, इसीलिये वह अपनी पुत्री का भविष्य एक कैदी के हाथों में सौंपने का इच्छुक नहीं है ! ये बात गौरतलब है कि अनिच्छुक होकर भी वह अपनी पुत्री के निर्णय का मान रखता है और प्रेमी युगल को ब्याह करने देता है ! जब तक कथा का नायक एक स्वतंत्र देश के कुलीन परिवार का युवा है और अपने देश की नौसेना में कार्यरत है तब तक उसके प्रेम पर ग्रहण नहीं लगता, किन्तु जब उसका देश युद्ध में पराजित होता है और वह स्वयं विजेता देश में युद्धबंदी हो जाता है, तब इस प्रणय गाथा का भविष्य धुंधला दिखाई देने लगता है, इसका कारण निश्चय ही ब्याह योग्य कन्या के पिता की चिंता को माना जाये}
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25-01-2014, 09:36 PM | #6 |
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Re: लोककथा संसार
चीनी लोककथा
बिल्ली का दर्पण एक दिन जंगल में शेर ने एक बिल्ली पकड़ी। वह उसे खाने की सोचने लगा। बिल्ली ने पूछा, “तुम मुझे क्यों खाना चाहते हो?” शेर ने कहा, “इसलिए कि मैं बड़ा हूँ और तुम छोटी हो।” बिल्ली ने आँखें मिचमिचाई और कहा, “नहीं, बड़ी तो मैं हूँ, तुम तो छोटे हो। तुम कैसे कहते हो कि तुम मुझसे बड़े हो?” बिल्ली की बात सुनकर शेर उलझन में पड़ गया। शेर ने मन ही मन कहा, “बात तो इसकी ठीक है। मैं कैसे जान सकता हूँ कि मैं कितना बड़ा हूँ?” बिल्ली ने कहा, “मेरे घर में एक दर्पण है, तुम दर्पण में अपने को देखोगे तो तुम्हें पता चल जाएगा।” शेर ने अपने को दर्पण में कभी नहीं देखा था, वह ऐसा करने के लिए तुरंत तैयार हो गया। बिल्ली का दर्पण बड़ा अजीब था। उसकी सतह तो उभरी हुई थी, पर पिछला भाग भीतर को धंसा हुआ था। बिल्ली ने उभरा हुआ भाग शेर के सामने कर दिया। शेर में दर्पण में देखा कि वह तो एक दुबली-पतली गिलहरी जितना लग रहा था। बिल्ली ने कहा, “पता लग गया न! कितने बड़े हो? यह दर्पण तो असल से थोड़ा बड़ा ही दिखाता है। वास्तव में तो तुम इससे भी छोटे हो।” शेर डर गया। उसने सिर झुका लिया। बिल्ली ने चुपके से दर्पण घुमा दिया। फिर बोली, “अब जरा तुम हटो और मुझे अपने को देखने दो।” आँख चुराकर शेर ने भी चुपके से देखा। दर्पण में बिल्ली बड़ी व भयानक नज़र आ रही थी। बिल्ली का मुँह तो काफी बड़ा हो गया था। वह कभी खुलता था, कभी बंद होता था और बड़ा डरावना लग रहा था। शेर ने सोचा, बिल्ली उसे खाना चाहती है। मारे डर के वह जंगल में भाग गया।
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26-01-2014, 08:25 PM | #7 |
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Re: लोककथा संसार
great story
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26-01-2014, 09:45 PM | #8 |
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Re: लोककथा संसार
हरियाणा की लोककथा
बदी का फल आलेख: शशिप्रभा गोयल किसी गांव में दो मित्र रहते थे। बचपनसे उनमें बड़ी घनिष्टता थी। उनमें से एक का नाम था पापबुद्धि और दूसरे का धर्मबुद्धि । पापबुद्धि पाप के काम करने में हिचकिचाता नहीं था। कोई भी ऐसा दिन नहीं जाता था, जबकि वह कोई-न-कोई पाप ने करे, यहां तक कि वह अपने सगे-सम्बंधियों के साथ भी बुरा व्यवहार करने में नहीं चूकता था। दूसरा मित्र धर्मबुद्धि सदा अच्छे-अच्छे काम किया करता था। वह अपने मित्रों की कठिनाइयों को दूर करने के लिए तन, मन, धन से पूरा प्रयत्न करता था। वह अपने चरित्र के कारण प्रसिद्व था। धर्मबुद्धि को अपने बड़े परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता था। वह बड़ी कठिनाईयों से धनोपार्जन करता था। एक दिन पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि के पास जाकर कहा, "मित्र ! तूने अब तक किसी दूसरे स्थानों की यात्रा नहीं की। इसलिए तुझे और किसी स्थान की कुछ भी जानकारी नहीं है। जब तेरे बेटे-पोते उन स्थानों के बारे में तुझसे पूछेंगे तो तू क्या जवाब देगा ? इसलिए मित्र, मैं चाहता हूं कि तू मेरे साथ घूमने चल।" धर्मबुद्धि ठहरा निष्कपट। वह छल-फरेब नहीं जानता था। उसने उसकी बात मान ली। ब्राह्राण से शुभ मुहूर्त निकलवा कर वे यात्रा पर चल पड़े। चलते-चलते वे एक सुन्दर नगरी में जाकर रहने लगे। पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि की सहायता से बहुत-सा धन कमाया। जब अच्छी कमाई हो गई तो वे अपने घर की ओर रवाना हुए। रास्ते में पापबुद्धि मन-ही-मन सोचने लगा कि मैं इस धर्मबुद्धि को ठग कर इस सारे धन को हथिया लूं और धनवान बन जाऊं। इसका उपाय भी उसने खोज लिया। दोनों गांव के निकट पहुंचे। पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, "मित्र, यह सारा धनगांव में ले जाना ठीक नहीं।" यह सुनकर धर्मबुद्धि ने पूछा, "इसको कैसे बचाया जा सकता है? "
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26-01-2014, 09:47 PM | #9 |
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Re: लोककथा संसार
पापबुद्धि ने कहा, "सारा धन अगर गांव में ले गये तो इसे भाई बटवा लेंगे और अगर कोई पुलिस को खबर कर देगा तो जीना मुश्किल हो जायगा। इसलिए इस धन में से आवश्यकता के अनुसार थोड़ा-थोड़ा लेकर बाकी को किसी जंगल में गाड़ दें। जब जरुरत पड़ेगी तो आकर ले जायेंगे।"
यह सुनकर धर्मबुद्धि बहुत खुश हुआ। दोनों ने वैसा ही किया और घर लौट गए। कुछ दिनों बाद पापबुद्धि उसी जंगल में गया और सारा धन निकालकर उसके स्थान पर मिटटी के ढेले भर आया। उसने वह धन अपने घर में छिपा लिया। तीन-चार दिन बाद वह धर्मबुद्धि के पास जाकर बोला, "मित्र, जो धन हम लाये थे वह सब खत्म हो चुका है। इसलिए चलो, जंगल में जाकर कुछ धन और लें आयें।" धर्मबुद्धि उसकी बात मान गया और अगले दिन दोनों जंगल में पहुंचे। उन्होंने गुप्त धन वाली जगह गहरी खोद डाली, मगर धन का कहीं भी पता न था। इस पर पापबुद्वि ने बड़े क्रोध के साथ कहा, " धर्मबुद्धि, यह धन तूने ले लिया है।" धर्मबुद्धि को बड़ा गुस्सा आया। उसने कहा, "मैंने यह धन नहीं लिया। मैंने अपनी जिंदगी में आज तक ऐसा नीच काम कभी नहीं किया ।यह धन तूने ही चुराया है।" पापबुद्वि ने कहा, "मैंने नहीं चुराया, तूने ही चुराया है। सच-सच बता दे और आधा धन मुझे दे दे, नहीं तो मैं न्यायधीश से तेरी शिकायत करूंगा।" धर्मबुद्धि ने यह बात स्वीकार कर ली। दोनों न्यायालय में पहुंचे। न्ययाधीश को सारी घटना सुनाई गई। उसने धर्मबुद्वि की बात मान ली और पापबुद्धि को सौ कोड़े का दण्ड दिया। इस पर पापबुद्धि कांपने लगा और बोला, "महाराज, वह पेड़ पक्षी है। हम उससे पूछ लें तो वह हमें बता देगा कि उसके नीचे से धन किसने निकाला है।" यह सुनकर न्यायधीश ने उन दोनों को साथ लेकर वहां जाने का निश्यच किया। पापबुद्धि ने कुछ समय के लिए अवकाश मांगा और वह अपने पिता के पास जाकर बोला, "पिताजी, अगर आपको यह धन और मेरे प्राण बचाने हों तो आप उस पेड़ की खोखर में बैठ जायं और न्यायधीश के पूछने पर चोरी के लिए धर्मबुद्धि का नाम ले दें।"
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26-01-2014, 09:48 PM | #10 |
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Re: लोककथा संसार
पिता राजी हो गये। अगले दिन न्यायधीश, पापबुद्धि और धर्मबुद्धि वहां गये। वहां जाकर पापबुद्धि ने पूछा, "ओ वृक्ष ! सच बता, यहां का धन किसने चुराया है।"
खोखर में छिपे उसके पिता ने कहा, " धर्मबुद्धि ने।" यह सुनकर न्यायधीश धर्मबुद्धि को कठोर कारावास का दण्ड देने के लिए तैयार हो गये। धर्मबुद्धि ने कहा, "आप मुझे इस वृक्ष को आग लगाने की आज्ञा दे दें। बाद में जो उचित दण्ड होगा, उसे मैं सहर्ष स्वीकार कर लूंगा।" न्यायधीश की आज्ञा पाकर धर्मबुद्धि ने उस पेड़ के चारों ओर खोखर में मिटटी के तेल के चीथड़े तथा उपले लगाकर आग लगा दी। कुछ ही क्षणों में पापबुद्धि का पिता चिल्लाया "अरे, मैं मरा जा रहा हूं। मुझे बचाओ।" पिता के अधजले शरीर को बाहर निकाला गया तो सच्चाई का पता चल गया। इस पर पापबुद्धि को मृत्यु दण्ड दिया गया। धर्मबुद्धि खुशी-खुशी अपने घर लौट गया।
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