|
09-02-2013, 01:59 PM | #1 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
लघुकथाएँ व सूक्तियाँ खलील जिब्रान अनुवाद - बलराम अग्रवाल
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:00 PM | #2 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
पागल
आप पूछते हैं कि मैं पागल कैसे हुआ? हुआ यों कि : बहुत समय पहले, देवता भी जब पैदा नहीं हुए थे, एक सुबह मैं गहरी नींद से जाग उठा। मैंने देखा कि मेरे सारे मुखौटे चोरी हो गए हैं। सात मुखौटे जिन्हें मैं सात जनमों से पहनता आ रहा था। बिना किसी मुखौटे के जोरों से चिल्लाता हुआ मैं भीड़भरी गलियों में दौड़ने लगा - "चोर!… चोर… !!" लोग मुझ पर हँसने लगे। कुछ मुझसे डरकर अपने घरों में घुस गए। जब मैं बाजार में पहुँचा तो अपने घर की छत पर खड़ा एक नौजवान चिल्लाया - "देखो… ऽ… वह पागल है।" उसकी झलक पाने के लिए मैंने ऊपर की ओर देखा। सूरज की किरणों ने उस दिन पहली बार मुखौटाहीन मेरे नंगे चेहरे को चूमा। मेरी आत्मा सूरज के प्रति प्रेम से दमक उठी। मुखौटों का ख्याल मेरे जेहन से जाता रहा; और मैं जैसे विक्षिप्त-सा चिल्लाया - "सुखी रहो, सुखी रहो मेरे मुखौटे चुराने वालो!" इस तरह मैं पगल हो गया। और अपने इस पागलपन में ही मैंने आज़ादी और सुरक्षा पाई हैं। अकेला रह पाने की आज़ादी और पहचान बना लेने के अहसास से मुक्ति। वे, जो हमें पहचानते हैं, कुछ-न-कुछ गुलामी हममें बो देते हैं। लेकिन मुक्ति के इस अहसास पर मुझे घमण्ड नहीं करना चाहिए। जेल में पड़ा एक चोर भी बाहर रहने वाले दूसरे चोर से सुरक्षित रहता है।
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:01 PM | #3 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
ईश्वर
आदिकाल में, जब पहली बार कुछ बोलने को मेरे होंठ कँपकँपाए, मैं पवित्र पर्वत पर चढ़ गया और ईश्वर से बोला, "मैं तेरा गुलाम हूँ मालिक! तेरी अनकही इच्छा मेरे लिए कानून है। जब तक जियूँगा, मैं तेरे आदेश का पालन करूँगा।" ईश्वर ने कोई जवाब नहीं दिया और एक ताकतवर तूफान की तरह चला गया। हजार साल बाद मैं पुन: पवित्र पर्वत पर चढ़ा और पुन: ईश्वर से बोला - "मैं तेरी संतान हूँ, हे जगत-निर्माता! तूने स्वयं अपनी मिट्टी से मुझे बनाया है। मेरा सब-कुछ तेरा है।" ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया। पलक झपकने के भी हजारवें हिस्से में ही वह अन्तर्धान हो गया। उसके हजार साल बाद मैं फिर पवित्र पर्वत पर चढ़ा और ईश्वर से बोला - "मैं तेरा पुत्र हूँ, हे पिता! कृपापूर्ण प्रेम के साथ तूने मुझे पैदा किया है। प्रेम और पूजा के जरिए ही मैं तेरी दुनिया में बना रहूँगा।" ईश्वर ने कोई जवाब न दिया। दू… ऽ… र, पारदर्शी परदे के रूप में पहाड़ियों पर पड़े कोहरे-सा, वह गायब हो गया। आगामी हजार साल बाद मैं पुन: उस पावन पहाड़ पर चढ़ा और जोरों से बोला, "हे ईश्वर! हे मेरे जीवन-लक्ष्य और मेरी मंजिल!! तू मेरा बीता हुआ कल है और मैं तेरा आनेवाला कल। मैं ज़मीन में तेरी जड़ हूँ और तू आकाश में मेरा फूल। सवेरे-सवेरे सूरज की ओर मुँह करके हम दोनों ही उगते हैं।" यह सुन ईश्वर मुझपर झुका और अनहद मीठेपन के साथ मेरे कानों में फुसफुसाया। फिर, जैसे समंदर किनारों की ओर से भीतर जाती लहरों के रूप में खुद को लपेटता है, वैसे ही अपने-आप में उसने मुझे लपेट लिया। और जब मैं पहाड़ से उतरकर घाटियों और मैदानों में आया, ईश्वर को वहाँ मौज़ूद पाया।
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:01 PM | #4 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
काग-भगोड़ा
एक बिजूके से एक बार मैंने कहा, "इस निर्जन खेत में खड़े-खड़े तुम थक जाते होगे।" वह बोला, "डराकर भगाने का मज़ा ही कुछ और है। वह बेजोड़ है। मैं इससे कभी नहीं थकता।" एक पल सोचकर मैंने उससे कहा, "ठीक कहते हो। उस आनन्द को मैंने भी जाना है।" उसने कहा, "भूसा-भरे लोग ही इस आनन्द को जान सकते हैं।" यह सोचे बिना कि ऐसा कहकर उसने मेरी प्रशंसा की या भर्त्सना, मैं उसके पास से चला आया। एक साल बीत गया। इस बीच वह दार्शनिक बन चुका था। उसकी बगल से गुजरते हुए मैंने देखा - दो कौए उसके हैट के नीचे घोंसला बना रहे थे।
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:02 PM | #5 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
सोना-जागना
जिस शहर में मैं पैदा हुआ, उसमें एक औरत अपनी बेटी के साथ रहती थी। दोनों को नींद में चलने की बीमारी थी। एक रात, जब पूरी दुनिया सन्नाटे के आगोश में पसरी पड़ी थी, औरत और उसकी बेटी ने नींद में चलना शुरू कर दिया। चलते-चलते वे दोनों कोहरे में लिपटे अपने बगीचे में जा मिलीं। माँ ने बोलना शुरू किया, "आखिरकार… आखिरकार तू ही है मेरी दुश्मन! तू ही है जिसके कारण मेरी जवानी बरबाद हुई। मेरी जवानी को बरबाद करके तू अब अपने-आप को सँवारती, इठलाती घूमती है। काश! मैंने पैदा होते ही तुझे मार दिया होता।" इस पर बेटी बोली, "अरी बूढ़ी और बदजात औरत! तू… तू ही है जो मेरे और मेरी आज़ादी के बीच टाँग अड़ाए खड़ी है। तूने मेरी ज़िन्दगी को ऐसा कुआँ बना डाला है जिसमें तेरी ही कुण्ठाएँ गूँजती हैं। काश! मौत तुझे खा गई होती।" उसी क्षण मुर्गे ने बाँग दी। दोनों औरतें नींद से जाग गईं। बेटी को सामने पाकर माँ ने लाड़ के साथ कहा, "यह तुम हो मेरी प्यारी बच्ची?" "हाँ माँ।" बेटी ने मुस्कराकर जवाब दिया।
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:03 PM | #6 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
चतुर कुत्ता
एक चतुर कुत्ता एक दिन बिल्लियों के एक झुण्ड के पास से गुजरा। कुछ और निकट जाने पर उसने देखा कि वे कोई योजना बना रहीं थीं और उसकी ओर से लापरवाह थीं। वह रुक गया। उसने देखा कि झुण्ड के बीच से एक दीर्घकाय, गम्भीर बिल्ला खड़ा हुआ। उसने उन सब पर नजर डाली और बोला, "भाइयो! दुआ करो। बार-बार दुआ करो। यक़ीन मानो, दुआ करोगे तो चूहों की बारिश जरूर होगी।" यह सुनकर कुत्ता मन-ही-मन हँसा। "अरे अन्धे और बेवकूफ़ बिल्लो! शास्त्रों में क्या यह नहीं लिखा है और क्या मै, और मुझसे भी पहले मेरा बाप, यह नहीं जानता कि दुआ के, आस्था के और समर्पण के बदले चूहों की नहीं हड्डियों की बारिश होती है।" यह कहते हुए वह पलट पड़ा।
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:04 PM | #7 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
कथा कटोरे की
एक सुनसान पहाड़ पर दो साधु रहते थे। वे ईश्वर का ध्यान करते और एक-दूसरे को बहुत प्रेम करते थे। उनके पास एक कटोरा था और वही उन दोनों की पूँजी था। एक दिन शैतान उनमें से बड़ी उम्र वाले के दिल में जा घुसा। वह कम उम्र वाले संन्यासी के पास आया और बोला, "साथ-साथ रहते हमें लम्बा अरसा बीत गया। अब अलग होने का समय आ गया है। इसलिए हमें इस कटोरे को बाँट लेना चाहिए।" कम उम्र वाला संन्यासी यह सुनकर झटका खा गया। वह बोला, "यह सुनकर मुझे बड़ा दु:ख हुआ है मेरे भाई! लेकिन तुम अगर जाना चाहते हो, तो जाओ।" यों कहकर वह कटोरे को उठा लाया और उसे देते हुए बोला, "इसे बाँटा नहीं जा सकता। अत: तुम ले जाओ।" इस पर बड़ी उम्र वाले ने कहा, "मैं भीख नहीं लेता। मैं सिर्फ अपना हिस्सा लूँगा। इसलिए इसके टुकड़े करो।" युवा संन्यासी ने कहा, "टूट जाने पर कटोरा न तुम्हारे मतलब का रहेगा न मेरे। अगर आपकी मर्जी हो तो हम लॉटरी डाल लेते हैं।" लेकिन बुजुर्ग संन्यासी ने कहा, "डाल लो; लेकिन मैं अगर जीता तो सिर्फ अपना हिस्सा ही लूँगा और मैं अगर हारा तो भी अपना हिस्सा जरूर लूँगा। कटोरा तो अब टूटेगा ही।" युवा संन्यासी ने आगे और बहस नहीं की। बोला, "अगर आपकी ऐसी ही इच्छा है और आप हर हाल मैं अपना ही हिस्सा लेना चाहते हैं तो ठीक है, आइए, कटोरे को तोड़ लेते हैं।" इतना सुनना था कि बुजुर्ग संन्यासी का चेहरा क्रोध से काला पड़ गया। वह चीखा, "अरे नीच! डरपोक!! तू मुझसे झगड़ा नहीं कर सकता?"
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:04 PM | #8 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
लेन-देन
एक आदमी था। उसके पास सुइयों का अकूत भण्डार था। एक दिन माँ मरियम उसके पास आई और बोली, "दोस्त! मेरे बेटे के कपड़े फट गए हैं। उसके चर्च जाने को तैयार होने से पहले मुझे उन्हें सी देना है। क्या तुम मुझे एक सुई नहीं दोगे?" उसने उसे सुई नहीं दी। लेकिन 'लेने और देने' पर उसने उसे विद्वत्तापूर्ण भाषण जरूर पिला दिया और कहा कि चर्च के लिए निकलने से पहले अपने बेटे को ये बातें जरूर बता देना।
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:05 PM | #9 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
आदमी की परतें
रात के ठीक बारह बजे, जब मैं अर्द्धनिद्रा में लेटा हुआ था, मेरे सात व्यक्तित्व एक जगह आ बैठे और आपस में बतियाने लगे : पहला बोला - "इस पागल आदमी में रहते हुए इन वर्षों में मैंने इसके दिन दु:खभरे और रातें विषादभरी बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। मैं यह सब और ज्यादा नहीं कर सकता। अब मैं इसे छोड़ रहा हूँ।" दूसरे ने कहा - "तुम्हारा भाग्य मेरे से कहीं अच्छा है मेरे भाई! मुझे इस पागल की आनन्द-अनुभूति बनाया गया है। मैं इसकी हँसी में हँसता और खुशी में गाता हूँ। इसके ग़ज़ब चिंतन में मैं बल्लियों उछलता-नाचता हूँ। इस ऊब से मैं अब बाहर निकलना चाहता हूँ।" तीसरा बोला - "और मुझ प्रेम से लबालब व्यक्तित्व के बारे में क्या खयाल है? घनीभूत उत्तेजनाओं और उच्च-आकांक्षाओं का लपलपाता रूप हूँ मैं। मैं इस पागल के साथ अब-और नहीं रह सकता।" चौथा बोला - "तुम सब से ज्यादा मजबूर मैं हूँ। घृणा और विध्वंस जबरन मुझे सौंपे गए हैं। मेरा तो जैसे जन्म ही नरक की अँधेरी गुफाओं में हुआ है। मैं इस काम के खिलाफ जरूर बोलूँगा।" पाँचवें ने कहा - "मैं चिंतक व्यक्तित्व हूँ। चमक-दमक, भूख और प्यास वाला व्यक्तित्व। अनजानी चीजों और उन चीजों की खोज में जिनका अभी कोई अस्तित्व ही नहीं है, दर-दर भटकने वाला व्यक्तित्व। तुम क्या खाकर करोगे, विद्रोह तो मैं करूँगा।" छठे ने कहा - "और मैं - श्रमशील व्यक्तित्व। दूरदर्शिता से मैं धैर्यपूर्वक समय को सँवारता हूँ। मैं अस्तित्वहीन वस्तुओं को नया और अमर रूप प्रदान करता हूँ, उन्हें पहचान देता हूँ। हमेशा बेचैन रहने वाले इस पागल से मुझे विद्रोह करना ही होगा।" सातवाँ बोला - "कितने अचरज की बात है कि तुम सब इस आदमी के खिलाफ विद्रोह की बात कर रहे हो। तुममें से हर-एक का काम तय है। आह! काश मैं भी तुम जैसा होता जिसका काम निर्धारित है। मेरे पास कोई काम नहीं है। मैं कुछ-भी न करने वाला व्यक्तित्व हूँ। जब तुम सब अपने-अपने काम में लगे होते हो, मैं कुछ-भी न करता हुआ पता नहीं कहाँ रहता हूँ। अब बताओ, विद्रोह किसे करना चाहिए?" सातवें व्यक्तित्व से ऐसा सुनकर वे छ्हों व्यक्तित्व बेचारगी से उसे देखने लगे और कुछ भी न बोल पाए। रात के गहराने के साथ ही वे एक-एक करके नए सिरे से काम करने की सोचते हुए खुशी-खुशी सोने को चले गए। लेकिन सातवाँ व्यक्तित्व खालीपन, जो हर वस्तु के पीछे है, को ताकता-निहारता वहीं खड़ा रह गया।
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
09-02-2013, 02:05 PM | #10 |
Special Member
Join Date: Dec 2012
Location: फूटपाथ
Posts: 3,861
Rep Power: 23 |
Re: खलील जिब्रान :: लघुकथाएँ व सूक्तियाँ
अन्धेर नगरी
राजमहल में एक रात भोज दिया गया। एक आदमी वहाँ आया और राजा के आगे दण्डवत लेट गया। सब लोग उसे देखने लगे। उन्होंने पाया कि उसकी एक आँख निकली हुई थी और खखोड़ से खून बह रहा था। राजा ने उससे पूछा, "तुम्हारा यह हाल कैसे हुआ?" आदमी ने कहा, "महाराज! पेशे से मैं एक चोर हूँ। अमावस्या होने की वजह से आज रात मैं धनी को लूटने उसकी दुकान पर गया। खिड़की के रास्ते अन्दर जाते हुए मुझसे गलती हो गई और मैं जुलाहे की दुकान में घुस गया। अँधेरे में मैं उसके करघे से टकरा गया और मेरी आँख बाहर आ गई। अब, हे महाराज! उस जुलाहे से मुझे न्याय दिलवाइए।" राजा ने जुलाहे को बुलवाया। वह आया। निर्णय सुनाया गया कि उसकी एक आँख निकाल ली जाय। "हे महाराज!" जुलाहे ने कहा, "आपने उचित न्याय सुनाया है। वाकई मेरी एक आँख निकाल ली जानी चाहिए। मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि कपड़ा बुनते हुए दोनों ओर देखना पड़ता है इसलिए मुझे दोनों ही आँखों की जरूरत है। लेकिन मेरे पड़ोस में एक मोची रहता है, उसके भी दो ही आँखें हैं। उसके पेशे में दो आँखों की जरूरत नहीं पड़ती है।" राजा ने तब मोची को बुलवा लिया। वह आया। उन्होंने उसकी एक आँख निकाल ली। न्याय सम्पन्न हुआ।
__________________
With the new day comes new strength and new thoughts.
|
Bookmarks |
|
|