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14-12-2010, 05:27 AM | #1 |
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~!!शेखचिल्ली!!~
~!!शेखचिल्ली!!~ निरंतर घुमक्कड़ी का जीवन जीने के कारण शेखचिल्ली पढ़ न सके। हाँ, आये दिन की परेशानियों और अभावों ने इनको आवश्यकता से अधिक हवाई किलेबाजी अता फरमा दी। बचपन ही से शेखचिल्ली चमत्कारों की तलाश में पीर-फकीरों के दीवाने रहे। घुमक्कड़ी का जीवन इन्हें रास नहीं आया। रात-दिन ऐशो-आराम के साधन पा लेने के सपने और तुनकमिजाज अधिकारियों और सामंतों की तरह अपने को पेश करने के हवाई पुल बांधना इनकी नियति बनती गई। वह जमाना ही अंधविश्वासों, झाड-फूंक और गंडे-तावीजों का था। फिर जिस कबीलियाई परिवेश में शेखचिल्ली गोदी से उतर धरती पर चलने लायक बने, उसमें तो अंधविश्वासों की जडें दिमाग के हर कोने में जमी थीं। अभावों में पलता भावुक बाल शेखचिल्ली इन्हीं अंधविश्वासों की परिणति में काल्पनिक चमत्कारों के रंग भरना सीख गया। एक किवदंती के अनुसार शेखचिल्ली क़ी इन बे-सिर-पैर की हरकतों से तंग आकर एक रात उसके कबीले वाले किसी 'सूखे करेजे' (सूखी झाड़ियों का झुण्ड) के पास इन्हें सोता छोड़कर आगे निकल गए। शेखचिल्ली के जीवन का यह एक नया मोड़ था। अब वह नितांत अकेला रह गया था। |
14-12-2010, 05:30 AM | #2 |
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Re: ~!!शेखचिल्ली!!~
अकेलेपन की इस भावना ने उसकी कल्पना में पंख लगा दिए। जो उससे दूर था, अप्राप्य था, उसके पास होने के सुखद सपने और भटकना ही उसका जीवन बन गया। मनचाहा पा लेने की इच्छा से उसने फकीरों, ओझाओं और टोने-टोटके करने वाले नाजूमियों के दामन पकड़ने चाहे। न जाने क्यों, जैसकि ऐसी सूरतों में अक्सर होता है, उसमें कुंठा के या कमतरी के भाव नहीं हुए। हो जाते तो आज न शेखचिल्ली होता, न उसकी कहानियां।
शेखचिल्ली क्वेटा की बंजर धरती से कुरुक्षेत्र के हरियल इलाके में कैसे और कब आये, कोई नहीं जानता। केवल यह सोचा ही जा सकता है क़ी वह उन दिनों सीमा पार से आने वाले किसी जन-प्रवाह में बहकर कुरुक्षेत्र आ पहुंचे। कुरुक्षेत्र उन दिनों हिन्दू साधू-संतों के साथ-साथ मुस्लिम फकीरों और पीरों की शरण-स्थली बन चूका था। शेखचिल्ली भी चमत्कारों की चाह में वहां के किसी पीर के मुरीद बन गए। उन दिनों झज्जर एक छोटी-सी रियासत थी। पंजाब के अधिकाँश भाग से मराठों का शासन समाप्त हो चुका था और मुस्लिम शासकों की हर जगह तूती बोलनी शुरू हो गयी थी। शेखचिल्ली को कुरुक्षेत्र में नयी जिंदगी तो मिल गयी, मगर उसकी कल्पनाशीलता कम होने की उपेक्षा और अधिक निखरती गयी। उन्हीं दिनों नारनौल के रईस हाफिज नूरानी से उनकी मुलाक़ात हुई। हाफिज नूरानी शेखचिल्ली क़ी न जाने किस अदा पर फ़िदा हुए क़ी उन्हें साथ इ आये। झज्जर के नवाबी घराने से हाफिज नूरानी क़ी खाई जान-पहचान थी। उन्होंने शेखचिल्ली को नवाब के दरबार में नौकरी दिलवा दी। शादी भी करा दी क़ी शेखचिल्ली के भटकावों में थोडा ठहराव आ जाए। झज्जर एक छोटी-सी रियासत थी। जितनी आमदनी थी, लगभग उतने ही खर्चे थे। इसलिये शेखचिल्ली को उस नौकरी से इतना तो कभी नहीं मिल सका क़ी नवाब के दुसरे मुलाजिमों के तरह मजे से खा-पी सकें। हाँ, नवाब का मुलाजिम होने के कारण लाख खामियां होने के बावजूद भी, रियासत में उनकी इज्जत थी। |
14-12-2010, 05:31 AM | #3 |
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कहा जाता है क़ी सन 1800 के आसपास शेखचिल्ली झज्जर रियासत छोड़कर फिर कुरुक्षेत्र वापस चले गए। फ़कीर बन गए। उस समय तक उनकी आयु अस्सी के आस पास हो चली थी। उनके दोष हाफिज नूरानी भी अल्लाह को प्यारे हो गए थे और शेखचिल्ली की बेगम भी चल बसी थीं। रियासत पर भी दुर्भाग्य के बादल उड़ने शुरू हो गए थे और अंग्रेजों ने अवध को हड़पने की तैयारियों के साथ-साथ पंजाब की और हाथ बढाने शुरू कर दिए थे।
आजादी की पहली लड़ाई से लगभग पचास वर्ष पूर्व ही कुरुक्षेत्र में शेखचिल्ली की मृत्यु हो गयी। उस समय तक उनको मानने वालों की संख्या हजारों में पहुंच चुकी थी। कुरुक्षेत्र में स्थित शेखचिल्ली का मकबरा आज भी इस बात के गवाही देता है क़ी शेखचिल्ली अपने समय की उन शक्सियतों में से थे, जिनकी मौत पर गम मनाने वालून के कमी नहीं होती और जिन्हें इतिहास के पन्नों में ज़िंदा रखने की जरूरत महसूस की जाती है। शेखचिल्ली को अक्सर हवाई किलेवाजी में दक्ष एक कामचोर मूर्ख की तरह चित्रित किया जाता है। हवाई किलेबाजी वह बेशक थे, किन्तु यदी गंभीरता से मनन किया जाए, तो शेखचिल्ली की हवाई किलेबाजी में अनेक सामाजिक असमानताओं और अहं के बंधनों को तोड़ डालने की चत्पताहत सहज ही महसूस की जा सकती है। शेखचिल्ली का व्यक्तित्व समाज के शोषण और तिरस्कार का प्रतिबिम्ब है। वह सबकुछ पा लेने की अदम्य इच्छा है, जिसमें सचमुच पा लेने की क्षमता को समाज ने पंगु बना डाला हो। फिर भी उनके किरदार में दया, परोपकार, और संतोष के झलक पूरी परिलक्षित होती है। |
14-12-2010, 05:33 AM | #4 |
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शेखचिल्ली की चल गई
शेखचिल्ली बाजार में यह कहता हुआ भागने लगा, “चल गई, चल गई!” बात क्या थी? एक दिन शेखचिल्ली बाजार में यह कहता हुआ भागने लगा, “चल गई, चल गई!” उन दिनों शहर में शिया-सुन्नियों में तनाव था और झगड़े की आशंका थी। उसे ‘चल गई, चल गई’ चिल्लाते हुए भागते देखकर लोगों ने समझा कि लड़ाई हो गई है। लोग अपनी-अपनी दूकानें बंद कर भागने लगे। थोड़ी ही देर में बाजार बंद हो गया। कुछ समझदार लोगों ने शेखचिल्ली के साथ भागते हुए पूछा, “अरे यह तो बताओ, कहां पर चली है? कुछ जानें भी गई हैं क्या?” शेखचिल्ली थोड़ा ठहरा और हैरान होकर पूछा, “क्या मतलब?” “भाई, तुम्हीं सबसे पहले इस खबर को लेकर आए हो। यह बताओ लड़ाई किस मुहल्ले में चल रही है।” “कैसी लड़ाई?” शेखचिल्ली ने पूछा। “अरे तुम्हीं तो चिल्ला रहे थे कि चल गई चल गई।” “हां-हां”, शेखचिल्ली ने कहा “वो तो मैं इसलिए चिल्ला रहा था कि बहुत समय से जेब में पड़ी एक खोटी दुअन्नी, आज एक लाला की दुकान पर चल गई है।” |
14-12-2010, 05:35 AM | #5 |
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शेखचिल्ली का कफ़न
एक जगह कुछ लोग इकट्ठे बैठे थे। शेखचिल्ली भी वहीं बैठा था। कस्बे के कुछ समझदार लोग और हकीम जी दुर्घटनाओं से बचने के उपाय पर विचार-विमर्श कर रहे थे। किस दुर्घटना पर कौन-सी प्राथमिक चिकित्सा होनी चाहिए, इस पर भी विचार किया जा रहा था। थोड़ी देर में हकीम जी ने वहां बैठे सभी लोगों से पूछा, “किसी के डूब जाने पर पेट में पानी भर जाए और सांस रुक जाए तो तुम क्या करोगे?” सब चुप थे। हकीम जी के अन्य साथी बोले, “तुम बोलो शेखचिल्ली, किसी के डूबने पर उसकी सांस रुक जाए तो सबसे पहले तुम क्या करोगे?” “उसके लिए सबसे पहले कफन लाऊंगा। फिर कब्र खोदने वाले को बुलाऊंगा”, शेखचिल्ली ने जवाब दिया। |
14-12-2010, 05:36 AM | #6 |
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सड़क यही रहती है
एक दिन शेखचिल्ली कुछ लड़कों के साथ, अपने कस्बे के बाहर एक पुलिया पर बैठा था। तभी एक सज्जन शहर से आए और लड़कों से पूछने लगे, ‘क्यों भाई, शेख साहब के घर को कौन-सी सड़क गई है?’ शेखचिल्ली के पिता को सब ‘शेख साहब’ कहते थे। उस गाँव में वैसे तो बहुत से शेख थे, परंतु ‘शेख साहब’ चिल्ली के अब्बाजान ही कहलाते थे। वह व्यक्ति उन्हीं के बारे में पूछ रहा था। वह शेख साहब के घर जाना चाहता था। परन्तु उसने पूछा था कि शेख साहब के घर कौन-सा रास्ता जाता है। शेखचिल्ली को मजाक सूझा। उसने कहा, ‘क्या आप यह पूछ रहे हैं कि शेख साहब के घर कौन-सा रास्ता जाता है?’ ‘हाँ-हाँ, बिल्कुल!’ उस व्यक्ति ने जवाब दिया। इससे पहले कि कोई लड़का बोले, शेखचिल्ली बोल पड़ा, ‘इन तीनों में से कोई भी रास्ता नहीं जाता।’ ‘तो कौन-सा रास्ता जाता है?’ ‘कोई नहीं।’‘क्या कहते हो बेटे?’ शेख साहब का यही गाँव है न? वह इसी गाँव में रहते हैं न?’ ‘हाँ, रहते तो इसी गाँव में हैं।’ ‘मैं यही तो पूछ रहा हूँ कि कौन-सा रास्ता उनके घर तक जाएगा।’ ‘साहब, घर तक तो आप जाएँगे।’ शेखचिल्ली ने उत्तर दिया, ‘यह सड़क और रास्ते यहीं रहते हैं और यहीं पड़े रहेंगे। ये कहीं नहीं जाते। ये बेचारे तो चल ही नहीं सकते। इसीलिए मैंने कहा था कि ये रास्ते, ये सड़कें कहीं नहीं जाती। यहीं पर रहती हैं। मैं शेख साहब का बेटा चिल्ली हूँ। मैं वह रास्ता बताता हूँ, जिस पर चलकर आप घर तक पहुँच जाएँगे।’ ‘अरे बेटा चिल्ली!’, वह आदमी प्रसन्न होकर बोला, ‘तू तो वाकई बड़ा समझदार और बुद्धिमान हो गया है। तू छोटा-सा था जब मैं गाँव आया था। मैंने गोद में खिलाया है तुझे। चल बेटा, घर चल मेरे साथ। तेरे अब्बा शेख साहब मेरे लंगोटिया यार हैं। और मैं तेरे रिश्ते की बात करने आया हूँ। मेरी बेटी तेरे लायक़ है। तुम दोनों की जोड़ी अच्छी रहेगी। अब तो मैं तुम दोनों की सगाई करके ही जाऊँगा।’ शेखचिल्ली उस सज्जन के साथ हो लिया और अपने घर ले गया। आगे चलकर वह सज्जन शेखचिल्ली के ससुर बन गए। |
14-12-2010, 05:47 AM | #7 |
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आगे चलने पर उसे एक नदी मिली। उसने उस नदी को बड़ी मुश्किल से पार किया और आगे चल पड़ा। इसी प्रकार चलता हुआ वह आखिरकार अपनी ससुराल आ पहुंचा।
ससुराल पहुँचने पर उसकी भली-भाँती खातिरदारी की जाने लगी। परन्तु उसने साग-सत्तू छोड़कर कुछ भी खाना स्वीकार न किया, क्योंकि उसकी माँ ने ऐसा ही कहा था। रात को बचा-खुचा साग-सत्तू खाकर सो रहा। रात्रि को उसे भूक सताने लगी। अब वह क्या करे? आखिर भूक से ऊबकर वह बहार निकल आया और मैदान में एक दरख्त के नीचे लेट गया। उस पेड़ पर मधुमखियों का एक बहुत बड़ा छत्ता था। छत्ता मधु से इतना ज्यादा भरा हुआ था क़ी उसमें से रात को मधु टपकता था। शेखचिल्ली जब उस वृक्ष के नीचे लेटा। तो ऊपर से उसके बदन पर मधु टपकने लगा। मधु की कुछ बूंदे उसके मूंह में टपकीं तो बह उसे चाटने लगा और बड़ा खुश हुआ। कुछ बूंदे उसके बदन पर भी टपकती रहीं और वह परेशान होकर इधर-उधर करवटें बदलता रहा। शेखचिल्ली बेवक़ूफ़ तो था ही। उसे इस बात का पता नहीं लग सका क़ी आधिर पेड़ पर से क्या चीज उसके बदन पर टपकती है। निदान लाचार होकर वह वहां से उठा और घर के भीतर घुसकर एक कोठरी में जाकर सो रहा। उस कोठरी के अंदर घुनी हुई रूई राखी हुई थी। शेखचिल्ली को नर्म-नर्म रूई मिली तो उसी में आराम के साथ जाकर सो रहा। उसके बदन के चारों और शहद तो लिप्त हुआ था ही, अब धुनी हुए रुई उसी के साथ बदन भर में चारों और चिपक गयी और उसका बदन और उसकी शक्ल अजीब किस्म की हो गयी। सुबह हुई तो शेखचिल्ली की औरत कुछ रुई निकालने उस कोठरी में घुशी। तब तक शेखचिल्ली जाग उठा था। उसको ऐसे रूप में देखकर उसकी औरत चीख उठी उसने हिम्मत बांधकर पुछा तुम कौन हो? शेखचिल्ली ने जोर से डांट कर कहा-'चुप' वह बहार भागी और अपनी माँ से जाकर कहा-अम्मा! उस रूई वाली कोठरी में 'चुप' घुस आया है। उसकी शक्ल बहुत भयानक है। यह सुनकर उसकी माँ ने पड़ोसियों को इकट्ठा किया। कई लोग उस कोठरी में घुसे। शेखचिल्ली को देखकर सबने पुछा- तुम कौन हो? 'शेखचिल्ली ने फिर चिल्लाकर कहा-चुप' अब तो उसका ऐसा रूप देखकर सबकी सिट्टी-पिट्टी गम हो गयी। सब समझे चुप नाम क़ी कोई भयानक बला घर में घुस आई है। उसे निकालने के लिये किसी सयाने को बुलाना चाहिए। |
14-12-2010, 06:52 AM | #8 |
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शेखचिल्ली की ख्याली जलेबी
एक बार एक बुढ़िया किसी गाड़ी से टकरा गई। वह बेहोश होकर गिर पड़ी। लोगों की भीड़ ने उसे घेर लिया। कोई बेहोश बुढ़िया की हवा करने लगा तो कोई सिर सहलाने लगा। गाड़ीवाला टक्कर मारते ही भाग गया था। वहीं शेखचिल्ली जनाब भी खड़े थे। एक आदमी बोला, ‘जल्दी से बुढ़िया को अस्पताल ले चलो’ दूसरे ने कहा, ‘हाँ, ताँगा लाओ और इसे अस्पताल पहुँचाओ।’ ‘हमें इसे यहीं पर होश में लाना चाहिए। भई, कोई तो पानी ले लाओ।’ तीसरा बोला। ‘पानी के छींटे देने पर यह होश में आ जाएगी।’ ‘हाँ, हमें इसकी जिंदगी बचानी चाहिए।’ ‘लेकिन यह तो होश में नहीं आ रही। इसे अस्पताल ही ले चलो। वहीं होश में आएगी।’ वहीं खड़ा शेखचिल्ली बोला, ‘इसे होश में लाने का तरीका तो मैं बता सकता हूँ।’ ‘बताओ भाई?’, लोग बोले। ‘इसके लिए गर्म-गर्म जलेबियाँ लाओ। जलेबियों की खुशबू इसे सुँघाओ और फिर इसके मुँह में डाल दो। जलेबियाँ इसे बड़ा फायदा करेंगी।’ शेखचिल्ली ने बताया। शेखचिल्ली की बात बुढ़िया के कानों में पड़ गई। वह बेहोशी का बहाना किए पड़ी थी। शेखचिल्ली की बात सुनते ही वह बोल उठी, ‘अरे भाइयों, इसकी भी तो सुनो! देखो यह लड़का क्या कह रहा है।’ लोग चौंक पड़े। उन्होंने बुढ़िया को बुरा-भला कहा और चल दिए। बहानेबाज बुढ़िया भी चुपचाप उठकर जाने को मजबूर हो गई। |
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