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22-05-2014, 08:57 PM | #1 |
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मलबे का मालिक -मोहन राकेश
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साढ़े सात साल के बाद वे लोग लाहौर से अमृतसर आये थे। हॉकी का मैच देखने का तो बहाना ही था, उन्हें ज़्यादा चाव उन घरों और बाज़ारों को फिर से देखने का था जो साढ़े सात साल पहले उनके लिए पराये हो गये थे। हर सडक़ पर मुसलमानों की कोई-न-कोई टोली घूमती नज़र आ जाती थी। उनकी आँखें इस आग्रह के साथ वहाँ की हर चीज़ को देख रही थीं जैसे वह शहर साधारण शहर न होकर एक अच्छा-ख़ासा आकर्षण-केन्द्र हो। तंग बाज़ारों में से गुज़रते हुए वे एक-दूसरे को पुरानी चीज़ों की याद दिला रहे थे...देख—फतहदीना, मिसरी बाज़ार में अब मिसरी की दुकानें पहले से कितनी कम रह गयी हैं! उस नुक्कड़ पर सुक्खी भठियारिन की भट्*ठी थी, जहाँ अब वह पानवाला बैठा है।...यह नमक मंडी देख लो, ख़ान साहब! यहाँ की एक-एक लालाइन वह नमकीन होती है कि बस...! बहुत दिनों के बाद बाज़ारों में तुर्रेदार पगडिय़ाँ और लाल तुरकी टोपियाँ नज़र आ रही थीं। लाहौर से आये मुसलमानों में काफ़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जिन्हें विभाजन के समय मज़बूर होकर अमृतसर से जाना पड़ा था। साढ़े सात साल में आये अनिवार्य परिवर्तनों को देखकर कहीं उनकी आँखों में हैरानी भर जाती और कहीं अफ़सोस घिर आता—वल्लाह! कटरा जयमलसिंह इतना चौड़ा कैसे हो गया? क्या इस तरफ़ के सब-के-सब मकान जल गये थे?...यहाँ हक़ीम आसिफ़अली की दुकान थी न? अब यहाँ एक मोची ने कब्ज़ा कर रखा है? >>>
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22-05-2014, 09:00 PM | #2 |
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Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश
और कहीं-कहीं ऐसे भी वाक्य सुनाई दे जाते—वली, यह मस्ज़िद ज्यों की त्यों खड़ी है? इन लोगों ने इसका गुरुद्वारा नहीं बना दिया!
जिस रास्ते से भी पाकिस्तानियों की टोली गुज़रती, शहर के लोग उत्सुकतापूर्वक उस तरफ़ देखते रहते। कुछ लोग अब भी मुसलमानों को आते देखकर आशंकित से रास्ते से हट जाते, जबकि दूसरे आगे बढक़र उनसे बगलगीर होने लगते। ज़्यादातर वे आगन्तुकों से ऐसे-ऐसे सवाल पूछते—कि आजकल लाहौर का क्या हाल है? अनारकली में अब पहले जितनी रौनक होती है या नहीं? सुना है, शाहालमीगेट का बाज़ार पूरा नया बना है? कृष्णनगर में तो कोई ख़ास तब्दीली नहीं आयी? वहाँ का रिश्वतपुरा क्या वाकई रिश्वत के पैसे से बना है?...कहते हैं, पाकिस्तान में अब बु$र्का बिल्कुल उड़ गया है, यह ठीक है?... इन सवालों में इतनी आत्मीयता झलकती थी कि लगता था, लाहौर एक शहर नहीं, हज़ारों लोगों का सगा-सम्बन्धी है, जिसके हाल जानने के लिए वे उत्सुक हैं। लाहौर से आये लोग उस दिन शहर-भर के मेहमान थे जिनसे मिलकर और बातें करके लोगों को बहुत ख़ुशी हो रही थी। >>>
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22-05-2014, 09:02 PM | #3 |
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Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश
बाज़ार बाँसाँ अमृतसर का एक उजड़ा-सा बाज़ार है, जहाँ विभाजन से पहले ज़्यादातर निचले तबके के मुसलमान रहते थे। वहाँ ज़्यादातर बाँसों और शहतीरों की ही दुकानें थीं जो सब की सब एक ही आग में जल गयी थीं। बाज़ार बाँसाँ की वह आग अमृतसर की सबसे भयानक आग थी जिससे कुछ देर के लिए तो सारे शहर के जल जाने का अन्देशा पैदा हो गया था। बाज़ार बाँसाँ के आसपास के कई मुहल्लों को तो उस आग ने अपनी लपेट में ले ही लिया था। ख़ैर, किसी तरह वह आग काबू में आ गयी थी, पर उसमें मुसलमानों के एक-एक घर के साथ हिन्दुओं के भी चार-चार, छ:-छ: घर जलकर राख हो गये थे। अब साढ़े सात साल में उनमें से कई इमारतें फिर से खड़ी हो गयी थीं, मगर जगह-जगह मलबे के ढेर अब भी मौ$जूद थे। नई इमारतों के बीच-बीच वे मलबे के ढेर एक अजीब वातावरण प्रस्तुत करते थे।
बाज़ार बाँसाँ में उस दिन भी चहल-पहल नहीं थी क्योंकि उस बाज़ार के रहने वाले ज़्यादातर लोग तो अपने मकानों के साथ ही शहीद हो गये थे, और जो बचकर चले गये थे, उनमें से शायद किसी में भी लौटकर आने की हिम्मत नहीं रही थी। सिर्फ़ एक दुबला-पतला बुड्ïढा मुसलमान ही उस दिन उस वीरान बाज़ार में आया और वहाँ की नयी और जली हुई इमारतों को देखकर जैसे भूलभुलैयाँ में पड़ गया। बायीं तरफ़ जानेवाली गली के पास पहुँचकर उसके पैर अन्दर मुडऩे को हुए, मगर फिर वह हिचकिचाकर वहाँ बाहर ही खड़ा रह गया। जैसे उसे विश्वास नहीं हुआ कि यह वही गली है जिसमें वह जाना चाहता है। गली में एक तरफ़ कुछ बच्चे कीड़ी-कीड़ा खेल रहे थे और कुछ फ़ासले पर दो स्त्रियाँ ऊँची आवाज़ में चीख़ती हुई एक-दूसरी को गालियाँ दे रही थीं। >>>
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22-05-2014, 09:03 PM | #4 |
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Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश
“सब कुछ बदल गया, मगर बोलियाँ नहीं बदलीं!” बुड्ढे मुसलमान ने धीमे स्वर में अपने से कहा और छड़ी का सहारा लिये खड़ा रहा। उसके घुटने पाजामे से बाहर को निकल रहे थे। घुटनों से थोड़ा ऊपर शेरवानी में तीन-चार पैबन्द लगे थे। गली से एक बच्चा रोता हुआ बाहर आ रहा था। उसने उसे पुचकारा, “इधर आ, बेटे! आ, तुझे चिज्जी देंगे, आ!” और वह अपनी जेब में हाथ डालकर उसे देने के लिए कोई चीज़ ढूँढऩे लगा। बच्चा एक क्षण के लिए चुप कर गया, लेकिन फिर उसी तरह होंठ बिसूरकर रोने लगा। एक सोलह-सत्रह साल की लडक़ी गली के अन्दर से दौड़ती हुई आयी और बच्चे को बाँह से पकडक़र गली में ले चली। बच्चा रोने के साथ-साथ अब अपनी बाँह छुड़ाने के लिए मचलने लगा। लडक़ी ने उसे अपनी बाँहों में उठाकर साथ सटा लिया और उसका मुँह चूमती हुई बोली, चुप कर, ख़सम-खाने! रोएगा, तो वह मुसलमान तुझे पकडक़र ले जाएगा! कह रही हूँ, चुप कर!”
बुड्ढे मुसलमान ने बच्चे को देने के लिए जो पैसा निकाला था, वह उसने वापस जेब में रख लिया। सिर से टोपी उतारकर वहाँ थोड़ा खुजलाया और टोपी अपनी बग़ल में दबा ली। उसका गला ख़ुश्क हो रहा था और घुटने थोड़ा काँप रहे थे। उसने गली के बाहर की एक बन्द दुकान के त$ख्ते का सहारा ले लिया और टोपी फिर से सिर पर लगा ली। गली के सामने जहाँ पहले ऊँचे-ऊँचे शहतीर रखे रहते थे, वहाँ अब एक तिमंज़िला मकान खड़ा था। सामने बिजली के तार पर दो मोटी-मोटी चीलें बिल्कुल जड़-सी बैठी थीं। बिजली के खम्भे के पास थोड़ी धूप थी। वह कई पल धूप में उड़ते ज़र्रों को देखता रहा। फिर उसके मुँह से निकला, “या मालिक!” >>>
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22-05-2014, 09:04 PM | #5 |
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Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश
एक नवयवुक चाबियों का गुच्छा घुमाता गली की तरफ़ आया। बुड्ढे को वहाँ खड़े देखकर उसने पूछा, “कहिए मियाँजी, यहाँ किसलिए खड़े हैं?”
बुड्ढे मुसलमान को छाती और बाँहों में हल्की-सी कँपकँपी महसूस हुई। उसने होंठों पर ज़बान फेरी और नवयुवक को ध्यान से देखते हुए कहा, “बेटे, तेरा नाम मनोरी है न?” नवयुवक ने चाबियों के गुच्छे को हिलाना बन्द करके अपनी मुट्*ठी में ले लिया और कुछ आश्चर्य के साथ पूछा, “आपको मेरा नाम कैसे मालूम है?” “साढ़े सात साल पहले तू इतना-सा था,” कहकर बुड्ढे ने मुस्कराने की कोशिश की। “आप आज पाकिस्तान से आये हैं?” “हाँ! पहले हम इसी गली में रहते थे,” बुड्ढे ने कहा, “मेरा लडक़ा चिराग़दीन तुम लोगों का दर्ज़ी था। तक़सीम से छ: महीने पहले हम लोगों ने यहाँ अपना नया मकान बनवाया था।” “ओ, गनी मियाँ!” मनोरी ने पहचानकर कहा। “हाँ, बेटे मैं तुम लोगों का गनी मियाँ हूँ! चिराग़ और उसके बीवी-बच्चे तो अब मुझे मिल नहीं सकते, मगर मैंने सोचा कि एक बार मकान की ही सूरत देख लूँ!” बुड्ढे ने टोपी उतारकर सिर पर हाथ फेरा, और अपने आँसुओं को बहने से रोक लिया। >>>
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22-05-2014, 09:07 PM | #6 |
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Re: मलबे का मालिक -मोहन राकेश
“तुम तो शायद काफ़ी पहले यहाँ से चले गये थे,” मनोरी के स्वर में संवेदना भर आयी।
“हाँ, बेटे यह मेरी बदब$ख्ती थी कि मैं अकेला पहले निकलकर चला गया था। यहाँ रहता, तो उसके साथ मैं भी...” कहते हुए उसे एहसास हो आया कि यह बात उसे नहीं कहनी चाहिए। उसने बात को मुँह में रोक लिया पर आँखों में आये आँसुओं को नीचे बह जाने दिया। “छोड़ो गनी मियाँ, अब उन बातों को सोचने में क्या रखा है?” मनोरी ने गनी की बाँह अपने हाथ में ले ली। “चलो, तुम्हें तुम्हारा घर दिखा दूँ।” गली में ख़बर इस तरह फैली थी कि गली के बाहर एक मुसलमान खड़ा है जो रामदासी के लडक़े को उठाने जा रहा था...उसकी बहन वक़्त पर उसे पकड़ लायी, नहीं तो वह मुसलमान उसे ले गया होता। यह ख़बर मिलते ही जो स्त्रियाँ गली में पीढ़े बिछाकर बैठी थीं, वे पीढ़े उठाकर घरों के अन्दर चली गयीं। गली में खेलते बच्चों को भी उन्होंने पुकार-पुकारकर घरों के अन्दर बुला लिया। मनोरी गनी को लेकर गली में दाख़िल हुआ, तो गली में सिर्फ़ एक फेरीवाला रह गया था, या रक्खा पहलवान जो कुएँ पर उगे पीपल के नीचे बिखरकर सोया था। हाँ, घरों की खिड़कियों में से और किवाड़ों के पीछे से कई चेहरे गली में झाँक रहे थे। मनोरी के साथ गनी को आते देखकर उनमें हल्की चेहमेगोइयाँ शुरू हो गयीं। दाढ़ी के सब बाल सफ़ेद हो जाने के बाव$जूद चिराग़दीन के बाप अब्दुल गनी को पहचानने में लोगों को दिक्कत नहीं हुई। >>>
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