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07-09-2011, 10:08 AM | #1 |
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पांच पापी (उपन्यास)
किसी मेहरबानी का बदला चुकाने वाली किस्म का आदमी मैं नहीं लेकिन लगता है इस उम्र में हुए इश्क ने मुझे नर्मदिल बना दिया है।’—होतचन्दानी ने एक पुड़िया विवेक की हथेली पर रखी—‘पन्ना है। इसकी अंगूठी बनवाकर अपनी होने वाली बीवी को देना। मेरे आशीर्वाद के साथ।’
‘सूम का माल है।’—विवेक बोला—‘छोड़ूंगा नहीं। लेकिन ये न समझिएगा कि इसी में उस धोखाधड़ी का भी बदला चुक गया जोकि आप मेरे साथ कर चुके हैं। आपकी उस करतूत के लिए मैं जब तक जिंदा रहूंगा, आपकी तत्काल मृत्यु की कामना करूंगा। ‘पुटड़े! मेरे घर में बैठकर तो ऐसा बुरा बोल न बोल। ‘मैं ऐसा ही बुरा बोल बोलूंगा। अलबत्ता आप मुझे अपने घर से निकाल सकते हैं। ‘अरे नहीं। मैं ऐसा क्यों करूंगा! अब और दो दिन का तो दाना-पानी रह गया है मेरा नेपाल में।’ ‘तभी तो इस कोशिश में हूं कि आपको अभी जी भर के कोस लूं।’ उस घड़ी होतचन्दानी नहीं जानता था कि उसका दाना-पानी नेपाल से ही नहीं, इस फानी दुनिया से उठ चुका था। एक नहीं पांच पापी उसकी जान के ग्राहक बने हुए थे। एक अत्यन्त रहस्यपूर्ण उपन्यास पांच पापी सिद्धहस्त मिस्ट्री राइटर सुरेन्द्र मोहन पाठक का नवीनतम चमत्कार
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..." click me
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07-09-2011, 10:09 AM | #2 |
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Re: पांच पापी (उपन्यास)
साधूराम होतचन्दानी के बंगले के ड्राइंगरूम के तमाम खिड़कियां दरवाजे बन्द थे। भीतर उसके सामने एक आदमी ज्वेलर ग्लास आंख से लगाए मेज पर अपने सामने बिखरे, चमचम करते हीरे जवाहरात परख रहा था और दूसरा आदमी होतचन्दानी के पहलू में बैठा होतचन्दानी की ही तरह अपलक हीरे जवाहरात परखे जाते देख रहा था।
हीरों के पारखी का नाम विवेक जालान था। वह एक लगभग तीस साल का सुन्दर युवक था। हीरे जवाहरात जिनमें अधिकतर मानक और नीलम थे—साधूराम होतचन्दानी की मिल्कियत थे जोकि पचास से ऊपर आयु का निहायत हट्टा-कट्टा, तन्दुरुस्त आदमी था। उस उम्र में भी न तो वह चश्मा लगाता था, न उसके सिर का कोई बाल सफेद था और न ही उसके चेहरे पर बुढ़ापे के आगमन की बल्कि पहुंच चुके होने की—चुगली करने वाली कोई झुर्री थी। शायद वह नेपाल की—जहां कि उसने अपनी आधी जिन्दगी गुजारी थी—ठण्डी, स्वास्थ्यदायक आबोहवा का असर था। तीसरे—होतचन्दानी के पहलू में बैठे—आदमी का नाम दामोदर खेतान था और वह परखे जा रहे माल का सम्भावित खरीददार था। वह कोई चालीस साल का भारी-भरकम आदमी था जोकि उस बन्द खिड़कियों और दरवाजों वाले कमरे में भी आंखों पर स्याह काला चश्मा लगाए था। दोपहर बाद से हीरे जवाहरात की परख का वह जटिल काम चल रहा था और अब शाम होने को आ रही थी। तब से अब तक विवेक जालान ने कभी अपने काम से सिर उठाया था तो नया सिगरेट सुलगाने के लिए या नेपाली बियर का दर्जा रखने वाले जौ से बने मादक तरल पदार्थ झांग का घूंट भरने के लिए जोकि होतचन्दानी का नेपाली नौकर हनुमान अपने मालिक के इशारे पर या इशारे के बिना भी; सबको सर्व कर देता था। एक बात विवेक जालान के बिना तब तक मुंह खोले ही साफ पता लग रही थी। वो हीरे जवाहरात मालिक द्वारा बड़े यत्न से छांट छांटकर जमा किए गए थे और यकीनन बेशकीमती थे। हर स्टोन की परख के बाद विवेक जालान करीब पड़ी एक कापी पर कुछ आंकड़े नोट करता जाता था और उन आंकड़ों के कालम की लम्बाई बढ़ती ही जा रही थी। अन्त में उसने ज्वेलर ग्लास आंख से हटाकर एक ओर रख दिया और अपने सामने पड़ा जौहरियों वाला नाजुक तराजू भी परे सरका दिया। साधूराम होतचन्दानी और दामोदर खेतान ने आशापूर्ण नेत्रों से उसकी तरफ देखा। ‘जो’—विवेक जालान खंखारकर गला साफ करता हुआ बोला—‘एक कैरेट से कम वजन के स्टोन हैं, उनकी कीमत का मैं महज अन्दाजा लगाऊंगा।’ ‘ठीक है।’—होतचन्दानी बोला। ‘ऐसे स्टोन कितने हैं?’—दामोदर खेतान ने पूछा। विवेक जालान ने कापी पर लिखे आंकड़ों पर निगाह दौड़ाई और बोला—‘पचपन। मैं इनको भी बाकी स्टोंस की तरह जाचूंगा तो रात हो जाएगी।’ ‘जरूरत नहीं।’—खेतान बोला—‘उनकी कीमत का मुझे अन्दाजा मंजूर है।’ ‘मुझे भी।’—होतचन्दानी बोला। विवेक ने सहमति में सिर हिलाया; उसने एक नया सिगरेट सुलगा लिया और पेंसिल लेकर कापी में लिखे आंकड़ों से उलझ गया। अन्त में उसने कॉपी पेंसिल परे रख दी। ‘क्या परखा?’—दामोदर खेतान उतावले स्वर में बोला। उत्तर देने के स्थान पर विवेक ने सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया। जिस काम को वह अभी अन्जाम देकर हटा था उसे करने के लिए उसे दामोदर खेतान ने चुना था क्योंकि, बकौल उसके, वहां परदेश में किसी स्थानीय नेपाली जौहरी के मुकाबले में उसे अपने ‘जात भाई’ का ज्यादा भरोसा था। अपने कथित जात भाई से विवेक की जुम्मा जुम्मा आठ रोज की वाकफियत थी। होटल क्रिस्टल में—जिसके एक कमरे में विवेक रहता था—वह पिछले ही महीने आया था। काठमाण्डू के क्रिस्टल जैसे मध्यम दर्जे के होटल में एकाध दिन के आवास के बाद ही हिन्दोस्तानियों की—वो भी जात भाइयों की—वाकफियत हो जाना मामूली बात थी। दामोदर खेतान ने अपने आपको एक व्यापारी बताया था जोकि नेपाल में किसी व्यापार की—किसी भी व्यापार की—सम्भावनाओं पर विचार करने के लिए काठमाण्डू आया था। बकौल उसके भारत में उसका होजियरी का बिजनेस था। दामोदर खेतान नाम के उस शख्स को बातचीत का कुछ ऐसा ढंग आता था कि चाहकर भी विवेक अपने बारे में उससे कोई सीक्रेट नहीं रख पाया था। अपने बारे में वह यह तक नहीं छुपा पाया था कि अपने घर से, अपने वतन से इतनी दूर परदेस में इन दिनों वो बेकार था और उसकी आर्थिक स्थिति इतनी शोचनीय हो चली थी आइन्दा दिनों में उसे अपने होटल का बिल भरना भी दूभर लग सकता था। दामोदर खेतान बतौर ट्रेंड जियोलोजिस्ट और जैम एक्सपर्ट उसकी योग्यताओं से बहुत प्रभावित हुए था और उसने आशा व्यक्त की थी कि विवेक जैसे ‘गुणी’ आदमी को नेपाली या हिन्दोस्तान में कोई नयी नौकरी ढूंढ़ने में दिक्कत नहीं होने वाली थी। तब विवेक ने उसे बताया था कि नयी नौकरी की आफर उसे मिल चुकी थी और वह उसी को ज्वाइन करने के लिए सोमवार को दिल्ली जा रहा था। अब उस रोज दामोदर खेतान के कहने पर पांच हजार रुपये की निर्धारित फीस पर वो वहां साधूराम होतचन्दानी के बंगले में उसके जवाहरात की परख करके उसकी कीमत लगाने के लिए हाजिर हुआ था। होतचन्दानी से भी विवेक नावाकिफ नहीं था—न सिर्फ नावाकिफ नहीं था, बल्कि खेतान के मुकाबले में उससे कहीं ज्यादा, कहीं पुराना वाकिफ था। हकीकत होतचन्दानी ही उसकी मौजूदा बेकारी की वजह था। होतचन्दानी वो शख्स था जिसके पार्टनरशिप के झांसे में आकर वह दिल्ली छोड़कर नेपाल आया था और जिससे धोखा खाकर वो अपनी मौजूदा दुश्वारी की हालत में पहुंचा था। ‘क्या परखा?’—दामोदर खेतान ने पूर्ववत् उतावले स्वर में अपना सवाल दोहराया। ‘मैं सिर्फ अपना जाती अन्दाजा बता सकता हूं।’—विवेक बोला। ‘ठीक है।’—होतचन्दानी तनिक तिक्तताभरे स्वर में बोला—‘जवाहरात का सारा धन्धा ही जाती अन्दाजों पर मुनइसर होता है। औरतों और घड़ियों की तरह जैम एक्सपर्ट्स में भी काफी इत्तफाक नहीं होता। एक ही हीरा दो अलग-अलग पारखियों को दिखाओ, कभी ऐसा नहीं होगा कि दोनों उसकी एक ही कीमत बतायें। बहरहाल मेरे में और दामोदर खेतान में यह फैसला पहले ही हो चुका है कि हम दोनों को तुम्हारा अन्दाजा मंजूर होगा। अब बोलो क्या है तुम्हारा अन्दाजा?’ ‘उनचास लाख तिहत्तर हजार चार सौ रुपये।’ ‘इन्डियन या नेपाली?’—दामोदर खेतान बोला। ‘इन्डियन।’
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07-09-2011, 10:10 AM | #3 |
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Re: पांच पापी (उपन्यास)
विवेक ने साफ महसूस किया कि उसका जवाब सुनकर होतचन्दानी ने चैन की बड़ी लम्बी सांस ली थी। वजह विवेक जानता था। जरूर होतचन्दानी समझ रहा था कि उससे बदला निकालने के लिए वह जानबूझकर जवाहरात की कीमत कम करके आंक सकता था और उसे इस सेवा की दामोदर खेतान से कोई फीस हासिल हो सकती थी।
हकीकतन ऐसा नहीं था। हकीकतन विवेक ने पूरी ईमानदारी से जवाहरात को परखा था और अपने पूरे कारोबारी तजुर्बे से उनकी कीमत आंकी थी। ‘राजी?’—होतचन्दानी दामोदर खेतान से बोला। खेतान ने तुरन्त उत्तर न दिया। उसने अपनी आंखों पर से अपना काला चश्मा उतारा और नेत्र सिकोड़कर कई बार अपने मेजबान की सूरत को और जवाहरात को देखा। ‘कमाल है, साईं!’—वह धीरे से बोला—‘छोटे, बड़े कई किस्म के जवाहरात की एक पोटली यह कहकर मेरे सामने फेंकी जाती है कि इसमें पचास लाख का माल है और परखे जाने पर माल पचास लाख का ही निकलता है। मेरा मतलब है तकरीबन।’ ‘विवेक तुम्हारा आदमी है।’—होतचन्दानी तनिक सख्ती से बोला—‘इसे तुम्हीं ने चुना है और तुम्हीं इसे यहां लाए हो।’ जब तुम्हें अपने ही आदमी की परख पर एतबार नहीं तो…’ ‘मुझे पूरा एतबार है।’ ‘तो फिर?’ दामोदर खेतान खामोश रहा। ‘सच पूछो तो मेरा अन्दाजा इसके अन्दाजे से कदरन ज्यादा था। विवेक मुझे पसन्द नहीं करता। इसको मेरे से जाती रंजिश है। इसकी जगह कोई जूसरा जैम एक्सपर्ट होता तो मुमकिन है कि माल की कीमत दो चार लाख रुपये ज्यादा आंकता।’ ‘या शायद’—दामोदर खेतान बोला—‘दो चार लाख रुपये कम आंकता।’ ‘शायद।’ दामोदर खेतान फिर खामोश हो गया। उसके चेहरे से सन्देह और चिन्ता के भाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे थे। कुछ क्षण बड़ा बोझिल सा सन्नाटा छाया रहा। ‘ठीक है।’—आखिरकार खेतान ने चश्मा वापिस अपनी आंखों पर चढ़ा लिया और निर्णायक स्वर में बोला—‘मुझे सौदा मंजूर है। अब अगली बात।’ ‘क्या?’—होतचन्दानी सशंक स्वर में बोला। ‘कैश डाउन पर रियायत की बात हुई थी?’ ‘रियायत?’ ‘जो कि कम से कम दस फीसदी तो होनी ही चाहिए।’ ‘मुझे मंजूर है। लेकिन रियायत का तरीका जुदा होगा।’ ‘क्या?’ ‘रकम में कमी करने की जगह मैं माल में इजाफा कर देता हूं।’ ‘मैं समझा नहीं।’ ‘अभी समझाता हूं।’ होतचन्दानी अपने स्थान से उठा और ड्राईंगरूम के पिछवाड़े के एक बन्द दरवाजे की तरफ बढ़ा। उसने वह दरवाजा खोला तो आगे एक लम्बा गलियारा प्रकट हुआ। होतचन्दानी ने गलियारे में कदम रखा और अपने पीछे दरवाजा भिड़का दिया। होतचन्दानी के दृष्टि से ओझल होते ही दामोदर खेतान अपने स्थान से उठा और आकर विवेक वाले सोफे पर उसके पहलू में बैठ गया। ‘भाई मेरे।’—वह विवेक के कन्धे पर हाथ रखता हुआ चिन्तित स्वर में बोला—‘मुझे ठीक राय दे रहा है न? अपने जात भाई को घाटे के सौदे में तो नहीं फंसा रहा?’ ‘मुझे क्या जरूरत पड़ी है तुम्हें घाटे के सौदे में फंसाने की?’ विवेक भुनभुनाया। ‘जरूरत तो नहीं पड़ी लेकिन...यानी कि तुम्हारी राय में सौदा बुरा नहीं।’ ‘मुझे नहीं मालूम सौदा बुरा है या अच्छा। मैंने सौदे के बारे में कोई राय नहीं दी। मैंने माल के बारे में राय दी है। और अपनी राय की बाबत भी मैंने यह दावा नहीं किया कि वो सौ फीसदी दुरुस्त है।’ ‘वो तो होतचन्दानी भी कहता था कि किसी एक एक्सपर्ट की राय सौ फीसदी दुरुस्त नहीं हो सकती। थोड़ी बहुत कमी बेशी चलेगी। उससे मुझे एतराज नहीं। मैं ये पूछ रहा हूँ, भाई मेरे, कि मेरी जगह अगर तुम खरीदार होते तो जो कीमत तुमने माल की लगाई है, वो तुम अदा कर देते?’ ‘मेरे पास ऐसी कीमत सात जन्म में नहीं हो सकती।’ ‘हो सकती तो अदा कर देते?’ ‘तुम मुझे बातों में न फंसाओ। मैं तुम्हारे सवाल का जवाब नहीं दे सकता। मेरा जवाब ये है कि जो काम तुमने मुझे करने के लिए दिया था, उसे मैंने अपनी पूरी काबिलियत और ईमानदारी से अंजाम दिया है और मैं बहुत सोच समझ कर इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इन जवाहरात की कीमत उनचास लाख तिहत्तर हजार चार सौ रुपये से किसी सूरत में कम नहीं। अब मेरे नतीजे से इत्तफाक करना या न करना, मेरी आंकी हुई कीमत पर एतबार करना या न करना तुम्हारी अपनी मर्जी पर मुनहसर है।’ ‘बात तो तुम ठीक कह रहे हो।’ विवेक खामोश रहा। ‘कोई वजह तो नहीं दिखाई देती तुम्हारी काबिलियत या ईमानदारी पर एतबार न करने की।’ विवेक कोई जवाब देने की जगह नया सिगरेट सुलगाने में मशगूल हो गया। दामोदर खेतान ने अपना बटुवा निकाला और गिन कर उसमें से सौ सौ के पच्चीस नोट निकाले। ‘ये रही तुम्हारी आधी फीस।’—वह नोट विवेक की तरफ बढ़ाता हुआ बोला—‘बाकी आधी फीस सौदा चुकता होने के बाद।’ ‘थैंक्यू।’—विवेक नोट थमाता हुआ बोला। तभी होतचन्दानी वापिस लौटा। उसके हाथ में टीन का एक छोटा सा डिब्बा था। वह सैन्टर टेबल के करीब पहुंचा। उसने डिब्बे का ढक्कन खोला और डिब्बे को मेज पर उलटा कर दिया। मेज पर मटमैले कंकड़ से लुढ़क पड़े।
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07-09-2011, 10:32 AM | #4 |
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Re: पांच पापी (उपन्यास)
आम निगाह के लिए वो कंकड़ थे लेकिन विवेक की पारखी निगाह ने तत्काल पहचाना कि वे मानक और नीलम थे जो कि अभी तराशे नहीं गये थे।
‘ये क्या है?’—दामोदर खेतान बड़बड़ाये स्वर में बोला। ‘रियासत।’—होतचन्दानी बड़े इत्मीनान से बोला। ‘क्या मतलब?’ ‘ये वर्मा की खानों से निकले नीलम और मानक हैं। तराशे जा चुकने पर इनकी कीमत दस लाख से ऊपर बनेगी लेकिन अपनी मौजूदा हालत में भी पांच लाख से कम का माल ये किसी सूरत में नहीं। विवेक से पूछ लो।’ पूछे जाने से पहले ही विवेक का सिर सहमति में हिलने लगा। ‘तुम्हें कैश डाउन कीमत में दस फीसदी की रियासत चाहिये थी’—होतचन्दानी बोला—‘उसकी जगह मैं तुम्हें ये पांच लाख से कहीं ऊपर का एक्स्ट्रा माल दे रहा हूं। कीमत वही रहेगी जो विवेक ने लगाई। उनचास लाख तिहत्तर हजार चार सौ रुपये। ठीक है?’ ‘ठीक तो है लेकिन…’ ‘क्या लेकिन? हमारे बीच कैश डाउन पर रियासत की बात हुई थी लेकिन ऐसा कुछ तय नहीं हुआ था कि वो रियासत इतनी होगी, किस सूरत में होगी। कहो कि मैं गलत कह रहा हूं।’ गलत तो तुम नहीं कह रहे हो साईं, लेकिन…।’ ‘अगर मैं गलत नहीं कह रहा हूं तो कैश निकालो।’ ‘कैश निकालूं?’ ‘और क्या?’ ‘कैश मेरी जेब में थोड़े ही है! पचास लाख के नोट कोई जेब में रखकर लाये जा सकते हैं?’ ‘तो?’ ‘सुबह! कैश मेरे पास सवेरे आयेगा और तुम जब चाहोगे तुम्हारे पास पहुंचा दिया जायेगा।’ ‘हूं!’—होतचन्दानी विचारपूर्ण स्वर में बोला। फिर वह मेज पर फैले जवाहरात को गिनकर, जुदा जुदा कागजों में लपेट कर काले रंग की शनील की एक थैली में बन्द करने लगा। उसके द्वारा बाद में लाये, बिना तराशे, जवाहरात उसने अलग शनील की थैली में बन्द किये। उसने दोनों थैलियों को उनकी डोरियां खींच कर मजबूती से बन्द किया। फिर वह एक कोने में लगी एक आफिसनुमा टेबल के करीब पहुंचा और उसका इकलौता दराज खोल कर उसने उसमें से एक बड़ा मजबूत भूरा लिफाफा, लाख की एक स्टिक और एक मोमबत्ती बरामद की। वो सब सामान सम्भाल कर वापिस सैन्टर टेबल पर लौटा। उसने शनील की दोनों थैलियां भूरे लिफाफे में बन्द कीं और लिफाफे का फ्लैप गीला करके उसे मोड़ कर लिफाफे के साथ चिपका दिया। ‘जरा अपनी अंगूठी उतारो।’—होतचन्दानी बोला। ‘क्यों?’—दामोदर खेतान हड़बड़ा कर बोला। ‘इस पर मुझे बेलबूटियों की नक्काशी के बीच में तुम्हारे नाम का पहला हरफ ‘डी’ गुदा दिखाई दे रहा है। लिफाफा बन्द करने में तुम्हारी ये अंगूठी सील का काम देगी।’ ‘ओह!’ दामोदर खेतान ने अंगूठी उतार कर मेज पर रखी दी। होतचन्दानी ने विवेक से लाइटर लेकर मोमबत्ती जलाई और फिर लाख और अंगूठी की सहायता से लिफाफे को सील करने लगा। लिफाफे पर आठ दस जगह लाख की सील लग चुकी तो उसने अंगूठी वापिस दामोदर खेतान को लौटा दी और मोमबत्ती बुझा दी। ‘अब ये लिफाफा’—वह बोला—‘सील तोड़े बिना नहीं खोला जा सकता।’ ‘फायदा!’—दामोदर खेतान बोला—‘फायदा क्या हुआ?’ ‘फायदा ये हुआ कि अब सुबह तुम्हारे कैश लेकर आने पर मेरे पर इलजाम नहीं लगाया जा सकेगा कि जिन जवाहरात की परख आज हम सब के सामने हुई थी वो तुम्हारे यहां से चले जाने के बाद मैंने बदल दिये थे या इनमें मैंने कोई घट बढ़ कर दी थी।’ ‘ओह!’ ‘अब कल माल को दोबारा परखने के लिए विवेक को तकलीफ देने की जरूरत नहीं रहेगी। सुबह अगर ये सील तुम्हें बरकरार मिलेंगी तो यह इस बात का सबूत होगा कि जो माल अभी इसमें रखा गया है, ऐन वही इसमें से बरामद होगा।’ ‘तुम इस लिफाफे को फाड़ कर फेंक सकते हो और ऐसा एक नया लिफाफा लेकर उस पर नयी सीलें लगा सकते हो।’ ‘नहीं लगा सकता। अंगूठी तो तुम्हारे पास होगी। और बेलबूटों की ऐसी पेचीदा निक्काशी वाली, तुम्हारे नाम वाली ऐन ऐसी ही अंगूठी ओवरनाइट नहीं बनवायी जा सकती। विवेक से पूछ लो।’ विवेक ने सहमति में सिर हिलाया। ‘ठीक।’—दामोदर खेतान गम्भीरता से बोला। लिफाफा सम्भाले बोतचन्दानी वापिस आफिस टेबल पर पहुंचा। टेबल के इकलौते दराज के नीचे अलमारी की तरह खुलने वाला एक पल्ला लगा हुआ था। उसने उसे खोला तो पीछे से एक नन्हीं सी मजबूत सेफ बरामद हुई। उसने सेफ पर लगे डायल पर एक नम्बर घुमाया और सेफ का दरवाजा खींचा। भारी दरवाजा निःशब्द खुल गया। उसने सील बन्द लिफाफा सेफ में रखा, सेफ को बन्द किया और उसके मुंह पर मेज का पल्ला भी बन्द कर दिया। सेफ दृष्टि से ओझल हो गयी। वह वापिस लौटा। ‘अब’—वह बोला—‘नेपाली झांग की जगह विलायती विस्की हो जाये।’ ‘मेरे लिये नहीं।’—दामोदर खेतान एकाएक उठ खड़ा हुआ—‘मैं चलता हूँ।’ ‘जल्दी क्या है?’ ‘मुझे है। सॉरी अब कल मुलाकात होगी। ‘मर्जी तुम्हारी।’—फिर विवेक को भी उठने का उपक्रम करते पाकर वह बोला—‘तुम तो रुको।’ ‘मैं भी चलता ही हूं।’—विवेक अनिश्चित भाव से बोला। ‘थोड़ी देर रुको। प्लीज! एकाध ड्रिंक तो मेरे साथ लेते जाओ। फिर बेशक चले जाना।’ ‘अच्छी बात है। एकाध ड्रिंक के लिए रुक जाता हूं मैं।’ ‘शुक्रिया।’
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07-09-2011, 10:35 AM | #5 |
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Re: पांच पापी (उपन्यास)
होतचन्दानी दामोदर खेतान को विदा करने के लिए उसके साथ बाहर बंगले के बरामदे तक गया। कुछ क्षण बाद वह अकेला वापिस लौटा
‘हनुमान!’—वापिस विवेक के करीब पहुंचकर उसने जोर से आवाज लगायी। जवाब में उसका सफेद बालों वाला अति विशालकाय बूढ़ा नेपाली नौकर ड्राईंगरूम में पहुंचा। ‘विस्की लाओ।—होतचन्दानी ने आदेश दिया। हनुमान तत्काल वापिस लौट गया। होतचन्दानी विवेक के करीब आ बैठा। वह कुछ क्षण अपलक विवेक को देखता रहा और फिर धीरे से बोला—‘मेरे माल की सही कीमत आंक कर आज तुमने मेरे ऊपर बहुत मेहरबानी की है। उस मेहरबानी का मैं एक छोटा सा बदला चुकाना चाहता हूं।’ विवेक ने उत्तर न दिया। उसने ये भी न पूछा कि वो कैसे बदला चुकाना चाहता था। इसके विपरीत वह उसके बारे में सोचने लगा। कैसा आदमी था ये साधूराम होतचन्दानी जो कि आज से तीस साल पहले अपनी नौजवानी में अपने घर से भाग कर नेपाल आया था और कुछ अपनी मेहनत से और अधिकतर अपनी चालाकी, बेईमानी और ठगी की अद्भुत क्षमता से जमीन से उठ कर आसमान पर पहुंच गया था। कहने को वो आढ़त का दलाल और हिन्दोस्तानी कपड़े का व्यापारी था लेकिन हकीकत वो स्मगलरों का शरणदाता और ठगों और उठाईगीरों का सरपरस्त था। भारत के अलावा बर्मा, बंगला देश और थाईलैंड तक में उसके सम्पर्क बताये जाते थे। अपनी आधी जिन्दगी नेपाल में गुजारने के बाद अब वह अपना तमाम तामझाम बेचकर और बुढ़ौती में एक थाई हसीना से शादी करके हिन्दोस्तान वापिस लौट जाने की तैयारी कर रहा था। अपना मौजूदा बंगला तक वह बेच चुका था। उन जवाहरात की बिक्री आखिरी सौदा था जिसे उसने अभी थोड़ी देर पहले अंजाम दिया था। ‘अगर’—होतचन्दानी कह रहा था—तुमने मेरे से बदला उतारने की कोशिश की होती तो मेरे माल की कीमत तुम पचास की जगह चालीस लाख भी लगा सकते थे, पैंतीस लाख भी लगा सकते थे।’ ‘मेरी लगायी कीमत मंजूर करना’—विवेक बोला—‘आपके लिये जरूरी नहीं था।’ ‘मौजूदा हालात में जरूरी था। मैं कीमत नामन्जूर करता तो सौदा टूट जाता। फिर हिन्दोस्तानी रुपये में कैश डाउन पेमेन्ट करने वाला अपने माल का दूसरा ग्राहक ढूंढ़ने में मुझे महीनों लग जाते जब कि मैं तो इसी हफ्ते यहां से कूच कर जाना चाहता हूं।’ ‘इतना रुपया आप यूं यहां से ले जा सकते हैं?’ ‘ले जा सकता हूं। सबको मालूम है मैं अपना बिजनेस; घर बार सब कुछ बेचकर यहां से जा रहा हूं। पूछे जाने पर मैं जवाहरात का नाम भी नहीं लूंगा। पूछे जाने पर यही कहूंगा कि मुझे सारी रकम अपना घर बार, अपना बिजनेस और उसकी गुडविल बेच कर हासिल हुई।’ ‘खेतान जवाहरात का क्या करेगा?’ ‘पता नहीं। मैंने नहीं पूछा। मुझे अपनी रकम से मतलब है। वो जवाहरात को ले जाकर चाहे दरिया में फेंके। वैसे नेपाल से बाहर उन जवाहरात की कीमत एक करोड़ से ऊपर होगी।’ ‘वो जरूर कोई तरीका होगा उसकी निगाह में उन्हें नेपाल से बाहर ले जा सकने का।’ ‘हूं!’ ‘बहरहाल मैंने तुम्हारी ईमानदारी पर दांव खेला था।’ ‘जानकर खुशी हुई’—विवेक शुष्क स्वर में बोला—‘कि एक बेईमान आदमी को, एक ऐसे बेईमान आदमी को जो खुद मेरे से बेईमानी कर चुका है, अब मेरी ईमानदारी की कद्र हुई, उसे उसकी जरूरत महसूस हुई।’ ‘व्यापार में ऊंचनीच होती ही है।’ ‘जो हरकत आपने मेरे साथ की थी वो व्यापार में हुई ऊंचनीच का नहीं, गुण्डागर्दी, धांधली और साफ बेईमानी का दर्जा रखती है। मेरे साथ पार्टनरशिप का एग्रीमेंट बनवाया, मेरे साइन करने का वक्त आया तो मेरी आंखों में धूल झोंक कर उसे बदल दिया और मेरे से उस कागज पर साइन करवा लिये जिसके मुताबिक मैं आपका पार्टनर नहीं, आपका मुलाजिम था। ये गुण्डागर्दी, धाँधली और बेईमानी नहीं तो और क्या है।’ ‘अच्छे व्यापारी को एक ये भी तो सीख होती है कि वो अपनी आंखें खुली रखे और किसी को उसमें धूल न झोंकने दे! ‘एतबार भी तो कोई चीज होती है!’ ‘धन्धे में नहीं होती। होती है तो साधूराम होतचन्दानी के धन्धे में नहीं होती। मैं भी तुम्हारी तरह होता तो आज भी मैं नंगे पांव, खाली जेब, दो जून की रोटी लिए काठमाण्डू की सड़कों पर दुर-दुर करता फिर रहा होता।’ ‘आप बेईमानी को अपनी खूबी बता रहे हैं?’ ‘नहीं। वक्त की जरूरत।’ ‘मैं आपसे सहमत नहीं।’ ‘जाहिर है। तभी तो कुछ दिन पहले आंखों में खून लिए तुम यहां आ धमके थे। मेरा नौकर हनुमान ऐन मौके पर बीच में न आ गया होता तो उस दिन पता नहीं तुम मेरी क्या गत बनाते। शायद मार ही डालते। बावजूद पीछे हो चुकी इतनी बड़ी घटना के तुमने मेरे से सहयोग किया, मेरे माल की सही कीमत आंकी, इसके लिए मैं तुम्हारा अहसानमन्द हूं और इसका मैं बदला चुकाना चाहता हूं।’ ‘यह आपने पहले भी कहा।’ तभी एक ट्रे पर उम्दा स्काच विस्की, सोडा साइफन और दो ग्लास रखे हनुमान वहां पहुंचा। उसने ट्रे का सामान सैन्टर टेबल पर स्थानान्तरित किया और खाली ट्रे के साथ वहां से विदा हो गया। होतचन्दानी ने विस्की के दो बड़े पैग बनाये। दोनों ने चियर्स बोला। ‘किसी की’—विस्की का एक घूंट पीने के बाद होतचन्दानी बोला—‘मेहरबानी का बदला चुकाने की जरूरत समझने वाली किस्म का आदमी मैं नहीं। लेकिन लगता है इस उम्र में हुए इश्क ने और तीस साल बाद अपने वतन लौटने की खुशी ने मुझे नर्मदिल बना दिया है।’—उसने जेब से एक रंगीन कागज में बंधी पुड़िया निकालकर उसे खोला और खुले कागज को विवेक के सामने किया—‘पन्ना है। दस कैरेट से ऊपर है। एक फैस में जरा से नुक्स है लेकिन वो सैटिंग में छुप जायेगा। इसकी अंगूठी बनवाकर अपनी होने वाली बीवी को देना। मेरे आशीर्वाद के साथ। लो।’ ‘सूम का माल है।’—विवेक कागज समेत पन्ने को थामता हुआ बोला—‘छोड़ूंगा तो नहीं। लेकिन ये न समझिएगा कि इसी में उस धोखाधड़ी और बेईमानी का भी बदला चुक गया जो कि आप मेरे साथ कर चुके हैं। आपकी उस करतूत के लिए तो मैं जब तक जिन्दा रहूंगा आपकी तत्काल मृत्यु की कामना करूंगा।’ ‘पुटड़े!—होतचन्दानी शिकायतभरे स्वर में बोला—‘मेरे घर में बैठकर, मेरी मेहमाननवाजी कबूलते हुए तो ऐसा बुरा बोल न बोल।’ ‘मैं ऐसा ही बुरा बोल बोलूंगा। अलबत्ता आप अपनी विस्की का गिलास मेरे से छीन सकते हैं और मुझे घर से निकाल सकते हैं।’
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..." click me
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07-09-2011, 10:58 AM | #6 |
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Re: पांच पापी (उपन्यास)
‘अरे, नहीं। मैं ऐसा क्यों करूंगा। मैं तो तुम्हारे अपने बीच में अमन शान्ति का माहौल देखना चाहता हूं।’
‘वो नहीं हो सकता।’ ‘और दो दिन का तो दाना पानी रह गया है नेपाल में मेरा। उसके बाद पता नहीं जिन्दगी में हम दोनों कभी एक दूसरे की सूरत भी देख पाएंगे कि नहीं।’ ‘तभी तो इस कोशिश में हूं कि आपको अभी जी भर के कोस लूं।’ होतचन्दानी हंसा। ‘बहरहाल पन्ने का शुक्रिया। मेरी खुद की औकात तो पता नहीं कब होती इतने खूबसूरत और कीमती नग वाली अंगूठी श्वेता को भेंट करने की।’—उसने विस्की का गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ—‘अब मैं चलता हूं।’ ‘अरे, एक ड्रिंक तो और लो।’ ‘नहीं। मेहरबानी।’ उसने पन्ने को कागज में वापिस लपेट कर पुड़िया अपनी जेब में रख ली और बिना अपने मेजबान से हाथ मिलाने का या उसका अभिवादन करने का उपक्रम किए दरवाजे की ओर बढ़ा। ‘डार्लिंग।’—तभी बाहर बरामदे पर से एक सुरीली आवाज आयी—‘कहां हो!’ फिर दरवाजा खुला और एक अतिसुन्दर, अतिआधुनिक, विलायती परिधानधारी युवती ने भीतर कदम रखा। उसका रंग गोरा था, नयन नक्श बहुत तीखे थे और स्याह काले बालों का सजधज ऐसी थी जैसे वह उसी घड़ी उन्हें किसी ब्यूटी पार्लर से सैट कराकर आयी थी। आयु में वो लगभग तीस वर्ष की थी लेकिन उम्र से आया ठहराव और शाइस्तगी उसकी खूबसूरती को दोबाला ही कर रहे थे। वह अचरा योसविचित नाम की वो थाई युवती थी जिससे जवान, उम्रदराज, दो बच्चों का बाप साधूराम होतचन्दानी शादी करने जा रहा था। ‘हल्लो डार्लिंग। हल्लो जालान!’—वह पहले होतचन्दानी और फिर विवेक से बोली—‘मैंने डिस्टर्ब तो नहीं किया! मेरे आने से विघ्न तो नहीं पड़ा!’ ‘कतई नहीं। कतई नहीं!’—होतचन्दानी उठकर उसका स्वागत करता हुआ बोला। वह करीब आयी तो उसने बड़े अनुरागपूर्ण भाव से उसे अपनी एक बांह के घेरे में ले लिया। अपनी नस्ल के लिहाज से अचरा खूब लम्बी थी। उसका कद होतचन्दानी से ज्यादा नहीं तो उसके बराबर जरूर था। कुछ ज्यादा लम्बी वह अपने बालों की वजह से भी लग रही थी। जिसे उसने माथे के ऊपर से गोलाई में घुमाकर सैट करवाया हुआ था। होतचन्दानी की आंखों में उस घड़ी जो गुलाबी डोरे तैरते विवेक को दिखाई दिए, वह समझ न सका कि वे विस्की की वजह से थे या अचरा के आगमन की वजह से। उसने जोर से अचरा को अपने पहलू के साथ भींचा। ‘मेरे बाल न बिगाड़ देना।’—अचरा चेतावनीपूर्ण स्वर में बोली—‘एक घन्टा लगा है इन्हें सैट करवाने में।’ होतचन्दानी ने उसे अपने पहलू से निकल जाने दिया। ‘क्या बात है!’—वह मदभरे स्वर में बोला—‘आज कुछ ज्यादा ही हसीन लग रही हो।’ ‘इसमें मेरा क्या कमाल है?’—वह खनकती हुई हंसी हंसती हुई बोली—‘सब ब्यूटी पार्लर का कमाल है जहां से मैं बाल सैट करवाकर आयी हूं। लेकिन तुम मेरे मेकअप की तारीफ कर रहे हो या मेरी पोशाक की! वैसे ये पोशाक भी नयी है। आज ही पहनी है पहली बार।’ पोशाक एक बहुत भड़कीली स्कर्ट और पीले रंग का ऊनी ब्लाउज थी।’ ब्लाउज की फिटिंग कुछ ऐसी थी कि उसका सुडौल उन्नत वक्ष और भी सुडौल और उन्नत लग रहा था। ‘मेरे लिए काबिलेतारीफ’—होतचन्दानी यूं बोला जैसे बीस साल का छोकरा हो—‘न तुम्हारी पोशाक है और न तुम्हारा मेकअप। मेरे लिए तो काबिलेतारीफ सिर्फ तुम हो।’ ‘थैंक्यू!’—वह बोली—‘थैंक्यू डार्लिंग।’ विवेक फिर दरवाजे की तरफ बढ़ा। ‘जा रहे हो?’—अचरा बोली। ‘हां।’—वह बोला। ‘क्यों?’ ‘क्योंकि कबाब में हड्डी बनने का मेरा कोई इरादा नहीं।’ ‘कबाव से क्या? हड्डी क्या?’ ‘डैडी से समझना।’ और विवेक वहां से विदा हो गया। विवेक जालान होटल क्रिस्टल के डायनिंग हाल में श्वेता शाह के साथ बैठा था। वे डिनर कर चुके थे और अब काफी की प्रतीक्षा कर रहे थे। श्वेता शाह वो नेपाली युवती थी जिस पर विवेक दिलोजान से फिदा था और जिससे शादी करने का वह बड़ा मजबूत इरादा रखता था। श्वेता से उसकी पहली मुलाकात होतचन्दानी के आफिस में हुई थी जहां कि वह अपने एम्पलायर के भेजे होतचन्दानी से कुछ कागजात साइन करवाने आयी थी। होतचन्दानी उस घड़ी कहीं गया हुआ था इसलिए उसके इन्तजार में वह विवेक के केबिन में उसके पास बैठी रही थी। विवेक को पहली नजर में उससे प्यार हो गया था। वो प्यार अब इस कदर परवान चढ़ चुका था कि विवेक उसके बिना अपनी कल्पना नहीं कर सकता था। होतचन्दानी के बंगले पर हुए अपने दिन भर के काम और पच्चीस सौ रुपये की कमाई की बाबत वह सविस्तार श्वेता को बता चुका था। श्वेता की सूरत से साफ जाहिर हो रहा था कि विवेक की वो एडवेंचर उसे कोई खास पसन्द नहीं आई थी। ‘तुम्हें तो’—श्वेता बोली—‘होतचन्दानी से सख्त नफरत थी।’ ‘मुझे किसी से नफरत नहीं।’—बात को मजाक में उड़ाने की गरज से विवेक बोला—‘मैं महात्मा बुद्ध हूं।’ ‘उस शख्स ने तुम्हें इतना बड़ा धोखा दिया, बल्कि साफ-साफ तुम्हें ठगा फिर भी तुम्हें उसका काम करना मंजूर हुआ!’ ‘उसका नहीं डार्लिंग, दामोदर खेतान का।’
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