29-07-2012, 12:40 AM | #11 |
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-अनु सिंह चौधरी एक दोस्त थी मेरी। थी क्योंकि अब उससे कोई सरोकार नहीं। मस्त-मलंग। दुनिया की फिक्र नहीं। उंगलियां उठाने वालों की परवाह नहीं। उसने किया वो जो दिल ने चाहा। हथेली पर दिल लेकर घूमने वालों को ठोकरें भी बड़ी मिलती हैं। दिल टूट जाने का खतरा भी बना रहता है। जाने कितनी बार टूटी। जाने कितनी बार सहेजा खुद को। हमने भी तोड़ा होगा एक-दूसरे का दिल। जन्म-जन्मांतर की दोस्ती के वायदे करने के बाद भी भरोसे को बचा नहीं पाए होंगे एक-दूसरे के। हम एक ही शहर में हैं लेकिन जुदा हैं एक-दूसरे से। मैंने कई बार फोन बदला है। कई बार गैर-जरूरी नंबरों से फोनबुक खाली किया है। एक उसका नंबर नहीं मिटता। उसको फोन उठाकर नहीं कह पाती कि याद आया करती हो तुम। हम साथ होते हुए भी एक-दूसरे से इतने जुदा कैसे हो जाते हैं? हो ही तो जाते हैं क्योंकि एक ही घर में अजनबी हो जाते हैं दो इंसान। भाई-भाई में जन्मों की दुश्मनी हो जाती है। परिवार विघटित हो जाते हैं। घर टूट जाता है। रिश्ते बिखर जाते हैं। इन सभी की जड़ एक अहं होता है जो टूटता ही नहीं। जाने किस पत्थर का बना होता है हमारा अभिमान। अहं ही आड़े आ रहा है कि फोन नहीं कर पा रही हूं उस दोस्त को। क्या कहूंगी? कैसे कहूंगी कि इतने सालों तक तुम्हें याद भी किया लेकिन तुम्हारे बिना जीने की ऐसी आदत पड़ गई है कि तुम हो ना हो कोई फर्क पड़ता नहीं। फिर भी पड़ता है। पहले प्यार को एक टीस बनाकर जिए जाने का दर्द भी ऐसा ही होता होगा। शायद बचपन की दोस्त को खो देने के जैसा। अहं आड़े आ जाता है और कई बार शुक्रगुजारी के तरीके भूल जाते हैं हम। कई बार साथ होते हुए भी कह नहीं पाते। ना होते तो क्या होता। मैं अपने अहं की वजह से सबसे भाग रही हूं इन दिनों क्योंकि कभी-कभी पलायन इकलौता रास्ता होता है। दर्द के तार में झूठी-सच्ची टीस के मोती गिनकर पिरोना जिन्दगी में रुचि बचाए रखता है क्योंकि उन्हीं के दम पर दिलफरेब कहानियां रची जा सकती हैं। पोस्ट लिखकर वाहवाहियां जमा की जा सकती हैं। ये सारी तकलीफें झूठी हैं। हमारी अपनी पैदा की है। हमारे अपने दिमाग की उपज। इसलिए क्योंकि दर्द में डूबा इंसान किसको दिलकश नहीं लगता? मन मारकर जीने वाली अपनी कहानियां सुनाकर सहानुभूतियां जमा कर सबसे मशहूर हुआ जा सकता है। कई दिलों में डेरा डाला जा सकता है आंसू बहाकर। अपनी दुख-गाथा सुनाकर सबसे ज्यादा दोस्त और हितैषी बना सकते हैं आप। कमजोर, टूटे हुए इंसान पर सबको प्यार आता है। सीधे तौर पर उससे खतरा सबसे कम होता है इसलिए। ट्रैजडी हिट होती है, ट्रैजिक एंडिंग वाली लव स्टोरी सुपरहिट। कह दो कि इतनी तकलीफ में हैं कि आस-पास उड़ते फिरते शब्दों को सलीके से एक क्रम में रख देना नहीं आ रहा तो सबसे ख़ूबसूरत कविता बनती है। इसलिए आओ झूठे-सच्चे दर्द जीते हैं। आंसुओं को बाहर निकालने के एकदम झूठे बहाने ढूंढते हैं। आओ रोना रोते हैं कि फिर बेमुरव्वत निकली जिन्दगी और हौसले ने तोड़ दिया है दम फिर से। आओ, दूर बैठे किसी ना मिल सकने वाले साजन की दुहाई देते हुए फिर से कच्चे-पक्के गीत लिखते हैं। आज की रात मेरे पास मेरी बचपन की दोस्त के ना होने का बहाना है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
29-07-2012, 01:01 AM | #12 |
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विचारों से उत्पन्न होता है सृजन
-प्रवीण पांडेय विचारों का प्रवाह सदा अचम्भित करता है। कुछ लिखने बैठता हूं। विषय भी स्पष्ट होता है। प्रस्तुति का क्रम भी। यह भी समझ आता है कि पाठकों को क्या संप्रेषित करना चाहता हूं। एक आकार रहता है पूरा का पूरा। एक लेखक के रूप में बस उसे शब्दों में ढालना होता है। शब्द तब नियत नहीं होते हैं। उनका भी एक आभास सा ही होता है विचारों में। शब्द निकलना प्रारम्भ करते हैं। जैसे अभी निकल रहे हैं। प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। विचार घुमड़ने लगते हैं। लगता है कि मन में एक प्रतियोगिता सी चल रही है। एक होड़ सी मची हैं। कई शब्द एक साथ प्रस्तुत हो जाते हैं। आपको चुनना होता है। कई विचार प्रस्तुत हो जाते हैं। आपको चुनना होता है। आप उन विचारों को, उन शब्दों को चुन लेते हैं। उन विचारों, उन शब्दों से संबद्ध विचार और शब्द और घुमड़ने लगते हैं। आप निर्णायक हो जाते हैं। कोई आपको थाली में सब प्रस्तुत करता जाता है। आप चुनते जाते हैं। कोई विचार या शब्द यदि आपको उतना अच्छा नहीं लगता है या आपका मन और अच्छा करने के प्रयास में रहता है तो और भी उन्नत विचार संग्रहित होने लगते हैं। प्रक्रिया चलती रहती है। सृजन होता रहता है। पूरा लेख लिखने के बाद जब मैं तुलना करने बैठता हूं कि प्रारम्भ में क्या सोचा था और क्या लिख कर सामने आया है तो अचम्भित होने के अतिरिक्त कोई और भाव नहीं रहता है। बहुधा सृजनशीलता योग्यता से कहीं अच्छा लिखवा लेती है। बहुत से ऐसे विचार जो कभी भी मन के विचरण में सक्रिय नहीं रहे सहसा सामने आ जाते हैं। न जाने कहां से। एक के बाद एक सब बाहर आने लगते हैं। ऐसा लगता है कि सब बाहर आने की बाट जोह रहे थे। उन्हें बस अवसर की प्रतीक्षा थी। आपका लिखना उनकी मुक्ति का द्वार बन जाता है। आप माध्यम बन जाते हैं। आपको थोड़ा अटपटा अवश्य लगेगा कि अपने लेखन का श्रेय स्वयं को न देकर प्रक्रिया को दे रहा हूं। उस प्रक्रिया को दे रहा हूं जिसके ऊपर कभी नियन्त्रण रहा ही नहीं हमारा। कभी कभी तो कोई विचार ऐसा आ जाता है इस प्रक्रिया में जो भूतकाल में कभी चिन्तन में आया ही नहीं और अभी सहसा प्रस्तुत हो गया। जब कोई प्रशंसा कर देता है तो पुन: यही सोचने को विवश हो जाता हूं कि किसे श्रेय दूं। श्रेय लेने के लिए यह जानना तो आवश्यक ही है कि श्रेय किस बात का लिया जा रहा है। मुझे तो समझ नहीं आता है। सृजन के चितेरों से सदा ही यह जानने का प्रयास करता रहता हूं। सृजन के तीन अंग हैं। साहित्य, संगीत और कला। साहित्य सर्वाधिक मूर्त और कला सर्वाधिक अमूर्त होता है। शब्द, स्वर और रंग अभिव्यक्ति गूढ़तम होती जाती है। अभिव्यक्ति के विशेषज्ञ भले ही कुछ और क्रम दें पर मेरे लिए क्रम सदा ही यही रहा है। बहुत कम लोगों में देखा है कि आसक्ति तीनों के प्रति हो। विरले ही होते हैं ऐसे लोग जो तीनों को साध लेते हैं। बहुत होता है तो लोग दो माध्यमों में सृजनशीलता व्यक्त कर पाते हैं। समझने की समर्थ और व्यक्त करने की क्षमता दोनों ही विशेष साधना मांगती है कई वर्षों की। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही देखें। तीनों में सिद्धहस्त। पर सबसे पहले साहित्य लिखा,फिर संगीत साधा और जीवन के अन्तिम वर्षों में रंग उकेरे।
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31-07-2012, 02:57 PM | #13 |
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दिल से देखना भी सीखें
-अपूर्व कृष्ण जाड़े में ठंड लगती है, मगर उसका लोगों को इंतजार भी होता है। जब ट्रंक से नेफ्थेलीन की गोलियों की गंध वाले स्वेटर, जैकेट, टोपी, मफलर निकलते हैं। जब शादी के जमाने में सिलवाए सूट-कोट के दिन फिरते हैं। जब सूरज के ठीक सिर के नीचे क्रिकेट खेलने का सुख लिया जाता है। रात को बैडमिंटन कोर्ट सजते हैं। आलू, छिमी, टमाटर की तरकारी और गाजर के हलवे का भोग किया जाता है। जाड़ों की नर्म धूप और...। आंगन में न सही छत या बरामदे पर लेटकर इस गाने वाली अनुभूति तो अपनी जगह है ही। लेकिन इस जाड़े का एक दूसरा चेहरा भी है जो सुहाना नहीं डरावना है। इसने पिछले साल यूरोप में साढ़े छह सौ लोगों की बलि ली। रूस, यूक्रेन, पोलैंड, चेक गणराज्य, बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, सर्बिया, क्रोएशिया, मॉन्टेनीग्रो, स्लोवेनिया। इन देशों में जाड़ा मौतें लेकर आया। मगर मरने वाले कौन थे? अधिकतर गरीब और बेघर-बेसहारा लोग। पता नहीं उनकी मौत का बड़ा जिम्मेदार कौन है। जाड़ा या गरीबी। पश्चिमी देश यूरोप, अमरीका। ये अमीर हैं और पुराने अमीर हैं, मगर गरीबी यहां भी बसती है और अक्सर दिखती भी है। बशर्ते देखने वाला देखना चाहे। लंदन में रनिवास बकिंघम पैलेस और प्रधानमंत्री आवास 10 डाउनिंग के निकट चमकते पर्यटक स्थल ट्रैफेल्गर स्क्वायर के पास तमाम रौनक के बीच कहीं दिखाई दे जाएंगे गरीब, होमलेस, बेघर। कहीं चुपचाप ठिठुरते। कोई मैग्जीन बेचते खड़े हुए या कहीं सड़क किनारे किसी दूकान के पास किसी कोने में गत्तों के बिछौने पर कंबल में लिपटे सोते हुए। ऐसे बेघरों की सहायता करने वाले एक चर्च के पास एक बोर्ड पर लिखा है - कई होमलेस लोग सारे दिन एक भी शब्द नहीं बोलते। कोई उनसे बात नहीं करता। बहुतों को डिप्रेशन या दूसरी मानसिक बीमारियां हो जाती हैं। बहुतेरे हार जाते हैं। आत्महत्या की कोशिश करते हैं। वहीं एक बेघर का अनुभव लिखा है - पहला दिन जब मुझे सड़क पर सोना था, मैं बहुत झिझक रहा था। मैं सड़क पर बैठा, गत्ते बिछाए। फिर अपने बैग से पानी, कप, चादर, चप्पल निकालना शुरू किया। डरते-डरते कि कहीं लोग मेरा वो सामान देख न लें। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, इसकी चिन्ता की कोई जरूरत ही नहीं। लोग हम जैसों की ओर देखते ही नही। पिछले दिनों एक पत्रिका में एक युवा टीटीई ने एक घटना के बारे में बताया। एक बार मुझे ट्रेन पर एक बूढ़ी महिला मिली बेटिकट। मैंने उसे 360 रूपए का फाइन लगाया। उसने बिना कुछ बोले दे दिया। बाद में देखा वो एक कोने में बैठी रो रही है। मैं उसके पास गया। वो पहले डर गई। फिर बाद में सहज हुई और बताया कि वो दाई का काम करती है। नर्सिंग की पढ़ाई कर रही अपनी बेटी से मिलने जा रही है, जिसने पैसे मांगे हैं। उसके पास केवल 500 रूपए थे। उस पांच सौ रूपए में से 360 तो उसने मुझे दे दिए थे। मैं परेशान हो गया। मैंने उसे पैसे लौटाने चाहे, मगर उसने मना कर दिया। बोली - ठीक है बेटा, तुम्हारे मन में दया है। मुझे तो तुम जैसे लोगों से दो अच्छे बोल की भी उम्मीद नहीं रहती। बेघर-लाचार हर तरफ हैं। हर मौसम में । जाड़ा हो या गर्मी। आंखें धोखा दे देती हैं। उन्हें देखने के लिए दिल चाहिए, जो होता तो सबके पास है, मगर कोई देखना नहीं चाहता।
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31-07-2012, 04:22 PM | #14 |
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आप भी करो ‘दाग अच्छे हैं’ पार्टी !
-निर्मला भुराड़िया भतीजी मौलश्री ने अपनी बिटिया दो वर्षीय अन्वी का बर्थ डे अनूठे अंदाज में मनाया। पार्टी का शीर्षक दिया-दाग अच्छे हैं। वैसे आमतौर पर इन दिनों बच्चों की बर्थडे पार्टी में यह होता है कि बच्चे आते है ऐसे कपड़े पहनकर जिस पर कुछ गिर न जाए यह डर मां-बाप को रहता है। कुल मिलाकर औपचारिकता और दिखावा ज्यादा मौज मस्ती कम। मगर दाग अच्छे हैं पार्टी में ऐसा कुछ नहीं था। बच्चों को खुलकर खेलने, ढोलने, बिखेरने का मौका था। पार्टी में बच्चों के खेलने के लिए ऐसी ही चीजें उपलब्ध करवाई गई थीं जो आजकल शहरी बच्चों को नसीब नहीं होती। इन्हें अलग-अलग गतिविधियों के रूप में बांटा गया था ताकि बच्चे अपनी मर्जी की एक्टिविटी चुन कर उसका मजा ले सकें। जैसे पॉट ए प्लांट। इस गतिविधि के लिए मिट्टी,पौधे और छोटे गमले रखे थे। जिस बच्चे की इच्छा हो वह पौधा रोपे। या यूं कहें पौधा रोपने के खेल में लग जाएं। एक और एक्टिविटी थी पॉट योर पॉट। इसमें कुम्हार की मिट्टी थी। बच्चे चाहें तो आड़े-तिरछे, आंके-बांके मिट्टी के बरतन बनाएं और कुछ नहीं तो मिट्टी थेप कर मजे से हाथ गंदे करें। आमंत्रितों की मम्मियों को पहले ही कह दिया गया था कि चाहें तो बच्चों को एप्रेन पहना कर भेजें। भई यह तो दाग अच्छे हैं पार्टी है। एक कोने में इनफ्लेटेड पूल भी रखा गया था जिसमें पानी और झाग थे। बच्चे इसमें चाहें तो खेलें, झाग उड़ाएं, संतरंगी बुलबुले बनाएं और फोड़ें। उनकी मर्जी। यहां कौन कहेगा गीले मत होओ, सर्दी लग जाएगी। और भी गतिविधियां थीं। मतलब यही कि मिट्टी,पानी,पौधे जैसी नैसर्गिक चीजों का साथ और इनसे मनचाहे ढंग से खेलने की उन्मुक्तता। बच्चों को इससे ज्यादा मजेदार और क्या लग सकता है? एक-दो दशक पहले तक का बचपन आज जितना बंधा हुआ नहीं था। धूल-धमासा, मिट्टी-पानी उपलब्ध भी थे और इन्हें छूना मना भी नहीं था। आज बच्चों के लिए शिक्षा आदि के अवसर जरूर बढ़ रहे हैं मगर खुलकर खेलने के अवसर कम हो रहे हैं। ऐसे में कभी-कभी दाग अच्छे हैं वाली छूट बड़ी प्यारी होती है। बच्चों का लालन-पालन करने के लिए बच्चों का मनोविज्ञान समझना जरुरी होता है। यही नहीं आपको अपने बचपन में जाकर बच्चा बन कर सोचना होता है कि एक बालक क्या चाहता है। किन स्थितियों में वह खुश होता है, किन स्थितियों में अपमानित होता है, किन स्थितियों में कसमसाता है पर प्रतिवाद नहीं कर पाता क्योंकि वह बच्चा है पर निर्भर और कमजोर है। परिवार के स्तर पर ही नहीं देश के स्तर पर भी हमारे यहां बच्चे की एक नागरिक और भावी कर्णधार की तरह चिंता नहीं की जाती। रोज बच्चे बोरवेल में गिर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद सुरक्षा संबंधी गाइड लाईंस का पालन नहीं हो रहा। बंगाल में एक वॉर्डन ने रात में बिस्तर गीला करने वाली बच्ची को स्वमूत्र पान की घिनौनी सजा दे डाली! बच्ची की बीमारी और मनोविज्ञान समझ कर उचित चिकित्सा करवाने के बजाए। लाख कानूनों के बावजूद न देश से बाल मजदूरी विदा हुई है न बाल विवाह। आखिर हम कब बच्चों को भी एक संपूर्ण मनुष्य समझ कर उनसे आदर और प्यार भरा व्यवहार करना सीखेंगे।
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01-08-2012, 01:55 AM | #15 |
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फिर बोझ नहीं रहेंगी लड़कियां?
-सुनील अमर लड़की को बोझ समझने की प्रवृत्ति में कमी क्यों नहीं आ रही है? मेडिकल पत्रिका लॉंसेट का अनुमान है कि भारत में प्रतिवर्ष 5 लाख से अधिक कन्या-भ्रूण हत्याऐं होती हैं। हालिया जनगणना से यह भी साफ हो चुका है कि इसके पीछे गरीबी नहीं बल्कि दूषित मानसिकता मुख्य कारण है। सच्चाई तो यह है कि गरीबों के लिए बेटियां बोझ हैं ही नहीं क्योंकि वहां पेट भरने की दैनिक जुगत के आगे खर्चीली शादी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जिन दक्षिणी राज्यों में लड़कियों की सामाजिक स्थिति शुरु से दमदार थी वहां भी अब दहेज की कुप्रवृत्ति तेजी से पांव पसार रही है। बेवजह की शान के लिए लड़कियां पहले भी मारी जाती रही और आज भी ‘आॅनर किलिंग’ सार्वजनिक रुप से हो ही रही है। जब तक नहीं मारी जा रही हैं तब तक उनके उठने-बैठने,चलने-फिरने, कपड़े पहनने और मोबाइल-कम्प्यूटर इस्तेमाल करने तक पर मर्दों द्वारा अंकुश लगाया जा रहा है। यह मान लिया गया है कि मर्द अगर भ्रष्ट हैं तो उसकी जिम्मेदार सिर्फ औरत है। ऐसे में इसका हल क्या हो? जवाहरलाल नेहरु विवि में समाजशास्त्र की फेलो और महिलावादी लेखिका सुश्री शीबा असलम फहमी इसका सीधा और सपाट त्रिसूत्री उपाय बताती हैं- लड़कों की तरह उच्च शिक्षा, लड़कों जितनी आजादी और पारिवारिक सम्पत्ति में बराबर हिस्सा। ये तीन उपाय कर दीजिए तो फिर आपकी लड़की आपपर बोझ नहीं रह जाएगी और जैसे आपका लड़का पढ़-लिखकर अपना जीवन जीने का रास्ता खोज लेता है, आपकी लड़की उससे भी अच्छी तरह अपना रास्ता बना लेगी। अब यही एक विकल्प बचता है कि पुराने कानूनों की समीक्षा कर ऐसे नए और कठोर कानून बनाए जाएं जो बेटियों को पैतृक सम्पत्ति में न सिर्फ बराबर हिस्सा दिलाएं बल्कि उनकी सारी शिक्षा और शैक्षणिक व्यय को सरकार द्वारा वहन किए जाने की गारण्टी भी दे। राज्य सरकारें लड़कियों के जन्म पर धनराशि, स्कूलों में सायकिल, माध्यमिक शिक्षा पूरी करने पर कुछ हजार रुपये तथा गरीब परिवार की लड़कियों की शादी पर भी मदद दे रही हैं लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि यह वोट लेने का नाटक होकर रह गया है। 1994 में देश में भ्रूण परीक्षण कानून बना तथा 1996 में इसमें संशोधन कर और सख्त बनाया गया लेकिन क्रियान्वयन में ढिलाई के चलते नौबत आज यहां तक आ पहुंची है कि न सिर्फ पोर्टेबुल अल्ट्रासाउन्ड मशीन को सायकिल पर लादकर गांव-गांव,गली-गली मात्र 400-500 रुपयों में भ्रूण परीक्षण किए जा रहे हैं बल्कि अब इन्टरनेट पर भी चंद रुपयों में ऐसी सामाग्री उपलब्ध है जिसे खरीद कर कोई भी अपने घर पर ही ऐसा परीक्षण कर सकता है। जाहिर है कि सिर्फ रोक लगाने के कानून इस समस्या को हल नहीं कर सकते। समस्या तभी हल हो सकती है जब इसे समस्या ही न रहने दिया जाय। लड़कियों से धार्मिक कर्म कांड और मां-बाप का अंतिम संस्कार कराने जैसे कार्यो को राजकीय संरक्षण मिलना ही चाहिए। लड़कियों की कमी का कहर भी हमेशा की तरह गरीब और निम्न जाति के युवकों पर ही टूटना तय है क्योंकि हमारे समाज की मानसिकता लड़की को अमीर घर में ब्याहने की है और अमीरों की शादियां तो कई रास्तों से हो जाती हैं। इसलिए सरकार को अब इस समस्या के निदान के लिए पूरी तरह से कमर कस लेने का वक्त आ गया है। भावनात्मक नारों और नैतिकता का पाठ पढ़ाने के प्रयोग असफल हो चुके हैं, यह ताजा जनगणना के आंकड़ों ने बता दिया है।
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03-08-2012, 12:11 AM | #16 |
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अंगीठी पर भुट्टे और स्टीम इंजन के दिन
-आराधना चतुर्वेदी बचपन अलग-अलग मौसमों में अलग खुशबुओं और रंगों के साथ याद आता है। बरसात का मौसम है तो भुट्टे याद आए। भुट्टे याद आए तो अंगीठी याद आई। कोयला याद आया। फिर स्टीम इंजन और दिल बचपन की यादों में डुबकियां लगाने लगा। तब की बातें सोचती हूं और आज को देखती हूं तो लगता ही नहीं है कि ये वही दुनिया है। वो दुनिया सपने सी लगती है। छोटे शहरों में खाना मिट्टी के तेल के स्टोव या अंगीठी पर बनता था। तब तक वहां गैस सिलेंडर नहीं पहुँचा था। रेलवे कालोनी के सारे घरों में कोयले की अंगीठी पर खाना बनता था क्योंकि स्टीम इंजन की वजह से कोयला आराम से मिल जाता था। कच्चा और पक्का कोयला। पक्का कोयला आता कहां से थाए ये शायद नए जमाने के लोग नहीं जानते होंगे। स्टीम इंजन में इस्तेमाल हुआ कोयला भी आधा जलने पर उसी तरह खाली किया जाता था जैसे अंगीठी को खोदनी से खोदकर नीचे से खाली करते थे जिससे राख और अधजला कोयला झड़ जाय और आक्सीजन ऊपर के कोयले तक पहुंच उसे ठीक से जला सके। इंजन के झड़े कोयले को बेचने के लिए रेल विभाग ठेके देता था। पक्के कोयले का इस्तेमाल अंगीठी को तेज करने में होता था और हम लोग भी किलो के भाव से इसे खरीदते थे। बाऊ प्लास्टिक के बोरे में साइकिल के पीछे लादकर घर लाते थे। आजकल की पीढ़ी ने पापा को साइकिल चलाते देखा है क्या? बरसात में ये कोयला बड़े काम आता था क्योंकि कच्चा कोयला मुश्किल से जलता था। अंगीठी सुलगाने के लिए उसके अन्दर पहले लकड़ी जला ली जाती थी उसके बाद कोयला डाला जाता था। रेल ट्रैक के बीच में पहले पहाड़ की लकड़ी के स्लीपर बिछाए जाते थे वही खराब होने पर जब निकलते थे तो रेलवे कर्मचारी सस्ते दामों पर खरीद लेते थे। ये लकड़ी अच्छी जलती थी। अम्मा या दीदी कुल्हाड़ी से काटकर उसके छोटे टुकड़े करती थीं। मैं छोटी इसलिए केवल देखती थी। कोयला और लकड़ी बरसात में भीग जाते थे इसलिए बरसात में अंगीठी सुलगाने में मुश्किल होती थी। अंगीठी सुलग जाती थी तो उसे उठाकर बरामदे में रखा जाता था और उस पर अम्मा भुट्टे भूनती थीं। आंगन में झमाझम बारिश और हम बरामदे में अम्मा के चारों ओर बैठकर अपने भुट्टे के भुनने का इंतजार करते थे। अभी तो न जाने कितने सालों से आंगन नहीं देखा और ना ही अम्मा के हाथ से ज्यादा अच्छा भुना भुट्टा खाया है! मेरे बाऊ रेलवे क्वार्टर के सामने की जगह को तार से घेरकर क्यारी बना देते थे और उसमें हर साल भुट्टा बोते थे। कभी-कभी तो इतना भुट्टा हो जाता था कि उसे सुखाकर बांधकर छत पर लगी रॉड में बांधकर लटका दिया जाता था। फिर हमलोग कभी-कभी उसके दाने छीलकर अम्मा को देते थे और वो लोहे की कड़ाही में बालू डालकर लावा भूनती थीं। एक भी दाना बिना फूटे नहीं रहता था। आज की पीढ़ी ने स्टीम इंजन चलते नहीं देखा। उसके शोर को नहीं सुना। उसके धुएं से काले हो जाते आसमान को नहीं देखा। बहुत सी और यादें हैं। और भूले हुए शब्द। लोहे के औजार बाऊ हाथों से बनाते थे। संडसी, बंसुली, खुरपी, कुदाल, फावड़ा, नन्ही पेंचकस, कतरनी, गंड़ासी, आरी, रेती...। इनके नाम सुने हैं क्या? या सुने भी हैं तो देखे हैं क्या?
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03-08-2012, 08:29 PM | #17 |
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वो कल भी पास थे, वो आज भी करीब हैं
-निखिल आनंद गिरि मेरी मां ने आज तक कोई फिल्म पूरी नहीं देखी। सती अनुसुइया, गंगा किनारे मोरा गांव जैसी अमर भोजपुरी फिल्में पूरी देखने के दौरान भी दो-तीन बार झपकी जरूर मार ली होगी। आप उसके सामने किसी भी दौर की अच्छी फिल्म लाकर रख दीजिए, फिल्म का बखान कीजिए कि ये सिनेमा के फलां तीसमारखां की फिल्म है वगैरह-वगैरह। वो फिल्म देखने के साथ कभी दाएं, कभी बाएं जरूर डोलती नजर आएगी। मां की सिनेमाई नींद के आगे किसी भी सुपर स्टार या महानायक की ऐसी की तैसी न हो जाए तो फिर कहिए। हिंदी फिल्मों के नाम पर उनकी देखी गई हाथी मेरे साथी व स्वर्ग ही बार-बार याद की गई हिंदी फिल्म है। हाथी मेरे साथी देखने और याद रखने का एक कारण अगर फिल्म में हाथी की मौजूदगी को मान लें तो भी स्वर्ग में सिर्फ राजेश खन्ना ही वो किरदार थे जिन्होंने मेरी मां को भी प्रभावित किया। मां की पहली पसंद राजेश खन्ना रहे हैं। हमने वीसीआर पर घर में पहली बार स्वर्ग फिल्म देखी थी। मैं तब स्कूल में पढ़ता था। मुझे याद है घर में ये फिल्म कई बार देखी जा चुकी है। वो भी सिर्फ मां की वजह से। मां को न वीसीआर चलाना आता है और न ही फिल्में देखने का शौक है। उसे तो ये भी नहीं पता कि सुपर स्टार जैसी कोई चीज भी होती है। ये राजेश खन्ना का कोई जादू ही था कि मां उनका नाम जानती है चेहरे से पहचानती है। जैसे बाद में मेरे टीवी या क्रिकेट देखने के शौक की वजह से वो अमिताभ को अमितभवा और सचिन को सचिनवा के नाम से पहचान चुकी है। और कई बड़े लोगों का नाम पूछकर कई बार देख चुका हूं मगर उन्हें पहचानने में वो आत्मविश्वास नहीं दिखता। बात स्वर्ग की। तब समस्तीपुर में पापा ने पहली बार जमीन खरीदी थी और हमारा घर बन रहा था। हम पापा की नौकरी की वजह से बिहार के जिस कोने में भी होते अपने घर को लेकर कुछ न कुछ बात जरूर होती। मां अपने घर को स्वर्ग ही कहकर बुलाती। ये बहुत बाद में समझ आया कि सिनेमा और एक दर्शक का रिश्ता क्या हो सकता है। जिस महिला ने शायद ही कभी सिंगल स्क्रीन थियेटर में (ऊपर लिखी दो-चार फिल्मों को छोड़कर) कदम रखा हो, शायद ही कभी मॉल या मल्टीप्लेक्स के दर्शन की सोच पाए उसके लिए राजेश खन्ना घर का हिस्सा थे। इसके बाद शायद ही कुछ कहने को बचता है कि राजेश खन्ना क्यों हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार कहे जाते हैं। वो भी तब जब राजेश खन्ना के गुजरने पर हाथी मेरे साथी या स्वर्ग का जिक्र एक भी चैनल या वेबसाइट पर उनकी चुनिंदा फिल्मों में देखने को नहीं मिल रहा है। यानी एक सुपरस्टार की कामयाबी इसी में है कि उसकी दूसरे दर्जे की सफल फिल्म भी एक विशुद्ध हाउसवाइफ को उसका ऐसा फैन बना सकती है कि वो ताउम्र अपने घर का नाम उसकी एक फिल्म के नाम पर रखना चाहे। अपने आखिरी दिनों में किया गया राजेश खन्ना का वो पंखे का विज्ञापन भी याद आ रहा है जिसमें राजेश खन्ना की एक्टिंग का सबसे बुरा इस्तेमाल ये कहलवाने में हुआ कि मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता। हालांकि ये बात बिल्कुल सच है कि राजेश खन्ना के फैन्स हमेशा बचे रहेंगे। जब तक धरती पर प्यार बचा है। जब तक भारतीय सिनेमा बचा है। जब तक गीत लिखने वालों और संगीत रचने वालों की कद्र बची है।
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13-08-2012, 11:41 PM | #18 |
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Re: ब्लॉग वाणी
पुरानी स्लेट, बाल कविता और चवन्नी भर चकबक
-गिरीजेश राव आयु बढ़ने के साथ मस्तिष्क पुरानी स्लेट हो जाता है। बचपन की स्लेट नई होती थी तो नया लिखा जाता था,पुराना मिटा दिया जाता था लेकिन धीरे-धीरे खड़ियों के अक्षर स्लेट पर प्रभाव छोड़ने लगते थे। कुछ तो इतने हठी हो जाते कि हाथ से,थूक से,पानी से चाहे जिससे रगड़ लो स्लेट सूखने पर आभास देने लगते। वे उन चिढ़ाने वाले सहपाठियों से लगते जिनकी शिकायत आचार्य से करनी होती थी और जिन्हें दंडित होता देख अच्छा लगता। स्लेट की शिकायत होती और पिताजी नई ले आते। एक बार एक दारोगा की कन्या की स्लेट मेरे हाथ से टूट गई तो उसने पुलिसिया डंडे का इतना आतंक जमाया कि मुझे प्रधानाचार्र्य तक सिफारिश लगानी पड़ी। उसकी नजर मेरी उस स्लेट पर थी जिस पर लिखाई बड़ी सुन्दर होती थी। अब लिखाई का स्लेट से क्या सम्बन्ध लेकिन उसकी समझ जो थी वो थी। मैंने भी अपनी स्लेट नहीं दी बल्कि चवन्नी दंड देकर पीछा छुड़ाया। उसके बाद उसने मिल्ली करने की कोशिशें कीं लेकिन सब बेकार। सोचता हूं कि मस्तिष्क भी स्लेट जैसा होता जिसे पुराना होने पर बदला जा सकता। फिलहाल तो यह असम्भव है। वैसे भी मैं मस्तिष्क ही तो हूं। जब वही बदल जाय तो मैं रहूंगा ही नहीं लेकिन फिर भी सोचो तो मस्तिष्क अलग सा लगता है। मनुष्य सोचता कहां है? मस्तिष्क में न? तो फिर मस्तिष्क इतना चालाक है कि स्वयं से भी अलगाव का भाव रख लेता है। ऐसे मस्तिष्क से कैसे पार पाए? पुरानी स्लेट सरीखे मस्तिष्क का क्या करूं जिस पर अक्षरों के धुंधलके मुंह चिढ़ाते हैं और नए लिखे नहीं जाते। स्लेट युग से आगे की एक चित्रमयी पुस्तक की एक कविता टुकड़ा टुकड़ा याद आई है। जाने किसने रचा था पता नहीं यह पूरी है भी या नहीं ...सब मिल कर के चिल्लाए,उमड़ घुमड़ मेघा आए,ओले गिरे लप लप लप,हमने खाए गप गप गप..! जिन्दगी इस कविता सरीखी आसान होती तो क्या बात होती! बरेली,कोकराझार, मानेसर और दंडकारण्य जैसे मामले आसानी से सुलझ जाते! छेड़खानी के बाद चलती ट्रेन से फैंकी गई लड़की को कोई हवाई राजकुमार बाहों में संभाल लेता और उन सबकी आंखों में सुराख कर देता जिन्हों ने चुप तमाशा देखा। लेकिन ऐसा कहां होता है? अव्वल तो ओले पड़ते नहीं। मुंह में लेने की कौन सोचे जब हजार बैक्टीरिया, वायरस हवा में फैले हुए हैं। दांत सेंसिटिव हो गए हैं। ठंड-गर्म सहा नहीं जाता और टीवी पर सेंसोडाइन का प्रचार करती नकली डाक्टर की नकली मुस्कान देख लगता है कि दारोगा की वह बेटी अब सयानी हो गई है। इतनी भोली नहीं रही कि अच्छी लिखाई का गुर हाथ में न देख स्लेट में देखे, चवन्नी से मान जाए और बाद में मिल्ली की कोशिशें करें।बड़प्पन भोलापन छीन लेता है। सम्वेदनाएं आइसक्रीम सी हो गई हैं। आइसिंग के नीचे घुल जाने वाली ठंड है। न जीभ पर रोड़ा और न दांतों को कुछ खास कष्ट। चुभलाते हुए मन तृप्त होता है और भूल जाता है। इस भुलक्कड़ी में शब्द तक याद नहीं रह जाते। वे शब्द जो सृष्टि की नींव समूल हिलाने की सामर्थ्य रखते थे मन प्रांतर में कहीं खो गए हैं। पुकार भी ठीक से नहीं हो पाती। उमड़ घुमड़ मेघ कैसे आएं? ओले कैसे पड़ें?
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
14-08-2012, 03:46 PM | #19 |
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समोसे के आगे कचौरियों की क्या औकात
-वुसतुल्लाह ख़ान किस्सा ये है कि लाहौर के लोकल एडमिनिस्ट्रेशन ने एक पुराने कानून के तहत तीन बरस पहले समोसा बनाने वालों को हुक्म दिया कि अगर किसी ने आज के बाद एक समोसा छह रूपए से ज्यादा का बेचा तो उस पर कड़ा जुर्माना किया जाएगा। समोसा बनाने वाले इस हुक्म से डरने के बजाए हाईकोर्ट चले गए मगर हाईकोर्ट ने सरकार और समोसा बनाने वालों की दलील सुनने के बाद फैसला दिया कि चुंकि ख़ुद समोसा इस मुकदमे में अपना बचाव करने के काबिल नहीं लिहाजा ये मुकदमा खारिज किया जाता है लेकिन समोसा साजों ने हार नहीं मानी और इस फैसले के खिलाफ जस्टिस इफ्तिख़ार चौधरी की सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया। अदालत ने फैसला सुनाया कि समोसे पर पंजाब फूड स्टफ कंट्रोल एक्ट 1958 लागू नहीं होता लिहाजा पंजाब हुकुमत समोसे की फिक्स कीमत मुकर्रर नहीं कर सकती। समोसा किस कीमत पर बिकता है ये समोसे और उसे बेचने वाले का मसला है लिहाजा हुकुमत पंजाब आइंदा इस तरह के मामले में अपनी टांग न अड़ाए तो बेहतर है। ये फैसला आने की देर थी कि समोसा मारे ख़ुशी के छह रूपए की सीढ़ी से बारह रूपए की छत पर कूद गया और अब वो पकौड़ों, कचौरियों और जलेबियों को हिकारत से देख रहा है जिनकी कीमत और औकात कोई पूछने वाला नहीं। सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला इस लिहाज से अहम है कि दो-ढ़ाई साल पहले वो चीनी और पेट्रोल की कीमत तय करने के बावजूद अपने फैसले पर अमल नहीं कर सकी। न ही किसी प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति आसिफ जरदारी के खिलाफ स्विस कोर्ट को खत लिखवा सकी इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने यकीनन समोसे के हक में फैसला करते हुए सोचा होगा कि चूंकि समोसे को किसी प्रधानमंत्री की तरह पद से नहीं हटाया जा सकता है इसलिए इज्जत इसी तरह बचाई जा सकती है कि समोसे को बरी कर दिया जाए। मेरे एक वकील दोस्त का कहना है कि अदालत के इस फैसले के पीछे जबरदस्त बुद्धिमत्ता है। समोसे के हक में फैसले से साबित हो गया है कि इंसान और समोसा बराबर हैं। ये बात यकीनन अदालत के सामने रही होगी कि समोसा सिर्फ लाहौर या पंजाब का मसला नहीं है बल्कि गालिब, बॉलीवुड, मेंहदी हसन, बासमती चावल और आम की तरह पूरे दक्षिणी एशिया की धरोहर है। ये काबुल से कन्याकुमारी तक, मुल्ला उमर से नरेंद्र्र मोदी तक सबको पसंद है। इसे जितने शौक से मुस्लिम लीग और जमाएते इस्लामी वाले खाते हैं उतने ही शौक से अन्य दलों वाले भी ख़रीदते हैं। सोवियत यूनियन टूट गया, बर्लिन की दीवार गिर गई, इस्लामाबाद में परवेज मुशर्रफ, दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी और बिहार में लालू यादव सत्ता में नहीं रहे मगर समोसे में आज भी आलू है और कल भी रहेगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने समोसे को कीमत के बंधन से आजाद करके जो ऐतिहासिक फैसला किया है उसकी जबरदस्त सराहना होनी चाहिए। अलबत्ता इंसाफ से जलने वाले कुछ लोग ये जरूर कहते हैं कि इस वक्त पाकिस्तान की अदालतों में ऊपर से नीचे तक तकरीबन दस लाख मुकदमे कई बरस से सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं। काश ये मुकदमा करने और लड़ने वाले भी समोसा होते तो कितना अच्छा होता....।
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15-08-2012, 01:25 AM | #20 |
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Re: ब्लॉग वाणी
खजाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना
-समीर लाल समीर मैं उससे कहता कि यह सड़क मेरे घर जाती है। फिर सोचता कि भला सड़क भी कहीं जाती है? जाते तो हम आप हैं। एक जोरदार ठहाका लगाता और अपनी ही बेवकूफी को उस ठहाके की आवाज से बुनी चादर के नीचे छिपा देता। फिर तो हर बेवकूफियां यूं ही ठहाकों में छुपाने की मानो आदत सी हो गई। आदत भी ऐसी कि जैसे सांस लेते हों। बिना किसी प्रयास के बस यूं ही सहज भाव से। इधर बेवकूफी की नहीं कि उधर ठहाके लगा उठे और सोचते रहे कि इसकी आवाज में सब दब छुप गया। अब भला कौन जान पायेगा? यूं गर कोई समझ भी जाए तो हंस तो चुके ही हैं कह लेंगे मजाक किया था। उम्र का बहाव रुकता नहीं और तब जब आप बहते बहते दूर चले आए हों इस बहाव में तो एकाएक ख्याल आता है कि वाकई एक मजाक ही तो किया था। अब ठहाका उठाने का मन नहीं करता। एक उदासी घेर लेती है ऐसी सोच पर। और उस उदासी की वजह सोचो तो फिर वहीं ठहाका। बिना किसी प्रयास के। सहज ही। कहां चलता है रास्ता? कहां जाती है सड़क? वो तो जहां है वहीं ठहरी होती है। हम जब चलते हैं तब भी ठहरे से। सुबह जहां से शुरु हों, शाम बीतते फिर उसी बिन्दु पर। हासिल एक दिन गुजरा हुआ। हां, दिन चलता है। चलते चलते गुजर जाता है। जैसे की हमारी सोच। हमारे अरमान। हमारी चाहतें। सब चलती हैं। गुजर जाती हैं। ठहर जाता हूं मैं। जाने किस ख्याल में डूबा। उस रुके हुए रास्ते पर। सड़क कह रहा था न उसे, जो जाती थी मेरी घर तक। वो कहता कि सड़क जाती है वहां जो जगह वो जानती है। अनजान मंजिलों पर तो हम उड़ कर जाते हैं सड़क के सहारे। एक अरमान थामें। मगर सड़क जाएगी घर तक। तो मेरी सड़क क्यूं नहीं जाती मेरे उस घर तक। जहां खेला था बचपन, जहां संजोये थे सपने, अपने खून वाले रिश्तों के साथ। कहते हैं फिर कि वो जाती है उन जगहों पर जिसे वो जानती है। बताते हैं कि सड़क के उस मुहाने पर जहां मेरा घर होता था, अब एक मकान रहता है। मकान नहीं पहचानती सड़क। घर रहा नहीं। कई बरस हुए उसे गुजरे। तो खो गया फिर उस रुकी सड़क के उस मोड़ पर। जहां से सुबह चलता हूं और शाम फिर वहीं नजर आता हूं इस अजब शहर में। जो खोया रहता है बारहों महिन। छुपा हुआ कोहरे की चादर में। किसी बेवकूफी को ढांपने का उसका यह तरीका तो नहीं? एक ठहाका लगाता हूं। ये मेरा तरीका पीछा नहीं छोड़ता और रास्ता है कि चलता नहीं। तो कुछ कदमों पर समुन्दर है और पलटता हूं तो पहाड़ी की ऊंचाई जिसे छिल छिल कर बनाए छितराए चौखटे मकान। अलग-अलग बेढब रंगों के। कहते हैं यह सुन्दरता है सेन फ्रान्सिसको की। हा हा!! मेरा ठहाका फिर उठता है और यह शहर। छिपा देता है उसे भी अपनी कोहरे की चादर की परत में। और मैं गुनगुनाता हूं अपनी ताजी गजल- भले हों दूरियां कितनी कभी घर छोड़ मत देना हैं जो ये खून के रिश्ते उन्हें तुम तोड़ मत देना उसी घर के ही आंगन में बसी है याद बचपन की खजाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना!
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