24-10-2011, 07:00 PM | #13 |
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Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ
जिस रोज़ से
पछवा चली आँधी खड़ी है गाँव में उखड़े कलश, है कँपकँपी इन मंदिरों के पाँव में। जड़ से हिले बरगद कई पीपल झुके, तुलसी झरी पन्ने उड़े सद्ग्रंथ के दीपक बुझे, बाती गिरी मिट्टी हुआ मीठा कुआँ भटके सभी अँधियाव में उखड़े कलश, है कँपकँपी इन मंदिरों के पाँव में। बँधकर कलावों में बनी जो देवता, 'पीली डली' वह भी हटी, सतिए मिटे ओंधी पड़ी गंगाजली किंरचें हुआ तन शंख का सीपी गिरी तालाब में उखड़े कलश, है कँपकँपी इन मंदिरों के पाँव में।
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