11-12-2011, 07:26 PM | #11 |
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Re: कतरनें
12 दिसंबर को पुण्यतिथि पर
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श को उठाया था आचार्य हजारी प्रसादी द्विवेद्वी की प्रेरणा से ब्रजभाषा के बजाय खड़ी बोली को काव्यभाषा का स्थान दिलाने वाले राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने उस काल में ही ‘स्त्री विमर्श’ को महत्वपूर्ण स्थान दिया और मानवीय मूल्यों को जीवन में उतारने पर बल दिया था। कवि प्रेम जन्मेजय कहते हैं कि आज के इस स्त्री विमर्श के युग से बहुत पहले ही मैथिलीशरण गुप्त ने इस पर चर्चा शुरू की थी और अपनी रचना ‘साकेत’ के माध्यम से लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला की पीड़ा को उजागर किया था। जन्मेजय ने कहा कि गुप्त की रचना में उर्मिला सामंती परिवेश में अपनी शिकायत रखती हैं और स्वाभिमान का परिचय देती हैं जबकि वाल्मीकि और तुलसीदास उर्मिला के दर्द को नहीं देख पाए । झांसी के चिरगांव में तीन अगस्त 1886 में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा घर में हुई। उन्होंने घर में हिंदी, बांग्ला और संस्कृति साहित्य का अध्ययन किया। मुंशी अजमेरी ने उनका मार्गदर्शन किया। बारह साल की अवस्था में उन्होंने ब्रजभाषा में कविता रचना शुरू कर दी। बाद में वह महावीर प्रसाद द्विवेद्वी के संपर्क में आए और उनकी कविताएं खड़ी बोली में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित होने लगीं। सन् 1919 में उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘रंग में भंग’ बाद में ‘जयद्रथ वध’ प्रकाशित हुआ। उन्होंने सन् 1914 में राष्ट्रीय भावनाओं से ओत प्रोत ‘भारत भारती’ का प्रकाशन किया और लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता छा गयी क्योंकि उन दिनों देश में आजादी का आंदोलन चल रहा था। स्वत: प्रेस स्थापित कर उन्होंने अपनी पुस्तकें छापनी शुरू कर दीं। उन्होंने महत्वपूर्ण कृति साकेत और अन्य ग्रंथ पंचवटी आदि 1931 में पूरे किए। सन् 1932 में उन्होंने यशोधरा लिखी। इसी समय वह महात्मा गांधी के संपर्क में आए और गांधीजी ने उन्हें राष्ट्रकवि की संज्ञा दी। सन् 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के तहत वह जेल गए। आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि से सम्मानित किया। आजादी के बाद उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया। सन् 1953 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सन् 1962 में ‘अभिनंदन ग्रंथ’ भेंट किया। हिंदू विश्वविद्यालय ने भी उन्हें डी लिट से सम्मानित किया। जन्मेजय कहते हैं कि साहित्य रचना में आज के व्यावासायिक दृष्टिकोण के विपरीत उनका लेखन कर्म जीवन मूल्य के प्रति समर्पित और वह राष्ट्रप्रेम के झंडाबरदार रहे। डॉ नगेंद्र के अनुसार मैथिलीशरण गुप्त सच्चे राष्ट्रकवि थे। महान साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में उनके काव्य के भीतर भारत की प्राचीन संस्कृति एक बार फिर तरूणावस्था को प्राप्त हुई। मैथिलीशरण गुप्त 12 दिसंबर, 1964 को चल बसे।
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