09-11-2012, 10:10 PM | #11 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
कुँवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर इतना बोले - "अच्छा आप सिधारिए, मैं लिख भेजता हूँ। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुँह पर किसी ढब से न लाना। इसीलिए मैं मारे लाज के मुखपाट होके पड़ा था और आप से कुछ न कहना था।" यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे। तब कुँवर ने यह लिख भेजा - "अब जो मेरा जी होठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ सौ रूप से खोल और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड़ के हाथ जोड़ के मुँह फाड़ के घिघिया के यह लिखता हूँ -
चाह के हाथों किसी को सुख नहीं। है भला वह कौन जिसको दुख नहीं।। उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियाँ उठाए आ गई। उसके पीछे मैंने घोड़ा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी अमराइयाँ ताड़ के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता पत्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहाँ का यह सौहिला है। कुछ रंडियाँ झूला डाले झूल रही थीं। उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अँगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अँगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अँगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुँचती है। अब आप पढ़ लीजिए। जिसमें बेटे का जी रह जाय, सो कीजिए।" |
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