16-11-2012, 06:47 AM | #34 |
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Re: रामचर्चा :: प्रेमचंद
लक्ष्मण बोले—कैकेयी को आप देवी कहें; मैं नहीं कह सकता!
रामचन्द्र ने लक्ष्मण की ओर परसन्नता के भाव से देखकर कहा—लक्ष्मण, मैं जानता हूं कि तुम्हें मेरे वनवास से बहुत दुःख हो रहा है; किन्तु मैं तुम्हारे मुंह से माता कैकेयी के विषय में कोई अनादर की बात नहीं सुन सकता। कैकेयी हमारी माता हैं। तुम्हें उनका सम्मान करना चाहिए। मैं इसलिए वनवास नहीं ले रहा हूं कि यह कैकेयी की इच्छा है, किन्तु इसलिए कि यदि मैं न जाऊं, तो महाराज का वचन झूठा होता है। दोचार दिन में भरत आ जायेंगे, जैसा मुझसे परेम करते हो, वैसे ही उनसे परेम करना। अपने वचन या कर्म से यह कदापि न दिखाना कि तुम उनके अहित की इच्छा रखते हो, बारबार मेरी चचार भी न करना, अन्यथा शायद भरत को बुरा लगे। लक्ष्मण ने क्रोध से लाल होकर कहा—भैया, बारबार भरत का नाम न लीजिए। उनके नाम ही से मेरे शरीर में आग लग जाती है। किसी परकार क्रोध को रोकना चाहता हूं, किन्तु अधिकार को यों मिटते देखकर हृदय वश से बाहर हो जाता है। भरत का राज्य पर कोई अधिकार नहीं। राज्य आपका है और मेरे जीतेजी कोई आपसे उसे नहीं छीन सकता। क्षत्रिय अपने अधिकार के लिये लड़ कर मर जाता है। मैं रक्त की नदी बहा दूंगा। |
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