28-12-2012, 09:43 PM | #1 |
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ग़ज़ल: सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए
सूर्य का अवतरण ढूँढते रह गए.
हम उजाले के कण ढूँढते रह गए. मोतियों की तरह रास्ते भर कहीं, खो गए थे जो क्षण ढूँढते रह गए. ज़िंदगी जब जटिलताओं से घिर गयी, कायरों का मरण ढूँढते रह गए. नंगे लोगों की बस्ती में अपने लिये, हम धवल आवरण ढूँढते रह गए. अपने होने का परचम हिलाते हुये, इक निरापद शरण ढूँढते रह गए. खिल सके मुस्कराहट अनायास जब, ऐसे दो चार क्षण ढूँढते रह गए. |
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