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Old 06-01-2013, 12:27 PM   #1
omkumar
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Default अकबरे आजम के देश में मियां अकबरुद्दीन



अकबर को 'अकबरे आज़म' बेवजह नहीं कहा गया। भारत में दो धर्मों के बीच सद्भाव और सहिष्णुता स्थापित करने की जो दृष्टि सोलहवीं सदी में बादशाह अकबर के पास थी वह अपने समय से बहुत आगे थी। कायदे से चार दशकों के बाद हम अकबर के दौर से बहुत आगे आ चुके होने चाहिए थे। लेकिन विडंबना देखिए कि अकबर के पाँच सौ से भी ज्यादा साल बाद एक और 'अकबर' दूसरे धर्म के खिलाफ जहर फैलाने, उसके देवी-देवताओं का अनादर करने और आम लोगों को हिंसा के लिए उकसाने के लिए गिरफ़्तार होने के कगार पर है।

यह अकबर है आंध्र प्रदेश के धार्मिक-राजनैतिक संगठन मजलिसे इत्तहादुल मुसलमीन का विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी जिसने 24 दिसंबर को आदिलाबाद जिले में हजारों लोगों को संबोधित करते हुए हिंदुओं के विरुद्ध अपमानजनक, हिंसक और सांप्रदायिक मानसिकता से भरी बातें कहीं। इसी किस्म की बातें उसने दूसरे स्थानों पर आठ और 22 दिसंबर को भी कही थीं। भारत में मुसलमानों की 'तकलीफों' का बयान करते हुए अकबरुद्दीन ने ऐलान किया कि अगर पंद्रह मिनट के लिए इस देश की पुलिस को अलग हटा लिया जाए तो भारत के पच्चीस करोड़ मुसलमान सौ करोड़ हिंदुओं को सबक सिखाने में सक्षम हैं।

लीजिए, इस देश के दक्षिण में एक और मोहम्मद अली जिन्ना पैदा होने की कोशिश कर रहा है। या भिंडराँवाले? ये वही लोग हैं जो अपनी ओछी राजनीति के लिए देश के धर्मभीरू लोगों को बहकाने, भड़काने और समाज को बाँटने की कोशिश करते हैं। ये वही लोग हैं जो न इतिहास से सबक लेते हैं और न वर्तमान से। और ये वही लोग हैं जो हमारी व्यवस्था, राजनैतिक अवसरवादिता और समाज की सहिष्णुता का बेज़ा फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। हालाँकि वे भूल जाते हैं कि इस मानसिकता का नतीजा सिर्फ तबाही के रूप में सामने आता है और वह तबाही किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं होती। वह सर्वग्राही होती है। वह दूसरों का भी नुकसान पहुँचाती है लेकिन सबसे बड़ा खतरा खुद उसी वर्ग के लिए बन जाती है जिसके साथ तथाकथित अन्याय की बात उठाते हुए ऐसे अवसरवादी लोग अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश करते हैं। इस देश में अन्याय बहुतों के साथ हो रहा है। हिंदुओं में ही बहुत सारे वर्ग खुद को शोषित मानते हैं। अल्पसंख्यकों में भी ऐसी आवाजें उठाई जाती हैं। उनकी कई शिकायतें जायज हो सकती हैं। लेकिन यहाँ आवाज उठाने के लिए लोकतंत्र का मंच मौजूद है। हिसाब-किताब साफ करने के लिए हिंसा कोई विकल्प नहीं है। भिंडराँवाले हों या बाबू बजरंगी, सैयद सलाहुद्दीन हों या फिर अकबरुद्दीन.. ऐसे लोग भूल जाते हैं कि आखिर में एक हिसाब-किताब देश भी करता है। मोहम्मद अली जिन्ना को जीवन के अंतिम दिनों में अपनी गलती का अहसास हो गया था जो पछतावे की मनःस्थिति में विदा हुए। लेकिन लगता है कि उन्हीं की तर्ज पर 'अल्लाहो अकबर' और 'नारा ए तकबीर' की आवाज बुलंद करने वाले अकबरुद्दीन को सद्बुद्धि आने में थोड़ा वक्त लगेगा।

कारण? इकतालीस साल का यह इंसान अब तक मनचाही हरकतें करके साफ बचता रहा है। सन 2011 में उसने कुरनूल में एक लैरी में एक विधायक को 'काफिर' कहकर संबोधित किया था और पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव को कातिल, दरिन्दा, बेईमान, धोखेबाज और चोर कहकर अपमानित किया था। उसने कहा था कि अगर स्व. राव का निधन न हुआ होता तो वह उन्हें अपने हाथों से मार डालता। अप्रैल 2013 में इसी शख्स ने भगवान राम और उनकी माँ कौशल्या पर अपमानजनक टिप्पणियाँ कीं। पिछली नवंबर में हैदराबाद में आंध्र प्रदेश पुलिस को 'नामर्दों की फौज' करार देते हुए मुख्यमंत्री किरन रेड्डी को चुनौती दी कि वह एक बार पुलिस को हटाकर देखे, तब हम दिखाएँगे कि कौन ताकतवर है। बारह दिसंबर को देवी भाग्यलक्ष्मी की ओर अपमानजनक इशारेबाजी करते हुए उसने वहाँ मौजूद भीड़ से कहा कि इतने जोर से नारे लगाओ कि भाग्य हिल जाए और लक्ष्मी धरती पर आ गिरे। इस पर भीड़ ने अल्लाहो अकबर के नारे लगाए। चौबीस दिसंबर की रैली में उसने हिंदुओं, हिंदू देवी-देवताओं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा, नरेंद्र मोदी, अमेरिका, भारत सरकार आदि के खिलाफ जहर उगला। हिंदुओं को कायर और नपुंसक करार देते हुए उसने कहा- तुम्हारे हिंदुस्तान की आबादी एक अरब है और हम मुसलमान 25 करोड़ हैं। मुसलमानों को हिंदुओं को यह दिखाने के लिए महज पंद्रह मिनट की जरूरत है कि कौन ज्यादा ताकतवर है। उसने कहा कि अगर मेरी बात नहीं सुनी गई तो हिंदुस्तान का हश्र बर्बादी में होगा। ऐसी भाषा, ऐसी मानसिकता और ऐसे आचरण की सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है। कड़ी कानूनी कार्रवाई करके सख्त सजा नहीं दी गई तो यह मानसिकता और आगे बढ़ेगी।

अकबरुद्दीन अकेला नहीं
मजलिसे इत्तहादुल मुसलमीन का नेतृत्व जब तक सलाहुद्दीन ओवैसी के हाथ में था, वह कमोबेश कानून के दायरे में रहने वाला संगठन था। सलाहुद्दीन ओवैसी भी मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर प्रखर विचारो के लिए जाने जाते हैं लेकिन इस किस्म की विध्वंसक बयानबाजी उन्होंने तब भी नहीं की थी जब 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ था। बहरहाल, उनके बाद मजलिस की दिशा में स्पष्ट नकारात्मक बदलाव आता दिखाई दे रहा है। यह बदलाव उसे राजनैतिक लिहाज से थोड़ा सा फायदा भले ही दिला दे, उस समुदाय को अलग-थलग कर देगा जिसके हितों की दुहाई ये नेता दे रहे हैं।

कुछ महीने पहले जब असम में बांग्लादेशियों और स्थानीय आदिवासियों के बीच दंगे हुए थे, तब अकबरुद्दीन के बड़े भाई असदुद्दीन ओवैसी ने भी उसी जैसी आक्रामक सांप्रदायिक मानसिकता का परिचय दिया था, जिसने कहा था कि अगर मुसलमानों के प्रति नजरिया नहीं बदलता तो देश को मुस्लिम युवकों के बीच कट्टरपंथ के तीसरे दौर के लिए तैयार रहना चाहिए। असदुद्दीन ओवैसी ने दंगापीड़ितों के बीच जो भड़काऊ भाषण दिए थे उन्हीं के बाद मुंबई में एक सभा के लिए जमा हुई मुस्लिमों की भीड़ ने जबरदस्त हिंसा की थी। असदुद्दीन के बयानों की जमकर निंदा हुई थी लेकिन कार्रवाई कोई नहीं हुई। लेकिन मजलिसे इत्तहादुल मुसलमीन का यह सांसद जिन लोगों तक अपना संदेश पहुँचाना चाहता था, वह पहुँचा चुका है। प्रतिक्रिया-स्वरूप देश के कई शहरों में हुई पूर्वोत्तरवासियों विरोधी हिंसा हो, मुंबई कांड हो या अकबरुद्दीन जैसे लोगों के भड़काऊ भाषण, सांप्रदायिक संक्रमण की खतरनाक शुरूआत हो चुकी है। सरकार और कानून स्थापित करने वाली एजेंसियों को अंदाजा होना चाहिए कि अगर अकबरुद्दीन और असदुद्दीन जैसे लोग आसानी से छूट जाते हैं तो यह सिलसिला और भी आगे बढ़ सकता है। इतना ही नहीं, इसकी प्रतिक्रिया और भी ज्यादा विध्वंसक ढंग से सामने आ सकती है।

राजनैतिक समीकरण
आंध्र प्रदेश पुलिस ने अकबरुद्दीन के विरुद्ध धारा 121 (राज्य के विरुद्ध युद्ध का प्रयास), 153 ए (समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाना) और 295ए (किसी धर्म या धार्मिक आस्थाओं का अपमान) आदि में मुकदमा दर्ज किया है। आज पुलिस उसके विरुद्ध बेहद मजबूत केस और अकाट्य सबूत होने की बात कर रही है, हालाँकि उसने मामले का संज्ञान खुद नहीं लिया था। दो अलग-अलग स्थानों पर दो व्यक्तियों के करुणासागर और एस वेंकटेश गौड ने अदालतों की शरण ली और न्यायपालिका का निर्देश आने के बाद ही पुलिस ने कार्रवाई शुरू की। आंध्र प्रदेश में जल्दी ही चुनाव होने हैं इसलिए पुलिस और राजनेताओं की हिचक समझ में आती है। दिल्ली में सहमत की कार्यकर्ता शबनम हाशमी ने भी संसद मार्ग थाने पर शिकायत दर्ज की है। फिलहाल अकबरुद्दीन बीमारी के इलाज के नाम पर ब्रिटेन गया हुआ है और लौटने तक उसकी गिरफ्तारी संभव नहीं दिखती, बशर्ते आंध्र प्रदेश सरकार थोड़ी चुस्ती दिखाए और इंटरपोल की मदद ले।

इधर मामला मीडिया में भी आ गया है और सोशल नेटवर्किंग पर भी अकबरुद्दीन के भाषणों पर तीखी प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। ऐसे में, पुलिस के लिए इस मामले में ढिलाई संभव नहीं होगा। लेकिन बात पुलिसिया कार्रवाई तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए। चुनाव आयोग को भी चाहिए कि इस मामले का संज्ञान ले और ऐसे लोगों को चुनावी प्रक्रिया से प्रतिबंधित करे जो देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और संविधान के ताने-बाने को तार-तार करने पर उतारू हो जाते हैं और ऐसा करते वक़्त जरा भी झिझकते नहीं। प्रसंगवश, उन देशभक्त मुसलमानों की तारीफ होनी चाहिए जिन्होंने इस मामले में अपना रुख तुरंत साफ किया और अकबरुद्दीन के बयानों की कड़ी निंदा की। गीतकार जावेद अख़्तर ने कहा कि अकबरुद्दीन जैसे लोग भारतीय मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। शबनम हाशमी तो खुद पुलिस तक पहुँची हैं। जामिया मिलिया के कुलपति नजीब जंग, जाने-माने लेखक-पत्रकार असगर अली इंजीनियर, हामिद मोहम्मद खान, मुख्तार अब्बास नकवी, फरहान अख्तर.. उनका सामने आना अहम है। वे सही समय पर लोगों तक सही संदेश भेजने में कामयाब रहे हैं।
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