08-07-2013, 10:27 PM | #9 |
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Re: इधर-उधर से
अपना-पराया
(लेखक: जयप्रकाश मानस) उस दिन आफिस के लिए निकला तो देखता हूँ कि पड़ोसन भाभी, अस्त व्यस्त साड़ी लपेटे, बदहवास सी कहीं चली जा रही थी । मैंने स्कूटर उनके पास रोक कर पूछा- ‘क्या बात है भाभी इस तरह .......मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि वह सुबकने लगीं।’ सुबकते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाईं, “अभी-अभी खबर मिली है कि गुड्डी के दूल्हे ने जहर खा लिया है, इसलिए उसके यहाँ जा हूँ ।” मन बहुत आहत हुआ, किंतु क्या कर सकता था सिवाय इसके कि उन्हें बस स्टेण्ड तक छोड़ दूँ । शाम को लौटते समय सोचा चलो उनके घर का हाल तो ले लूँ । मैंने दरवाजा खटखटाया ही था कि अंदर से भाभी की हँसी सुनाई पड़ी । मैं चौंका, तभी भाभी बाहर आ गई । उनके मुस्कुराते चेहरे को देखकर मैंने कहा- ‘अफवाह थी ना ?’ ‘नहीं, वो तो मुझे तब राहत मिली जब बस स्टैण्ड में ही पता चला कि ज़हर, गुड्डी के दूल्हे ने नहीं, उसके जेठ ने खाया था।’ भाभी ने कहा । |
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