01-08-2013, 12:15 PM | #11 |
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Re: कथा संस्कृति
अंतिम ग़रीब / जगदीश कश्यप
दरबान ने आकर बताया कि कोई फरियादी उनसे जरूर मिलना चाहता है। उन्होंने मेहरबानी करके भीतर बुलवा लिया। फरियादी झिझकता-झिझकता उनके दरबार में पेश हुआ तो वे चौंक पड़े। उन्हें आश्चर्य हुआ कि वह वहाँ कैसे आ गया! फिर यह सोचकर कि उन्हें भ्रम हुआ है, उन्होंने पूछ लिया—“कौन हो?” “मैं गरीबदास हूँ सरकार।” “गरीबदास! तुम? तुम्हें तो मैंने दफन कर दिया था!!” “भूखे पेट रहा नहीं गया माई-बाप। इसलिए उठकर चला आया।” “अब क्या चाहते हो?” “कुछ खाने को मिल जाए हुजूर्।” “अभी देता हूँ।” उसे आश्वासन देकर उन्होंने सामने दीवार पर टँगी अपनी दुनाली उतार ली,“यह लो खाओ…!” दुनाली ने दो बार आग उगल दी। गरीबदास वहीं ढेर हो गया। “दरबान, इसे ले जाकर दफना दो। इस कमीने ने तो तंग ही कर दिया है…।” दूसरे दिन जब वह गरीबी-उन्मूलन के प्रारूप को अंतिम रूप दे रहे थे तो दरबान हड़बड़ाया हुआ-सा उनके कमरे में जा घुसा। उसकी घिग्घी बँधी हुई थी। “मरे क्यों जा रहे हो?” उन्होंने डाँटा। “हुजूर-हुजूर…” दरबान ने भयभीत आँखों से बाहर द्वार की ओर संकेत करते हुए कहा, “वही फरियादी फिर आ पहुँचा है…!!!”
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